सृष्टि-कर्ता ब्रह्मा

समस्त जीवों के पितामह, अपने ज्ञान से ब्रह्माण्ड के प्रत्येक स्थूल तथा परा जीव तथा वस्तुओं का निर्माण करने वाले 'पितामह ब्रह्मा जी'। संसार या ब्रह्माण्ड के निर्माणकर्ता, तमो गुण सम्पन्न, सृजन कर्ता।

पालन-कर्ता विष्णु

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के पालन-हार, पालन-पोषण के कर्त्तव्य या दाइत्व का निर्वाह करने वाले, सत्व गुण सम्पन्न 'श्री हरि विष्णु'। सृजन के पश्चात् तीनों लोकों के प्रत्येक तत्व तथा जीव का पालन-पोषण करने वाले।

संहार-कर्ता शिव

तीनों लोकों में विघटन या विध्वंस के प्राकृतिक लय के अधिष्ठाता, तमो गुण सम्पन्न 'शिव'। वह शक्ति जो ब्रह्माण्ड के प्रत्येक जीवित तथा निर्जीव तत्व के विघटन के कार्यभार का निर्वाह करती हैं।

हिरण्यकशिपु संहारकर्ता, 'नरसिंह या नृसिंह अवतार'

भगवान विष्णु अपने परम-अनन्य भक्त प्रह्लाद को बचाने, तथा मद के अहंकार में चूर स्वयं को सर्वेश्वर ईश्वर मानने वाले हिरण्य-कश्यप के वध हेतु, आधे सिंह तथा आधे मानव देह धारण किया और नरसिंह नाम से विख्यात हुए।

हिरण्यकशिपु की कठोर तपस्या तथा ब्रह्मा जी द्वारा दिया गया वरदान।

दैत्य माता दिति के पुत्र महाबली दैत्यराज हिरण्यकशिपु, कृत युग में दैत्यों के अधिपति थे, उसने दस हजार वर्ष तक महान घोर तप किया, व्रत को धारण कर वो जल में निवास करने लगा। उसके इस कठोर तप से प्रसन्न हो कर पितामह ब्रह्मा जी, उसके सन्मुख प्रकट हुए, उनके साथ आदित्य, वसुगण, साध्य, मरुद्गन, समस्त देवता, रूद्र, यक्ष, रक्ष, पन्नग, दिशायें, विदिशायें, नदियाँ, सागर, नक्षत्र, मुहूर्त्त, खेचर, सप्त ऋषि गण तथा ग्रह सब थे। वह पहुँच कर ब्रह्मा जी ने दैत्यराज से कहा; में आप के तप से बहुत प्रसन्न हूँ, आपका कल्याण हो, अप जो वर चाहे मांग ले। हिरण्यकशिपु दैत्य ने ब्रह्मा जी से कहा; यदि आप मेरे ऊपर पूर्ण प्रसन्न हैं तो वर दे की, देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, उरग, राक्षस, पिशाच, पशु तथा मनुष्य कोई मेरा हनन न कर सकें। ऋषिगण मुझे शाप से अभिशप्त न कर पावें, मेरी मृत्यु किसी अस्त्र, शस्त्र, गिरी, पादप, आदि से न होवें, शुष्क स्थल अथवा भूमि या आद्र भाग अथवा जल में, न दिन में न रात में मेरी मृत्यु न हो, न ही। मैं ही सूर्य, सोम-वायु तथा हुताशन, सलिल अंतरिक्ष, नक्षत्र, दशों दिशाएँ मैं ही बन जाऊँ अर्थात इन सबकी शक्ति मेरे अन्दर निहित हो जाएँ। मैं, क्रोध, काम, वरुण, इंद्र, यम, धनद, धन का स्वामी, किम्पुरुषों का अधिपति यक्ष हो जाऊँ अर्थात इन सबके अधिकार मेरे पास हो तथा ये सभी शक्तिहीन हो जाएँ। ब्रह्मा जी ने, हिरण्यकशिपु को उसके अभिलाषित, सभी दिव्य वरदान प्रदान किये तथा वहा से अपने लोक को वापस चले आये। वर के मद में चूर, हिरण्य-कश्यप स्वयं को भगवान्-परमेश्वर मानने लगा था, उसने सभी देवताओं से अपने स्वाभाविक कार्य छिन कर, स्वयं सभी कार्य करने लगा था। समस्त देवता उसके डर के मारे अपने अपने लोकों को छोड़ कर भाग गए थे। दैत्यराज केवल स्वयं की पूजा आराधना होते हुए देखना चाहता था तथा उसकी अवज्ञा करने वालों को वो मार दिया करता था। भगवान् विष्णु को वो अपना परम शत्रु समझता था।

