सत्व गुण सम्पन्न वैष्णवी शक्ति देवी महा-लक्ष्मी! श्री हरी विष्णु अर्धाग्ङिनी।

भगवान विष्णु की जीवन संगिनी महा-देवी लक्ष्मी, सत्व गुण से सम्बद्ध वैष्णवी शक्ति, जल तथा जल से सम्बंधित नाना तत्वों से सम्बंधित।

महा-देवी महा-लक्ष्मी! धन, संपत्ति, वैभव तथा सुख के अधिष्ठात्री देवी हैं। जगत पालन कर्ता श्री हरी विष्णु की पत्नी होने के कारण देवी लक्ष्मी सत्व गुण सम्पन्न तथा जगत पालन कार्य से सम्बद्ध हैं। देवी लक्ष्मी! भगवान विष्णु की वैष्णवी शक्ति हैं तथा उन्हीं से प्रेरित होकर वे जगत पालन कार्य में संलग्न रहती हैं। भगवान हरि सर्वदा क्षीर सागर स्थित शेष नाग की शैया पर योग-निद्रा या ध्यान मग्न रहते हुए आपने समस्त कर्तव्यों का पालन करते हैं, साथ ही देवी महा-लक्ष्मी आपने पति कि सेवा-जतन में मग्न रहती हैं।

जल तथा जल से सम्बंधित तत्व भगवान विष्णु एवं लक्ष्मी जी दोनों को अति प्रिय हैं, विशेषकर समुद्र; समुद्र में अनगिनत प्रकार के अमूल्य रत्न जैसे मुक्ता या मोती, कौड़ी, प्रवाल (मूंगा) इत्यादि पाये जाते हैं, समस्त प्रकार के रत्नों की देवी लक्ष्मी अधिष्ठात्री हैं। प्राचीन काल में रत्नों से ही व्यापार, क्रय-विकार, व्यापार इत्यादि का कार्य होता था, आज के समय में केवल वह माध्यम बदल गया हैं; आदि काल से रत्न-धातु मनुष्य के वैभवता, संपन्नता का प्रतीक हैं।

लक्ष्मी जी! कमल या पद्म पुष्प प्रिया हैं, वे अधिकतर कमल के ही आसन पर विराजमान रहती हैं। समुद्र से देवी के प्रादुर्भाव पश्चात कमला नाम से देवी विख्यात हुई, देवी पद्म या कमल पुष्प के सामान ही दिव्य हैं। पद्म या कमल पुष्प हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्म में अत्यंत पवित्र तथा महत्त्वपूर्ण हैं; क्योंकि कमल पुष्प कीचड़ या मैले स्थान में उगता हैं, परन्तु कीचड़ या मैलापन का पुष्प पर कोई प्रभाव नहीं होता, पुष्प सर्वदा ही स्वच्छ, निर्मल तथा आपनी दिव्य कांति युक्त रहता हैं। कमल दर्शाता हैं! हम जैसे भी रहे, जहाँ भी रहे, परिस्थितियां विपरीत ही क्यों न हो, हमें आपने अन्तः कारण को सर्वदा निर्मल तथा पवित्र रखना चाहिए। इसी कारण पद्म या कमल पुष्प, हिन्दू, बौध तथा जैन धर्म में एक विशेष स्थान पर अवस्थित हैं।

सत्व-गुण की अधिष्ठात्री महादेवी 'लक्ष्मी'

लक्ष्मी

धन, सुख, संपत्ति तथा वैभव के अधिष्ठात्री देवी महा-लक्ष्मी।

देवी महा-लक्ष्मी धन, संपत्ति, नाना अमूल्य वस्तु, रत्न इत्यादि तथा वैभव-सुख की अधिष्ठात्री देवी हैं। देवताओं, मनुष्यों तथा दानवों को देवी ही धन, संपत्ति, सुख, वैभव प्रदान करती हैं, तीनों लोकों में देवी सभी वर्गों तथा गणो द्वारा पूजिता हैं। देवी कृपा लाभ के अभाव में देवता, दानव तथा मनुष्य के जीवन में स्थाई रोग, नाना कष्ट-दुःख, दरिद्रता या धन-हीनता युक्त रहते हैं। सत्व गुण सम्पन्न होने के परिणामस्वरूप देवी का सम्बन्ध सत्यता, दिव्यता, निर्मलता तथा पवित्रता से हैं। देवी पवित्र स्थानों पर ही निवास करती हैं, सत्य-सदाचार के पथ का अनुसरण करने वालों के वंशों में स्थिर या चिर निवास करती हैं।
आपवित्र जैसे गंदे, मैले, दुर्गन्धयुक्त इत्यादि स्थानों पर देवी लक्ष्मी की बहन अलक्ष्मी या धूमावती निवास करती हैं, जो दरिद्रता, नाना प्रकार के समस्या, दुःख, कष्ट, रोग-ग्रस्तता प्रस्तुत करती हैं। धन-सुख की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी की कृपा लाभ हेतु, सत्यता, पवित्रता, निर्मलता अत्यंत आवश्यक हैं, देवी पवित्र स्थानों को ही आपने आश्रय का स्थान बनाती हैं तथा वहां वास करने वाले सभी को सुख समृद्धि से सम्पन्न कर देती हैं। अच्छी फसल, महामारी तथा नाना रोगों से दूर, निरोगी काया, व्यापार में उन्नति, वंश वृद्धि, सुख समृद्धि इत्यादि देवी के कृपा से ही पूर्ण हो पाते हैं।

लक्ष्मी शब्द दो शब्दों के मेल से बना हैं, एक 'लक्ष्य' तथा दूसरा 'मी'; लक्ष्य तक ले जाने वाली देवी लक्ष्मी! इनकी कृपा के बिना कोई भी आपने लक्ष्य को नहीं भेद पाया या पहुँच सकता हैं। देवी, सत्व गुणी देवियों में सर्वोच्च पद पर अधीन हैं तथा वैष्णव संप्रदाय से सम्बद्ध हैं; देवी का वाहन उल्लू पक्षी हैं।