हिरण्यकशिपु की कठोर तपस्या, ब्रह्मा जी द्वारा दिया गया वरदान, त्रिभुवन के समस्त गणों की चिंता तथा भगवान् विष्णु के पास जा सहायता हेतु प्रार्थना करना।

तदनंतर, देव, गन्धर्व, समस्त ऋषि गण इत्यादि जो ब्रह्मा जी के संग थे, ब्रह्मा जी से कहने लगे, आप का इस प्रकार का वर प्रदान करना हम सब के अंत का कारण होगा। निश्चित ही हिरण्यकशिपु हमारा वध कर डालेगा, आप शीघ्र ही इसके वध का कोई उपाय करे। इस पर ब्रह्मा जी ने सभी से कहाँ, की दैत्यराज ने बहुत कठिन तपस्या की हैं तथा उसे इस का फल अवश्य ही प्राप्त होगा तथा तप के फल के अंत हो जाने पर भगवान् विष्णु दैत्यराज का वध करेंगे। इस प्रकार समझाने पर समस्त गण हर्षित हो अपने अपने लोकों को चेल गए। दैत्यराज हिरण्यकशिपु, वर प्राप्त कर अत्यंत दर्पित हो गया, धर्म परायण मुनियों, सत्पुरुषों को वो धर्षित करने लगा। देवताओं को परास्त कर, दैत्यराज ने त्रिलोक को अपने आधीन कर लिया तथा स्वयं स्वर्ग में निवास करने लगा, उसने दैत्यों को यज्ञिक बना दिया ओर अयज्ञिकों को देवता बना दिया। दैत्यराज के अत्याचार से प्रतारित हो समस्त देवता, यक्ष, सिद्ध, द्विज, महर्षि इत्यादि भगवान् विष्णु की शरणागति में पहुँचें तथा प्रार्थना करने लगे; आप हमारी रक्षा करें, इस दैत्य हिरण्यकशिपु का वध करें।
भगवान् विष्णु ने कहा ! हे देवताओं ! भय का आप सब पूर्ण रूप से त्याग कर दें, मैं दैत्यराज को उसके गणों सहित मार दूँगा, तदनंतर भगवान् विष्णु ने दैत्य हिरण्यकशिपु के वध का अपने मन में संकल्प लिया। भगवान् विष्णु ने शीघ्र ही ओंकार को ग्रहण किया तथा दैत्यराज के स्थान को गए। नर का अर्ध देह तथा सिंह का अर्ध देह धारण कर नरसिंह वपु से युक्त होकर, पाणि के द्वारा पाणि का स्पर्श करने हुए हिरण्यकशिपु की सभा में पहुँचें। वहा पहुँचकर उन्होंने अत्यंत विस्तृत, दिव्य, रम्य, मनोरम, समस्त कर्मों से समन्वित और शुभ्र दैत्यराज की सभा का अवलोकन किया। भगवान् नरसिंह आधे मानव एवं आधे सिंह देह के रूप में अवतरित हुए थे, जिनका शरीर तो मानव रूपी था, परन्तु मस्तक सिंह की तरह थे साथ ही इनके पंजे भी सिंह की तरह ही थे; तभी इन्हें नर+सिंह के नाम से जाना जाता हैं।

हिरण्यकशिपु की दिव्य, मनोरम तथा सुख-प्रदायक सभा, भगवान् नरसिंह अवतार के स्वरुप का वर्णन।

सौ योजन विस्तार वाली वो सभा शोक तथा क्लम से रहित थीं, निष्प्रकंप-शिव-सुखप्रद-वेश्म और हर्म्यो से संयुक्त रम्य एवं तेज से जाज्वल्यमान थीं। सभा के मध्य में सलिल रहता तथा ओर इसकी रचना विश्वकर्मा के द्वारा की गई थीं, परम दिव्य फल-पुष्प प्रदान करने वाले और रत्नों से परिपूर्ण वृक्षों से समन्वित थीं। नील, पित, सित, श्याम, कृष्ण, लोहित अवतारों से युक्त मंजरी सतधारी गुल्मों से संयुक्त वह सभा थीं, जिसकी अवर्णनीत शोभा थीं, प्लवन करती हुई दिखलाई देती थीं। नाना प्रकार के सुखों से परिपूर्ण, दुखों से रहित, न अधिक शीत युक्त और न ही अधिक गर्म वह स्थान था, वह पहुचने वाले को भूख प्यास नहीं लगती थीं। नाना प्रकार के आकृति वाले, विचित्र तथा भास्कर स्तंभों से उपकृत हिरण्यकशिपु की सभा थीं। उस सभा में सम्पूर्ण कामनाएं चाहे वे दिव्य हों या मानुषी हों प्रचुर मात्रा में विद्यमान रहन करती थीं, रस युक्त अंत से शून्य प्रभूत भक्ष्य भोज पदार्थ, उस सभा में विद्यमान थे। सुगंधित गंध वाले वृक्ष बारहों महीने सर्वदा ही पुष्प तथा फल प्रदान करने वाले थे, उष्ण काल में शीत तथा शीत काल में उष्ण जल रहन करते थे। दैत्येन्द्र हिरण्यकशिपु विचित्र आवरण तथा अलंकारों से आभूषित था।
दैत्यराज का सिंहासन सूर्य के समान परम दिव्य तथा दिव्य आस्तरण से संस्तृत था, दिव्य गंध वहन करने वाली वायु प्रवाहित हो रही थीं, वहाँ पर जाज्वल्यमान कुण्डलों वाला हिरण्यकशिपु दैत्यराज स्थित था। दैत्यराज की परिचर्या बहुत सी अप्सराएँ कर रही थीं, श्रेष्ठ गन्धर्व दिव्य गीतों का गान कर रहे थे, सहस्त्रों अप्सराएँ गीत पर नृत्य करते हुए दैत्यराज के सभा में उपस्थित थे। दिति के समस्त पुत्र, असुर गण उस दैत्यराज की उपासना कर रहे थे, शूर वीर तथा मृत्यु के भय से रहित थे। उस सभा में उपस्थित सभी दैत्य, पर्वत के सामन विशाल थे, सिंह के सामन महान आत्मा वाले, नाना प्रकार के अलंकारों से आभूषित थे।
विमल हारों से विभूषित अंगों वाले तथा सूर्य के तुल्य महती प्रभा से युक्त तथा सैकड़ों, सहस्त्रों दैत्यों के द्वारा सेवित, दिति पुत्र हिरण्यकश्यप को मृगाधिप नरसिंह प्रभु ने देखा।
जिस समय नरसिंह भगवान् उस सभा में पहुँचें थे, उस समय हिरण्यकश्यप पुत्र प्रह्लाद ने महान आत्मा वाले नरसिंह रूपी देह धारण किये हुए, कालचक्र के सामन प्रभु को आरम्भ में ही देख लिया। उस समय सभा में उपस्थित समस्त दैत्य तथा दैत्य-राज हिरण्यकश्यप ने भी सुवर्ण के पर्वत की आभा वाले उन नरसिंह प्रभु को देख विस्मित हुए। नरसिंह भगवान् के देह में समस्त देवगण, सागर, नदियाँ, हिमवान, पारियात्र, नक्षत्र, वसुगण, आदित्य, ग्रह, चन्द्रमा इत्यादि विद्यमान थे, उन विशाल नरसिंह प्रभु को देख कर प्रह्लाद के मन में संशय हुआ कि, अवश्य ही दैत्यों का अंत निकट हैं। मरुद्गण, देव, गन्धर्व, ऋषि वृन्द, नाग, यक्ष, पिशाच, राक्षस, ब्रह्मा, पशुपति, सब नरसिंह के ललाट प्रदेश में भ्रमण कर रहे थे। सम्पूर्ण स्थावर तथा जन्घम जीव इन्हीं के शरीर में दिख रहे थें, समस्त साश्वत धर्म, सम्पूर्ण महात्मा प्रजापति मनु, सभी ग्रह योग, महीरुद्र नरसिंह भगवान् में दृष्टिगत हो रहे थे। उत्पात का काल, घृति, मति, रति, सत्य, तप, दम, सनत्कुमार, विश्वदेव, क्रोध, काम, हर्ष, धर्म, मोह, समस्त पितृ गण, इनके विशाल एवं परम दिव्य शरीर में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई दे रहे थे।