देवी कमला के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा, उनके द्वारा लक्ष्मी नाम तथा श्री पद प्राप्त करना।

श्रीमद भगवत के आठवें स्कन्द में देवी कमला के उद्भव की कथा प्राप्त होती हैं; देवी कमला का प्रादुर्भाव समुद्र मंथन से सम्बंधित हैं। एक बार देवताओं तथा दानवों ने मिल-कर समुद्र मंथन किया, जिससे प्राप्त रत्नों से वे और अधिक समृद्ध हो सके, जिनमें अमृत प्राप्त करना मुख्य उद्देश्य था। समुद्र मंथन से कुल १८ प्रकार के रत्न प्राप्त हुए, जिनमें धन की देवी कमला तथा निर्धनता की देवी निऋति नमक दो बहने भी थीं। देवी कमला ने पुरुषोत्तम भगवान विष्णु को आपने वर के रूप में चयनित किया, तत्पश्चात दोनों का शास्त्रोक्त विधि ने पाणिग्रहण हुआ। लक्ष्मी जी की बहन निऋति! दुसह नमक ऋषि को प्रदान कर दी गई, जिनसे उनका विवाह हुआ। परन्तु दोनों बहनें में व्यापक अंतर हैं, लक्ष्मी जी धन, संपत्ति, सुख, समृद्धि इत्यादि की अधिष्ठात्री देवी हैं, उन्हें पवित्रता, स्वच्छता, निर्मलता आदि प्रिय हैं; देवी निर्मल स्थानों में वास करती हैं। इसके विपरीत उनकी बहन निऋति! दुर्भाग्य, दरिद्रता, कलह, रोग-ग्रस्तता, दुःख इत्यादि नकारात्मक भावनाओं तथा तथ्यों की अधिष्ठात्री देवी हैं, इन्हें आपवित्रता, दुर्गन्ध, अस्वच्छता, कलह इत्यादि प्रिय हैं; देवी आपवित्र स्थानों में वास करती हैं।
भगवान विष्णु से विवाह के पश्चात देवी कमला, 'लक्ष्मी' नाम से विख्यात हुई; दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण लक्ष्मी जी ने ही समस्त देवताओं का त्याग कर दिया था तथा अदृश्य हो गई थीं, जिसके कारण समस्त देव धनहीन, निस्तेज, अभाव युक्त होकर इधर उधर भटकते रहते थे। देवी लक्ष्मी ने विशेष स्थान प्राप्त करने हेतु, श्री विद्या, महा त्रिपुरसुंदरी की कठोर आराधना-तपस्या की; आराधना से संतुष्ट हो देवी त्रिपुरा ने उन्हें 'श्री' उपाधि प्रदान की तथा महाविद्याओं में विशिष्ट स्थान भी प्रदान किया। तत्पश्चात, देवी महा-लक्ष्मी का सम्बन्ध पूर्णतः धन तथा सुख से हैं।

देवी भागवत पुराण के अनुसार, देवी लक्ष्मी तथा भगवान विष्णु का प्रादुर्भाव।

सृष्टि के आरम्भ में रास मंडल के मध्य, श्री कृष्ण के वाम भाग से देवी राधा प्रकट हुई थीं, वे अत्यंत सुन्दर तथा मनोहर १२ वर्ष की सुंदरी के सामान प्रतीत हो रही थी। उनका मुख मंडल करोड़ों चंद्रमा की प्रभा के सामान प्रभावशाली तथा चंपा के पुष्प के सामान कान्तिमती थी। वे सर्वदा श्री कृष्ण के साथ विराजमान रहती थीं, एक बार वे आपनी इच्छा से दो रूपों में विभक्त हो गई, उनके बाएँ अंश से लक्ष्मी जी का प्राकट्य हुआ तथा दाहिने अंश से वे स्वयं राधा ही रही। सर्वप्रथम श्री राधा जी ने द्वि-भुजा धारी श्री कृष्ण को पति रूप में वरण किया; श्री राधा जी के सामान ही लक्ष्मी जी ने भी श्री कृष्ण को पति रूप में वरण करने की इच्छा प्रकट की। तदनंतर श्री कृष्ण, लक्ष्मी जी की गौरव रक्षा हेतु दो रूप में विभक्त हो गए, आपने दाहिने अंश से वे द्वि भुजा धारी श्री कृष्ण तथा बाएँ अंश से श्री विष्णु रूप में प्रकट हुए। तदनंतर, श्री कृष्ण के चतुर्भुज रूप श्री विष्णु को लक्ष्मी जी ने पति रूप में वरण किया। आपने कृपा दृष्टि से तीनों लोकों की देख-रेख करने वाली देवी, अत्यंत महत्व-शालिनी होने के कारण लक्ष्मी नाम से प्रसिद्ध हुई। श्री कृष्ण तथा श्री विष्णु, गुण तथा अंश में समान ही हैं; भगवान विष्णु के साथ लक्ष्मी जी वैकुंठ की ओर चली गई एवं सम्पूर्ण सौभाग्य से सम्पन्न हो वैकुण्ठ में निवास करने लगी।