हिरण्यकशिपु की सेना का नरसिंह भगवान् के साथ युद्ध तथा नाना प्रकार के विनाशक सूचनाओं का अवतरित होना।

इस प्रकार का वचन सुन कर, दैत्यराज ने समस्त दानवों तथा अपने गणों को कहा; आप सब मिल कर इस अत्यंत अद्भुत को पकड़ लो तथा यदि कुछ भी संशय हो तो इसे मार डालो। तदनंतर, सभी वीर दानव गण,उन नरसिंह प्रभु के पीछे पड़ गये, उस समय महान बलशाली नरसिंह प्रभु ने एक सिंह नाद कर, दैत्यराज के सभा के समस्त गणों को भगा दिया। सभा के समस्त बलशाली दैत्य गणों को भज्यमान करते हुए देख, हिरण्यकशिपु ने स्वयं ही रोष वश हो, उन नरसिंह भगवान् के ऊपर अस्त्रों का प्रयोग प्रारंभ कर दिया। घोर अस्त्र महान दारुण दंड, विष्णुचक्र, अत्यंत उग्र पितामह का अस्त्र इत्यादि जो समस्त त्रिलोक दाह करने में सक्षम थे, दैत्यराज ने नरसिंह भगवान् पर प्रहार किया, उग्र शूल, कंकाल, मोहन, शोषण, संतापन, विलापन नाम वाले अस्त्रों से दैत्यराज ने नरसिंह प्रभु के शरीर पर प्रहार पर प्रहार किये।
वायव्य, मथन, कापाल, कैंकर, अप्रतिहता शक्ति, कौंच अस्त्र, ब्रह्म शिरस्त्र, सोमास्त्र, शिशिर, कम्पन, सतत्र, त्वाष्ट्र, सुभैरव, काल मुदगर, अक्षोभ्य, महाबल, संवर्त्तन, मादन, परममायाधर, असिरत्न, नंदक, प्रस्वापन, उत्तम वारुणास्त्र और पाशुपत अस्त्र, हग्रशिर अस्त्र, ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र, ऐन्द्र, अद्भुत सर्प अस्त, पैशाचास्त्र अजित, शोषद, शामन, महाबल, भावन, प्रस्थापन, विकम्पन इन अस्त्रों को दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने भगवान् नरसिंह के शरीर पर छोड़ दिया था, परन्तु वे सब अस्त्र उनके शरीर का स्पर्श करते ही नष्ट भ्रष्ट होकर भस्मसात् हो गए। उस महान भीषण युद्ध में बहुत से दानवों ने नरसिंह भगवान् से युद्ध किया था, जिनके नाम हैं खर, खरमुख, मकराशी, ईहामृगमुख, वराह मुख, बाल सूर्यमुख, धूमकेतु, मुख, हंस, कुक्कुट मुख इत्यादि, सभी भीषण मुखाकृतियों वाले, बाल के घमंड से परिपूर्ण दानव थे। नरसिंह भगवान् ने गर्जना करके तथा बल पराक्रम दिखाकर उस दानवेन्द्र की सेना को तिनको के अग्रभाग की वायु की तरह अपसारित कर दिया था। दानव राज की सेना ने दिव्य चक्रों, विद्युत प्रभा से समन्वित शक्ति, विशाल शिला खण्डों की वर्षा, अग्नि तथा वायु से समीरित माया से नरसिंह भगवान् पर प्रहार किया।
इसके अंततर जब सभी दैत्यों की मायाऐं हत हो गई, तब वे सभी दितिके पुत्र महादैत्य गण विवर्ण होकर अपने राजा हिरण्यकशिपु के पास गए। इस पर मानों दैत्यराज अपने ही तेज से सबको प्रदग्ध कर रहा था, वह क्रोध से प्रज्वलित हो गया था। दैत्यराज के इस प्रकार क्रोध युक्त होने जाने पर सम्पूर्ण जगत अन्धकार से लिप्त हो गया, उत्पातों के भय को सूचित करने वाले आवह, प्रवह, विवह, उदवाह, परवाह, संवह तथा परिवह ये सात प्रकार के मरुत या वायु आकाश में संचरण करने लगी। वे ग्रह जो त्रिलोक का अंत होने के काल में प्रादुर्भूत हुआ करते हैं वे सभी ग्रह आकाश में विचरण करते हुए देखे जा रहे थे। सूर्य दिन में विवर्णता को प्राप्त हो गए थे तथा सर्वत्र कृष्ण कबंध की भातीं दिखाई दे रहा था, धूम्र के समान महान घोर सत सूर्य समुत्थित हो गए थे तथा उसके वाम तथा दक्षिण भाग में क्रमशः शुक्र तथा बृहस्पति ग्रह स्थित हो गए थे। राहु के द्वारा चाँद निगृहीत हो रहा था तथा उल्काओ से उसका अभिहति किया जा रहन था, प्रज्वलित उल्काएं आकाश में सुख पूर्वक विचरण कर रही थीं।
अकाल में ही सम्पूर्ण वृक्ष पुष्प तथा फल प्रदान करने वाले हो गए थे, जो महान उत्पात के सूचक थे, लतायें भी फलों से युक्त हो गई थीं। समस्त देवताओं की प्रतिमाएं, धूमित तथा प्रज्वलित हो गई थीं, ये महान भय के योग को प्रकट कर रही थीं। समस्त नदियों का जाल कलुषित हो प्रतिकूल हो कर बहने लगी थीं, समस्त दिशाएं लाल वर्ण की प्रकाशित हो गई थीं, वायु के वेग से समस्त वनस्पतियाँ नीचे की ओर झुक गई थीं। घोर निदर्शन वाले नाना प्रकार के उत्पात इन असुरों के विनाश तथा देवताओं के विजय प्राप्त होने के लिये प्रतीत हो रहें थे। नागों में प्रमुख वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, धनञ्जय, एलामुख, कालिक, महापद्म तथा सहस्त्रों शीर्षों वाले हेमतालध्वज, शेष, अनंत सभी प्रकंपित हो जल के भीतर स्थिर रहने वाले दीप्त तथा पृथ्वी धारण किये हुए थे। इस कारण दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने बड़ा ही क्रोध किया, समस्त नद और नदियां भी प्रकंपित हो गई थीं, भागीरथी, सरयू, कौशिकी, यमुना, कावेरी, कृष्णा-वेणी, सुवेणा, महाभागा, गोदावरी, सिन्धु, तोया, नर्मदा, वेत्रवती, गोमती, पूर्व सरस्वती, माहि, कालमही, तमसा इत्यादि नदियाँ प्रकम्पित हो गई थीं। जम्बू द्वीप पूर्ण रूप से कंपायमान था।