प्रेम से उत्पन्न होने के कारण देवी लक्ष्मी नारियों में प्रधान हुई; स्वर्ग में देवी! स्वर्ग-लक्ष्मी नाम से, पाताल में नाग-लक्ष्मी नाम से, राजा-महाराजाओं के यहाँ राज-लक्ष्मी नाम से तथा गृहस्थों के घर में गृह-लक्ष्मी नाम से आपने अंश से युक्त हो विराजने लगी। गऊओं की जननी माता सुरभि तथा यज्ञ पत्नी दक्षिणा के रूप में भगवती लक्ष्मी ही प्रतिष्ठित हैं तथा वे ही क्षीर सागर के कन्या के रूप में प्रकट हुई; वे कमल पुष्प में श्री रूप से, चन्द्रमा तथा सूर्य में शोभा रूप से विराजमान हैं। भूषण, रत्न, फल, जल, राजा, रानी, दिव्य स्त्री, गृह, सभी प्रकार के अनाज या धान्य, वस्त्र, पवित्र स्थान, देव-प्रतिमा, मंगल कलश, माणिक्य, मोती या मुक्ता, मणि, हीरा, दुग्ध, चन्दन, नवीन मेघ-इन वस्तुओं में देवी लक्ष्मी जी का ही अंश विद्यमान हैं।

सर्वप्रथम भगवान विष्णु ने ही देवी लक्ष्मी की पूजा की थीं, तदनंतर ब्रह्मा जी ने तथा तृतीय शंकर जी ने उनकी पूजा की थीं। तदनंतर, स्वायम्भु मनु, समस्त देवता एवं राजा या नरेश, ऋषि-मुनि तथा गृहस्थों द्वारा देवी पूजित हुई साथ ही पाताल लोक में देवी गन्धर्वों तथा नागों द्वारा पूजित हुई। भगवान विष्णु की प्रिया होकर देवी महा-लक्ष्मी वैकुण्ठ में निवास करती हैं तथा वैकुण्ठ की अधिष्ठात्री देवी हैं, देवी ही भगवान नारायण की पत्नी वैष्णवी शक्ति नारायणी हैं।

एक बार महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण समस्त देवता श्री या लक्ष्मी हीन हो गए तथा लक्ष्मी जी ने स्वर्ग का त्याग कर दिया; रुष्ट होकर उन्होंने आपने आप को वैकुण्ठ में निवास करने वाली लक्ष्मी जी के साथ विलीन कर दिया तथा वहां से अंतर्ध्यान हो गई थीं। समस्त देवता लक्ष्मी-यश-धन हीन होकर पृथ्वी पर इधर-उधर भटकने लगे, तदनंतर समस्त देवता ब्रह्मा जी को साथ लेकर वैकुण्ठ गए तथा भगवान विष्णु के शरणापन्न हुए। भगवान जनार्दन श्री विष्णु की आज्ञा से ही लक्ष्मी जी आपनी काला से सिन्धु की पुत्री रूप में अन्य १७ रत्नों के साथ, समुद्र मंथन के समय आविर्भूत हुई थीं।

देवी महा-लक्ष्मी का भौतिक स्वरूप।

देवी महा-लक्ष्मी का स्वरूप अत्यंत ही, सुन्दर, मनोहर, दिव्य तथा मनमोहक हैं। वे स्वर्णिम आभा से युक्त कांति-मति हैं, अत्यंत सुन्दर स्वरूप वाली मुख मंडल पर हलकी सी मुस्कान की छठा बिखेरे हुए हैं, कमल पुष्प के सामान तीखे इनके तीन नेत्र हैं। देवी चार भुजाओं से युक्त हैं तथा वे आपने ऊपर के दो भुजाओं में कमल पुष्प धारण करती हैं तथा नीचे के दोनों भुजाओं से धन प्रदान करती हैं या सोने की मुद्राएँ बरसाती हैं। देवी महा-लक्ष्मी, नाना अमूल्य रत्न तथा कौस्तुभ मणि से सुसज्जित मुकुट आपने मस्तक पर धारण करती हैं, सुन्दर रेशमी साड़ी पहनती हैं तथा अमूल्य रत्नों से युक्त विभिन्न आभूषण धारण करती हैं। देवी सागर के मध्य में कमल पुष्पों से घिरी हुई हैं तथा कमल के ही आसन पर विराजमान हैं, कमल या पद्म पुष्प इन्हें अत्यंत ही प्रिय हैं।

देवी महा-लक्ष्मी से सम्बंधित अन्य तथ्य

देवी लक्ष्मी आपने भिन्न-भिन्न कार्यों के अनुसार अन्य आठ नामों से भी विख्यात हैं।
१. सौभाग्य लक्ष्मी, देवी के भैरव नारायण हैं तथा सौभाग्य, सुख प्रदान करती हैं।
२. महा-लक्ष्मी, देवी के भैरव वासुदेव हैं तथा धन प्रदान करने वाली हैं।
३. त्रि शक्ति लक्ष्मी, तीनों गुणों (सत्व, रजो तथा तामस) से सम्पन्न देवी हैं।
४. सिद्ध लक्ष्मी, सिद्धि प्रदान करने वाली देवी हैं।
५. श्री विद्या लक्ष्मी, श्री विद्या महा त्रिपुरसुंदरी से वार प्राप्त कर, श्री पदवी प्राप्त करने वाली धन की देवी।
६. साम्राज्य लक्ष्मी, देवी के भैरव श्री हरि हैं तथा राज्य, राज-पाट प्रदाता हैं।
७. राज लक्ष्मी, देवी कुब्जिका स्वरूप में, अच्छी फसल प्रदान करने वाली हैं।
८. धान्य लक्ष्मी, देवी अन्नपूर्णा के स्वरूप में, अनाज तथा रसोई घर की देवी, भोजन प्रदान करने वाली हैं।
इन आठ स्वरूपों में देवी लक्ष्मी अष्ट लक्ष्मी समूह के नाम से जानी जाती हैं।

देवी महालक्ष्मी की घनिष्ठता निधि रक्षकों से हैं, जो यक्ष नाम से विख्यात हैं। कुबेर, जो देवताओं के निधि रक्षण के कार्य में संलग्न रहते हैं, देवी के आज्ञा अनुसार ही आपना कार्य करते हैं। देवराज इंद्र! जो देवताओं के राजा तथा स्वर्ग के अधिपति हैं, देवी कि कृपा से ही उन्हें यह सर्वोच्च पद प्राप्त हैं एवं उनके साम्राज्य की वे ही आपने विभिन्न रूपों से रक्षा करती हैं। जब-जब देवराज इंद्र या उनके इन्द्रसान पर कोई विपत्ति उपस्थित हुई, देवी ने ही आपने नाना तामसी रूपों में प्रकट हो सर्वदा उनकी रक्षा की। महिषासुर का वध कर देवताओं की रक्षा करने वाली देवी साक्षात महालक्ष्मी शक्ति! महिषासुर-मर्दिनी ही थीं।

कार्तिक मास की अमावस्या जो दीपावली नाम से प्रसिद्ध हैं, देवी लक्ष्मी या शक्ति को समर्पित हैं। दीपावली प्रकाश का पर्व हैं, इस दिन समाज का प्रत्येक वर्ग देवी लक्ष्मी की विशेष आराधना पूजा करता हैं, माना जाता हैं इस दिन पृथ्वी लोक में देवी लक्ष्मी का आवागमन होता हैं। देवी के आगमन हेतु पहले से ही घर तथा आस-पास के स्थानों को साफ सुथरा एवं निर्मल किया जाता हैं, सजाया जाता हैं, गृहों तथा अन्य स्थानों में प्रकाश की व्यवस्था की जाती हैं, पटाखे चला कर देवी आगमन हेतु, भव्य स्वागत किया जाता हैं। देवी स्वच्छ-निर्मल, मनोरम तथा प्रकाश युक्त स्थानों को ही आपने आश्रय हेतु चयनित करती हैं, अन्यथा निर्धनता, दुर्भाग्य तथा दुःख रूपी आपनी बहन को छोड़ कर वे चली जाती हैं।
शक्ति साधकों या शक्ति पूजा से सम्बंधित समाजों में, दीपावली के दिन काली की पूजा आराधना की जाती हैं। विशेषकर तंत्र पथ का अनुसरण करने वालों हेतु, यह तिथि अति विशिष्ट हैं, कार्तिक अमावस्या रात्रि काल में की जाने वाली दैवी साधनाएँ-क्रियाएं शीघ्र फल दाई तथा सफल होती हैं। कई प्रकार के अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति कार्तिक अमावस्या या दीपावली के दिन बड़े ही सरलता से हो जाती हैं। भारत के पूर्वी भागों में सामान्य लोग, शक्ति साधक दीवाली की रात्रि में महा-काली, दक्षिणा काली की पूजा करते हैं एवं आश्विन पूर्णिमा तिथि (कोजागरी पूर्णिमा) में लक्ष्मी की पूजा आराधना की जाती हैं, समुद्र मंथन के समय आश्विन पूर्णिमा तिथि के दिन ही देवी कमला का समुद्र से प्रादुर्भाव हुआ था, जो कोजागरी पूर्णिमा नाम से विख्यात हैं। वास्तव में देखा जाये तो लक्ष्मी तथा काली में कोई भेद नहीं हैं, काली तामसी शक्ति हैं तो लक्ष्मी सात्विक शक्ति, प्रकारांतर से दोनों में केवल भेद हैं अन्यथा नहीं।

राज-पाट, राजसिक वैभव, अमूल्य रत्न जैसे हीरा, पन्ना, पुखराज इत्यादि, आभूषण, स्वर्ण इत्यादि अमूल्य धातु, हाथी, घोड़े, वाहन इत्यादि, समस्त वैभव युक्त सुख समृद्धि, तीनों लोकों में देवी ही प्रदान करती हैं। देवी लक्ष्मी जहाँ अनुपस्थित रहती हैं उन स्थानों में इनकी बहन अलक्ष्मी या धूमावती निवास करती हैं, जो निर्धनता, दुःख, समस्याएँ, कलह इत्यादि उत्पन्न कर, जीवन को कष्ट मय बना देती हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध प्रकाश तथा प्रकाशित स्थानों से हैं तथा अंधकार देवी अलक्ष्मी या धूमावती से सम्बंधित हैं।