नृसिंह भगवान्, दैत्य पति हिरण्यकशिपु के शूर-वीर गणों का वध करते हुए।
नृसिंह भगवान्, दैत्य पति हिरण्यकशिपु के शूर-वीर गणों का वध करते हुए
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नरसिंह प्रभु, खम्भे से निकल कर हिरण्यकशिपु का वध करते हुए।
नरसिंह प्रभु, खम्भे से निकल कर हिरण्यकशिपु का वध करते हुए
भगवान् विष्णु के अवतार नरसिंह द्वारा प्रह्लाद को आशिष् प्रदान करना तथा समस्त देवताओं का स्तवन।
भगवान् विष्णु के अवतार नरसिंह द्वारा प्रह्लाद को आशिष् प्रदान करना तथा समस्त देवताओं का स्तवन

भगवान श्री हरि विष्णु के प्रति अपार भक्ति देख हिरण्य-कश्यप का, प्रह्लाद को नाना प्रकार से मरने की चेष्टा करना।

इस प्रकार पुरोहितों के कहने पर, दैत्यराज ने प्रह्लाद को गुरूजी के साथ आश्रम भेज दिया, प्रह्लाद गुरूजी द्वारा पढ़ाने के पश्चात्, अपने अन्य सहपाठी दानव कुमारों को सत ज्ञान उपदेश देने लगे। आश्रम के गुरूजी ने दैत्यराज हिरण्य-कश्यप को प्रह्लाद के उपदेश देने की बात कह सुनाई गई, जिस पर दैत्यराज को बड़ा ही क्रोध हुआ। हिरण्य-कश्यप ने हलाहल विष से प्रह्लाद को मरने की योजना बनाई तथा यह कार्य रसोइयों को दिया गया। रसोइयों के विष देने पर प्रह्लाद ने उस विष को खाकर, उसे बिना किसी विकार के पचा लिया, इस पर रसोइयों ने दैत्यराज को प्रह्लाद के पुनः जीवित बच जाने का समाचार सुनाया।