धनतेरस में लक्ष्मी पूजन तथा दीपोत्सव या दीपावली पर्व |

समुद्र मंथन पश्चात, भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार धारण कर देवताओं को अमृत पान करवाया | दैत्यों को जब इस छल का ज्ञात हुआ, दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण किया जिसमें दैत्यों की हार हुई तथा विरोचन पुत्र दैत्य-पति बलिसहित समस्त दैत्य मारे गए; परन्तु दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने मृत-संजीवनी विद्या द्वारा सभी को पुनः जीवित कर दिया | तत्पश्चात, शुक्राचार्य तथा राजा बलि ने स्वर्ग के सिंहासन को प्राप्त करने का उपाय किया, गुरु आदेशानुसार दैत्य-पति ने विश्व-जित यज्ञ का आयोजन किया। दैत्य गुरु ने यज्ञ का आरम्भ करवाया तथा अग्नि देव को हविष्य से तृप्त कर दिया, तदनंतर यज्ञ से चार घोड़ों से जूता हुआ रथ प्रकट हुआ, जो अनेक ध्वज से सुशोभित था तथा भातीं-भातीं के अस्त्र-शास्त्रों से अलंकृत था। राजा बलि दिव्य रथ पर आरूढ़ हो, अपनी सेना को साथ ले इंद्र से युद्ध करने हेतु स्वर्ग की ओर गए। उस समय यज्ञ के प्रभाव से दैत्य बहुत बलवान थे तथा तपस्या एवं पराक्रम के द्वारा अजेय हैं। सब देवता भय से व्याकुल हो आपने पिता कश्यप जी के आश्रम में गए, वहां उन्होंने माता अदिति से दैत्यों की सारी चेष्टायें सुनाई। वहाँ दानवों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया, इस प्रकार तीनों लोकों के भोगो को दैत्य स्वयं भोगने लगे; उनका तीनों लोकों पर अधिकार था |
राजा बलि अपनी सभी प्रजा में सम दृष्टि रखते थे, न्याय प्रिय तथा पुरुषोत्तम भाव से प्रजा का पालन करते थे। एक दिन उन्होंने अपनी प्रजा में एक विकट असमानता का अवलोकन किया, कोई बहुत दरिद्र था तो कोई बहुत धनवान, कुछ-एक के पास बहुत खाना, वैभव, सुख तथा को असंख्य लोग भूखे रहते थे, जिनके शरीर पर न मात्र के वस्त्र थे। यह देख वे विचलित हो गए तथा इसका कारण आपने गुरु शुक्राचार्य ज्ञात करने का प्रयत्न किया। शुक्राचार्य ने बलि को बताया कि! इस भेद-भाव का कारण केवल लक्ष्मी जी हैं, जो सभी पर सम दृष्टि नहीं रखती हैं; वे ही धन, सुख, वैभव प्रदाता हैं। यदि वे अपनी समस्त प्रजा को सुखी देखना हैं तो लक्ष्मी जी को पृथ्वी के समस्त प्राणियों पर सम दृष्टि रखनी पड़ेगी।
राजा बलि वैकुण्ठ गए तथा उन्होंने लक्ष्मी जी से पृथ्वी पर पधारने का सविनय निमंत्रण किया, साथ ही उनसे सभी प्राणियों पर सम भाव रखने का भी निवेदन किया। परन्तु, विष्णु पत्नी लक्ष्मी ने बलि के साथ पृथ्वी पर आने से माना कर दिया, जिसपर लक्ष्मी जी तथा भगवान विष्णु एवं दैत्य-पति में परस्पर विवाद हुआ | तीनों लोकों पर दैत्य-पति के अधिकार होने के फलस्वरूप श्री देवी पर भी उनका पूरा अधिकार था | अंततः राजा बलि ने लक्ष्मी जी को पृथ्वी पर चलने की आज्ञा दी, तदनंतर भगवान विष्णु ने भी लक्ष्मी जी को उनके साथ जाने की आज्ञा दी।
दैत्य-पति बलि के भवन पर लक्ष्मी जी का यथोचित आदर सत्कार हुआ; स्वर्ण के सिंहासन पर बैठा कर राजा बलि की पत्नी ने उनकी पूजा अर्चना की। लक्ष्मी जी ने बलि से पूछा! तुम मुझे यहाँ रख कर क्या करोगे? राजा बलि ने कहा! मैं आपको यहाँ बंदी नहीं बना कर रखूँगा, मैं चाहता हूँ आप सारे भेद-भाव मिटा कर, दरिद्रों के झोंपड़ियों में भी रहें, कार्य करने वालों के पसीने के एक-एक बूंद पर आप निवास करें, सभी पर सम दृष्टि रखें। जहाँ-जहाँ आप नहीं हैं वहाँ के लोग कैसे जीवन निर्वाह करते हैं! मैं आपका परिचय उस परिस्थिति से करवाना चाहता हूँ | आप की प्रत्येक गृह में स्थापना करना चहता हूँ। कही प्रजा यह न कहें की साक्षात् लक्ष्मी जी को आपने घर लाने वाले बलि राज ने अपनी प्रजा को भूखा रखा। इसपर लक्ष्मी जी, दैत्य-पति पर बहुत संतुष्ट हुई तथा पूछा कि वे उनकी प्रजा के लिये क्या कर सकती हैं? बाली राज ने लक्ष्मी जी से निवेदन किया! अश्विन मास तेरस या त्रयोदशी के दिन वे राजा और प्रजा के सभी भेद-भाव मिटा कर सभी पर सम दृष्टि डालें | इस प्रकार दैत्य-पति की भावना पर लक्ष्मी जी बहुत प्रसन्न हुई तथा उन्होंने पृथ्वी के अंत तक अश्विन मास तेरस के दिन सभी पर सम-दृष्टि रखने का दैत्य-पति को आशीर्वाद दिया; यह दिन धन-तेरस पर्व नाम से आज भी जाना जाता हैं । कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी तिथि के दिन दैत्य-पति बलि तथा उनके समस्त प्रजा ने लक्ष्मी जी पूजा-अर्चना की। (धनतेरस के दिन समुद्र-मंथन से देवताओं के वैध भगवान धन्वन्तरी अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे |)

भगवान विष्णु का वामन रूप में दैत्य-पति बलि से सर्वस्व दान में प्राप्त करना तथा दीपोत्सव पर्व।

प्रह्लाद जी के वंश में उत्पन्न विरोचन पुत्र दैत्य-पति बलि ने आपने १०० वे अश्वमेध यज्ञ अश्व को छोड़ते हुए, द्वार पर आयें हुए याचक को इच्छित दान देने का संकल्प लिया; जिसकी दीक्षा दैत्य-गुरु शुक्राचार्य ने उन्हें दी। भगवान विष्णु ब्रह्मचारी बालक वामन रूप में देव-माता अदिति को दिये हुए वचन अनुसार, देवताओं तथा दैत्यों को उचित अधिकार पुनः प्राप्त करवाने तथा जन कल्याण हेतु; अन्य देवताओं से सहायता प्राप्त कर दैत्य-पति बलि के पास याचक बन कर गए थे।
देवताओं द्वारा दिये गए नाना शक्तियों से संपन्न हो, वामन, राजा बलि के यज्ञ अनुष्ठान में याचक बन कर गए। उनके तेजस्वी रूप को देखकर सभी बहुत मोहित हुए, बलि राज ने उनसे दान मांगने के लिये कहा। वामन ने कहा! आप दान देने के इच्छुक हैं तो पहले हाथ में जल लेकर दान का संकल्प करें। इस पर दैत्य गुरु शुक्राचार्य को ब्रह्मचारी बालक पर संदेह हुआ तथा वे जान गए की यह कोई ओर नहीं साक्षात् जगदीश्वर भगवान विष्णु हैं और वे देवताओं का कार्य सिद्ध करने आये हैं। उन्होंने अपने शिष्य बलि को दान संकल्प करने से रोका परन्तु वे नहीं माने, इस पर उन्होंने दैत्य-पति को श्री हीन होने का शाप दे दिया। बलि ने जैसे ही कमंडल रूपी जल के पात्र से संकल्प हेतु जल हाथ में लेना चाहा, कमंडल से जल नहीं गिरा। कमंडल के मुँह को शुक्राचार्य सूक्ष्म देह धारण कर रोकें हुए थे, जिसे वामन ने तिनके के सहारे साफ किया। परन्तु तिनके के चोट से शुक्राचार्य के चक्षु को क्षति पहुँची तथा वे अंधे हो गए एवं चिल्लाते हुए बहार आये, उनके अनुसार वह उनका दैत्यों को बचाने का अंतिम प्रयास था, तत्पश्चात वे अन्यत्र चले गए।
शुक्राचार्य जी के जाने के पश्चात, बलि राज ने हाथ में जल लेकर ब्रह्मचारी बालक को इच्छित दान देने का संकल्प किया। ब्रह्मचारी बालक ने उनसे तीन पग भूमि दान स्वरूप मांगी; तथा राजा बलि ने उन्हें तीन पग भूमि दान में देने का संकल्प किया। देखते ही देखते बालक रूपी ब्रह्मचारी विशाल आकृति धारण करने लगे तथा सत्य लोक तक उन्होंने आपने आप को विस्तृत कर लिया। एक पग से उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी को नाप लिया, दूसरे पग में सम्पूर्ण आकाश को ले लिया, अब तीसरे पग के लिए राजा-बलि के पास कुछ शेष नहीं रह गया था। दो पगो से ही वामन जी ने तीनों लोकों को ले लिया था, उन्होंने तीसरे पग के लिये बलि से स्थान देने के लिये कहा। बलि की पत्नी विन्ध्यावली ने वामन जी से कहा! मानव देह भी माटी का ही बना हुआ हैं, वे अपना तीसरा पग उनके पति बलि तथा उनके मस्तक पर रखें। इस पर वामन जी बहुत प्रसन्न हुए, अपना सर्वस्व दान करने वालों के वे दास हैं, उन्होंने आपने तीसरे पग में पना पैर बलि तथा उनकी पत्नी के मस्तक पर रखा एवं उन्हें पाताल भेज दिया; उन्हें पाताल का राजा नियुक्त कर दिया। साथ ही उन्होंने आषाढ़ सुदी एकादशी से चार महीनों तक बलि राज का द्वार-पाल बनकर, पाताल में रहने का अपना विचार भी सुनाया।

दीपोत्सव या दीपावली मनाने का कारण।

दैत्य-पति बलि को पाताल के राज्य पर अभिषिक्त होने पर, स्वर्ग का राज्य देवताओं को पुनः प्राप्त हो गया, लक्ष्मी जी भी भगवान विष्णु के पास वापस वैकुण्ठ चली गई। अंततः बलि राज ने वामन से कहा! आप ने छद्म से तीन दिन के भीतर मेरा सर्वस्व ले लिया, इन तीन दिनों तक पृथ्वी में मेरा ही राज रहें तथा इन तीन दिनों में दीपोत्सव के साथ उत्सव मनाने वालों के घर आप की पत्नी लक्ष्मी जी चिर वास करें। उस समय से अश्विन त्रयोदशी से तीन दिनों तक दीपोत्सव मनाया जाता हैं, जो दीपावली पर्व के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा धन, सुख, समृद्धि की अधिष्ठात्री देवी श्री लक्ष्मी सहित शक्ति को समर्पित हैं।

लक्ष्मी या कमला पति श्री विष्णु, जगत पालन कर्ता 'श्री हरि'।

लक्ष्मी जी तथा भगवान विष्णु, शेष नाग शय्या पर शयन करते हुए

चराचर जगत के पालनकर्ता 'श्री विष्णु, श्री हरि, श्री नारायण' इत्यादि नामों से विख्यात हैं तथा कमला या लक्ष्मी देवी के पति-स्वामी हैं। आदि शक्ति सात्विक स्वरूप में साक्षात् श्री हरि विष्णु में विद्यमान महामाया हैं, सर्वदा क्षीर सागर के मध्य शेष नाग की शय्या पर शयन करने वाले श्री हरी विष्णु से जो तामसी तथा संहारक शक्ति उत्पन्न होती हैं, वे योगमाया नाम से विख्यात हैं तथा उनकी शक्ति हैं। इसी शक्ति से संपन्न हो वे दुराचारियों-अतातियों का वध कर तीनों लोक के संरक्षण कार्य में संलग्न होते हैं।
विष्णु शब्द का अर्थ! उपस्थित होने से हैं, जो सर्वदा सभी तत्वों तथा स्थानों में व्याप्त हैं वही विष्णु हैं; परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म के अंतर्गत, ब्रह्माण्ड के प्रत्येक तत्व या कण-कण में परमेश्वर या ब्रह्म तत्त्व की अनुभूति की जाती हैं। भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ पक्षी हैं, जगत या तीनों लोकों के पालन का कार्य-भार इन्हीं पर हैं। देवताओं तथा चराचर सृष्टि की रक्षा हेतु, श्री विष्णु ने २३ अवतार धारण किये; शास्त्रों के अनुसार श्री विष्णु कुल २४ अवतार धारण करेंगे, जिनमें अंतिम २४वा तथा अंतिम कल-युग के अंत में "कल्कि" नाम से विख्यात होगा।