दैत्यराज की बहन होलिका द्वारा प्रह्लाद को गोद में ले अग्नि प्रज्वलित करना।

दैत्यराज हिरण्यकशिपु की अपनी बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। बार-बार प्रह्लाद को मारने में असफल होने से निराश हो दैत्यराज ने अपनी बहन होलिका की सहायता ली, होलिका अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्वलित अग्नि में चली गई। परन्तु, प्रज्वलित अग्नि भी प्रह्लाद को नहीं जला कर मार सकी, इस के विपरीत वरदान प्राप्त करने वाली दैत्यराज की बहन जल कर भस्म हो गई।
पुरोहितों ने प्रह्लाद को पुनः डराया तथा तथा पिता धर्म से अवगत करवाया, पुरोहितों ने कहा ! तुम ब्रह्मा जी के कुल में उत्पन्न हुए हो तथा महाबली हिरण्य-कश्यप के पुत्र हो। तुम्हें अन्य देवता, अनंत तथा और किसी से क्या प्रयोजन, तुम्हारे पिता सम्पूर्ण लोकों के आश्रय दाता हैं, तुम शत्रु की स्तुति करना छोड़ दो, तुम्हारे पिता ही तुम्हारे लिये परम गुरु हैं। अगर तू हमारे कहने से इस आग्रह को नहीं छोड़ेगा तो हम तुझे नष्ट करने के लिए कृत्या उत्पन्न करेंगे। प्रह्लाद ने कहा ! कौन जीव किससे मारा जाता हैं ओर कौन किससे रक्षित होता हैं? शुभ तथा अशुभ आचरणों द्वारा आत्मा स्वयं ही अपनी रक्षा तथा नाश करता हैं, यह सुन कर पुरोहितों ने क्रोधित हो कर घोर अग्नि-शिखा के सामन देह युक्त कृत्या को उत्पन्न किया। गुरुओं द्वारा उत्पन्न कृत्या ने प्रह्लाद पर वक्ष स्थल पर त्रिशूल से प्रहार किया, किन्तु प्रह्लाद के देह को छुते ही त्रिशूल के टुकड़े टुकड़े हो गए। प्रह्लाद के ह्रदय में स्वयं श्री हरि विष्णु वास करते थे तथा वे निष्पाप थे, यह देख कृत्या ने प्रह्लाद के गुरुओं के ऊपर वार किया तथा स्वयं भी नष्ट हो गई। अपने गुरुओं को कृत्या द्वारा जलते देख, प्रह्लाद ने गुरु रक्षा हेतु भगवान् श्री हरि से प्रार्थना की तथा स्पर्श करने पर गुरु पुरोहित स्वस्थ हो कर उठ बैठे। ऐसा कह कर उन पुरोहितों ने सारा समाचार दैत्यराज को कह सुनाया।
दैत्यराज ने प्रह्लाद को बुला कर, कृत्या को विफल करने के प्रभाव का कारण पूछा, पिता के इस प्रकार पूछने पर प्रह्लाद पिता के चरणों में पद कर बोला ! मेरा यह प्रभाव न तो मंत्रादिजनित हैं और न ही स्वाभाविक, जिसके ह्रदय में श्री हरि अच्युत विष्णु का वास हैं, उनके लिये सामान्य हैं। प्रह्लाद के ये कहने पर, दैत्यराज हिरण्य-कश्यप क्रोधान्ध हो गया तथा अपने गणों से कहा; यह बड़ा ही दुरात्मा हैं, इसे सौ योजन महल के ऊपर से गिरा दो। दैत्यों ने प्रह्लाद को महल से गिरा दिया, प्रह्लाद श्री हरि का स्मरण करते हुए नीचे गिर गए, परन्तु उन्हें कुछ भी नहीं हुआ, वे जीवित रहें। यह देख दैत्यराज ने परम मायावी शंबरासुर से कहा ! यह निश्चित ही कोई ऐसे माया जनता हैं, जिससे ये प्रत्येक बार बच जाता हैं, इसे अपनी माया से मर डालिये। शंबरासुर ने प्रह्लाद को मरने के लिए अनेक प्रकार की मायाएं रचीं, परन्तु प्रह्लाद असुर के माया पति असुर के प्रति भी सर्वथा द्वेष हीन रहकर, श्री मधुसूदन भगवान् का स्मरण करते रहें। भगवान् की आज्ञा से प्रह्लाद की रक्षा हेतु, वहा ज्वाला-मालाओं से युक्त सुदर्शन चक्र प्रकट हुआ तथा शंबरासुर की समस्त माया को एक एक कर नष्ट कर दिया। तदनंतर दैत्य पति हिरण्य-कश्यप ने सबको सुखा डालने वाली वायु से प्रह्लाद को सुखा कर मार देने के लिये कहा, परन्तु प्रह्लाद के ह्रदय में स्थित श्री हरि विष्णु ने क्रुद्ध हो कर उस वायु को पी लिया, जिसे वायु क्षीण हो गया। तत्पश्चात्, प्रह्लाद अपने गुरु के आश्रम चले गए, गुरूजी ने उन्हें नित्य प्रति नीति शास्त्र में निपुण और विनय सम्पन्न देखा तो, गुरूजी दैत्यराज के पास गए और कहने लगे ! अब मैंने तुम्हारे पुत्र को नीति शास्त्र में निपुण कर दिया हैं, भृगु नंदन शुक्राचार्य जी ने जो कुछ कहाँ हैं उसे प्रह्लाद जनता हैं, मानता हैं।
दैत्यराज हिरण्य-कश्यप ने प्रह्लाद से नीति शास्त्र से सम्बंधित कुछ प्रश्न किया ! रजा को मित्रों से कैसा व्यवहार करना चाहिए ? और शत्रुओं से कैसा ? मंत्रियों, अमात्यों, बाह्य और अन्तः पुर के सेवकों, गुप्तचरों, पुरवासियों तथा अन्यान्य जनों के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिये ? साम, दान तथा दंड और भेद ये सब उपाय मित्रादि के साधन के लिये उचित हैं किन्तु, पिताजी अप क्रोध न करें, मुझे तो कोई शत्रु-मित्र नहीं दिखाई देता हैं। श्री भगवान् विष्णु हम सभी प्राणियों में, अन्यत्र सभी स्थानों में स्थित हैं, फिर ये मेरा मित्र और ये मेरा शत्रु, ऐसे भेद-भाव का औचित्य ही क्या हैं ?
नीतिशास्त्र से सम्बंधित अपने प्रश्नों का इस प्रकार उत्तर पा कर, दैत्यराज क्रोधपूर्वक अपने राज सिंहासन से उठकर, प्रह्लाद के वक्ष स्थल में लात मार, अपने अनुचरों से कहा; इसे भली प्रकार नागपाश से बाँध कर महासागर में दाल दो। दैत्यों ने अपने स्वामी के आदेशानुसार, प्रह्लाद को नागपाशों से बंध कर समुद्र में दाल दिया। समुद्र में प्रह्लाद के हिलने डुलने के कारण, ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगी, हिरण्य-कश्यप ने यह देख, अपने दैत्यों से कहा; समुद्र के भीतर ही इसे पर्वतों से दबा दो। दैत्यों ने प्रह्लाद को हजारों पर्वतों से दबा दिया, इस पर प्रह्लाद एकाग्रचित हो श्री विष्णु की स्तुति करने लगा तथा भगवान् को अपने से अभिन्न चिंतन कर, श्री हरि के रूप को अनुभव करने लगा। इस प्रकार योगबल से प्रह्लाद के विष्णुमय हो जाने पर, नागपाश अपने आप ही टूट गए। भ्रमण शील ग्रह तथा सम्पूर्ण महासागर क्षुब्ध हो गए और वन, पर्वतों सहित समस्त पृथ्वी हिलने लगी। प्रह्लाद अपने ऊपर लादे गए समस्त पर्वत समूह को फेंक कर जल से बहार आयें, तथा पुरुषोत्तम भगवान् श्री हरि की स्तुति की। प्रह्लाद को मरने हेतु अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने अपनी सभा के लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने के लिए कहा।