भगवान विष्णु सभी के स्वामी, सबके संरक्षण करने वाले जगत के गुरु हैं, सर्वोत्तम आत्मा हैं, पुरुषोत्तम (सम्पूर्ण पुरुषों में उत्तम; परिणामस्वरूप देवी लक्ष्मी उन्हीं के आधीन हैं) हैं, परम आनंद-स्वरूप हैं, सच्चिदानंद मय विग्रह हैं, सबके पालनहार रजोगुण रहित हैं, सर्वत्र विचरने में समर्थ एवं परम पवित्र हैं।

भगवान विष्णु के २४ अवतारों का वर्णन।

१. सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत कुमार अवतार : ब्रह्मा जी के घोर तप से प्रसन्न हो उनके चार पुत्रों के रूप में अवतरित होकर, प्रलय काल में लुप्त हुए ज्ञान को पुनः ऋषियों को प्रदान किया।
२. वराह अवतार : जल प्रलय के समय पृथ्वी को आपने दांतों में धारण कर अडिग रखना तथा हिरण्याक्ष नामक दैत्य का संहार किया।
३. नारद अवतार : ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, कठिन तप कर देवताओं के ऋषि देवर्षि पद प्राप्त करने वाले, लोक कल्याण के हेतु सर्वदा प्रयत्न शील।
४. नर-नारायण अवतार : तपस्वी स्वरूप में धर्म की रक्षा हेतु।
५. कपिल अवतार : सांख्य योग का उपदेश दिया।
४. दत्तात्रेय अवतार : योग का उपदेश।
७. सुयज्ञ अवतार : देवताओं के अनेक संकट दूर किये, कष्ट हरे तथा हरि नाम से विख्यात हुए।
८. ऋषभदेव अवतार : सर्व त्याग कर अवधूत चर्या का आश्रय लेने वाले तथा जैन धर्म के प्रवर्तक।
९. पृथु अवतार : आदि तथा प्रथम राजा पृथु, राजा वेन की भुजाओं के मंथन से अवतरित तथा धर्मानुसार राज्य का पालन।
१०. मत्स्य अवतार : सृष्टि को प्रलय से बचाने हेतु या प्रलय कल में सत्यव्रत के नाव की रक्षा।
११. कूर्म अवतार :समुद्र मंथन के समान, कूर्म या कच्छप अवतार धारण कर मंदराचल पर्वत को आपनी पीठ पर धारण कर अडिग रखना।
१२. धन्वन्तरि अवतार :समुद्र मंथन में अमृत कलश के साथ प्रकट हुए तथा समस्त औषधियों के स्वामी।
१३. मोहिनी अवतार : असुरों से अमृत कलश प्राप्त कर देवताओं को अमृत पान करने वाली देवी, साक्षात महामाया।
१४. नृसिंह अवतार : हिरण्यकशिपु दैत्यराज का वध कर आपने भक्त प्रह्लाद को बचाना, धर्म की रक्षा।
१५. वामन अवतार : महाराजा बलि से तीनों लोकों को वापस लेकर देवताओं को पुनः प्रदान करना।
१६. हयग्रीव अवतार : मधु तथा कैटभ का वध कर, वेदों को पुनः प्राप्त कर ब्रह्मा जी को देना।
१७. श्री-हरि या ग्राह अवतार : गजेंद्र की स्तुति सुनकर, मगरमच्छ से गजेन्द्र की रक्षा करना।
१८. परशुराम अवतार : सहस्रबाहु सहित समस्त क्षत्रियों का वध।
१९. महर्षि वेदव्यास अवतार : वेदों के विभाग तथा पुननिर्माण, महाभारत की रचना।
२०. हंस अवतार : मोक्ष प्राप्ति हेतु, सनकादि मुनियों के संदेह का निवारण किया।
२१. श्रीराम अवतार : रावण के संहार सहित, अन्य राक्षसों का वध तथा धर्म-रज की स्थापना।
२२. श्रीकृष्ण अवतार : द्वापर युग के समस्त अधर्मिओं का नाश।
२३. बुद्ध अवतार : दैत्यों की शक्ति बहुत अधिक बढ़ने पर उनकी शक्तिओं को क्षीण करने हेतु।
२४. कल्कि अवतार : अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करना तथा सत्य युग में पुनः जाना।

भगवान विष्णु के ध्यान मंत्र के अनुसार, उनका स्वरुप-वर्णन।

अतिशय शांत प्रकृति वाले एवं शेषनाग की शय्या पर शयन करने वाले, नाभि से पद्म या कमल प्रादुर्भूत करने वाले देवतओं के ईश्वर भगवान विष्णु हैं; जो सम्पूर्ण जगत के आधार, गगन या आकाश के अनुसार सर्वव्यापी, मेघ वर्ण के समान शारीरिक वर्ण तथा पूर्ण सुन्दर अंग युक्त हैं। जिन्हें योगी ध्यान या योग साधना द्वारा प्राप्त करते हैं या आपने अन्तः करण में दर्शन करते हैं, जन्म तथा मृत्यु रूपी पाश का नाश करने वाले तथा सम्पूर्ण जगत के स्वामी लक्ष्मी-पति, कमल के समान नेत्रों वाले श्री हरी विष्णु नाम से विख्यात हैं। इनके अन्य अनेक विख्यात नाम हैं जैसे यज्ञपुरुष, जनार्दान, पुरुषोत्तम, हृषिकेश, अच्युत, वासुदेव इत्यादि हैं।
सामान्यतः श्री विष्णु या श्री नारायण चार भुजाओं से युक्त हैं तथा चतुर्भुज स्वरूप में विख्यात हैं एवं वे आपनी चार भुजाओ में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण करते हैं। इनके हथों में शुशोभित शंख, ज्ञान का प्रतिक हैं, जो सृष्टि सञ्चालन का मूल तत्व हैं; चक्र का अभिप्राय माया से हैं, गदा परमेश्वर की व्यापक शक्ति से सम्बद्ध हैं तथा सृष्टि का कारण हैं और चराचर सृष्टि की उत्पत्ति पद्म से ही हैं। वैकुंठ धाम में निवास करने वाले तथा वहां के स्वामी होने के परिणामस्वरूप इन्हें वैकुंठ पति भी कहा जाता हैं; वैष्णव संप्रदाय इन्हीं के सिद्धांतों पर आधारित हैं, जिसके अंतर्गत सत्व गुण प्रधान एवं आधार हैं। सत्य के पथ का अनुसरण, अहिंसा, पवित्रता, स्वच्छता, सात्विक आचार विचार का पालन, वैष्णव सिद्धांत या संप्रदाय का मुख्य उद्देश्य हैं। चराचर जगत के पालन कर्ता के पद पर श्री हरि विष्णु आसीन हैं तथा सत्व गुण सम्पन्न हैं। वैकुंठ तथा गो-लोक के स्वामी श्री विष्णु ही हैं, समस्त लोकों में सर्वोच्च स्थान इन्हीं के लोक को माना जाता हैं। इन्हें दुःख या संकट हर्ता भी कहाँ जाता हैं, परिणामस्वरूप 'हरि' नाम से श्री विष्णु तीनों लोकों में विख्यात हैं। महाभारत में गीता का उपदेश इन्हीं श्री हरि के सोलह कला अवतार श्री कृष्ण ने आपने शिष्य-मित्र अर्जुन को दिया था, जिसका मुख्य उद्देश दुविधा में पड़े हुए मनुष्यों का मार्गदर्शन करना हैं। अर्जुन, गीता उपदेश के पश्चात् ही युद्ध हेतु पुनः तैयार हुआ तथा गीता संवाद के अंतर्गत श्री कृष्ण ने आपना विश्वरूप दिखाया, जिसके अंतर्गत श्री कृष्ण के शारीर में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाया हुआ था।

कल्प के आदि में श्री हरि विष्णु योग-निद्रा मग्न स्थित रहने पर, इनके नाभि से एक पद्म या कमल प्रादुर्भूत हुआ तथा उस कमल के आसन पर लोक-पितामह ब्रह्मा जी विराजमान थें। श्री हरि विष्णु के कान के मैल से दो दुर्धर्ष दैत्य प्रकट हुए, जो लोक-पितामह ब्रह्मा जी को मार डालने हेतु उद्धत हुए, डरे हुए पितामह ने जब देखा की श्री हरि विष्णु योग-निद्रा मग्न हैं, उन्होंने योगनिद्रा योगमाया की स्तुति-वंदना की, जिसके फलस्वरूप भगवान विष्णु ने योग-निद्रा त्याग किया तथा मधु तथा कैटभ के संग पाँच सहस्त्र वर्षों तक युद्ध किया तथा अंततः योगमाया-महामाया की सहायता प्राप्त कर दोनों दैत्य भ्राताओं का वध किया। योगमाया-महामाया साक्षात जगत जननी आदि शक्ति प्रकृति हैं, जो भगवान विष्णु की आतंरिक शक्ति हैं, संहारक शक्ति हैं। इन्हीं की आतंरिक शक्ति से युक्त हो जनार्दान विष्णु जगत पालन के कार्य का निर्वाह करते हैं।

प्राण रूपी भगवान विष्णु।

समस्त शक्तिओं के आश्रय, सम्पूर्ण गुणों की निधि तथा इस चराचर जगत के ईश्वर! जगदीश्वर श्री हरि विष्णु हैं, जो निर्गुण, निष्कल तथा अनंत हैं। सत-चित-आनंद यही उनका स्वरूप तथा चराचर जगत हैं, आपने अधीश्वर तथा आश्रय के साथ नियत रूप से जिसके वश में स्थित हैं, जिससे इसकी उत्पत्ति, पालन, संहार, पुनरावृत्ति तथा नियमन आदि होते हैं, प्रकाश बंधन, मोक्ष तथा जीविका इन सब की प्रवृति जहाँ से होती हैं! वे ही ब्रह्म नाम से विख्यात श्री विष्णु हैं, सर्वव्यापी परमेश्वर हैं। ज्ञानी तथा मनीषियों ने उन्हें ही साक्षात् पर-ब्रह्म कहा हैं, वेद, शास्त्र, स्मृति, पुराण, पंच-रात्र सभी श्री हरि विष्णु के ही स्वरूप में विद्यमान हैं। भगवान विष्णु पूर्ण काम हैं, उनमें विषमता तथा निर्दयता आदि दोष नहीं हैं। सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति प्राण से होती हैं, चराचर जगत प्राणात्मक हैं, प्राण ही स्वरूप हैं तथा प्राण सूत्र में पिरोया हुआ हैं; जीवों में ब्रह्म रूप धारी प्राण श्रेष्ठ हैं, समस्त जीवों के आधारभूत प्राण, वास्तविक रूप में श्री विष्णु ही हैं। प्राण हीन जगत का अस्तित्व तथा स्थिति संभव नहीं हैं, कारणवश प्राण जीवों में श्रेष्ठ, सबका अंतरात्मा तथा सर्वाधिक बलशाली हैं। प्राण सर्व देवात्मक हैं तथा सब देवता प्रण मय हैं, वह भगवान वासुदेव में सर्वदा स्थित हैं, महा विष्णु का बल हैं।

देवी महा-लक्ष्मी, भगवन विष्णु के साथ

देवी महालक्ष्मी

भगवन विष्णु, लक्ष्मी जी के साथ

भगवन विष्णु, लक्ष्मी जी के साथ