दैत्यराज का नरसिंह प्रभु के हाथों विनाश-अंत।

सम्पूर्ण पृथ्वी हिरण्यकशिपु के क्रोध के कारण कंपायमान हो रहीं थीं, दैत्यराज का स्वरूप उस समय में जीमूत कृष्ण मेघ समान था तथा मेघ के तुल्य ही घोर ध्वनि वाला हो गया था, उसने प्रह्लाद से पूछा ! क्या इस खम्भे में भी तेरे भगवान् हैं? प्रह्लाद के पुकार पर भगवान् श्री हरि विष्णु, नरसिंह रूप में खम्भे से प्रकट हुए, जिनका न ही मानव देह तथा और न ही पशु का देह था। दैत्यराज के महल के प्रवेश-द्वारा की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात, नरसिंह अवतार रूप में अपने लंबे तेज़ सिंह जैसे नखों से, जो न अस्त्र थे न शस्त्र। ओंकार की सहायता वाले मृगेंद्र ने उछल कर, जंघा पर दैत्यराज को गिराया और अपने तीक्षण विलाल नखों से दैत्यराज को पकड़ कर विदीर्ण कर दिया, इस प्रकार वो नृसिंह प्रभु के द्वारा युद्ध में निहित हो गया। दैत्यराज के विनाश हो जाने पर त्रिलोक में सभी प्रसन्नता को प्राप्त हुए, इसके पश्चात् सब देवता, ऋषि गण तथा तापस गण ने उन आदि देव, आद्य पुरुष का स्तवन किया।
प्रह्लाद की स्तुति करने पर, पीताम्बरधारी भगवान् श्री हरि प्रकार हुए, प्रह्लाद ने भगवान् को नमस्कार किया। भगवान् बोले ! हे प्रह्लाद ! मैं तेरी अनन्य भक्ति से बहुत प्रसन्ना तथा संतुष्ट हूँ, जो इच्छा वर मांग ले। प्रह्लाद ने भगवान् श्री हरि से निवेदन किया कि, नाना प्रकार से जैसे अग्नि समूह में डालने, सर्पों के कटवाने, भोजन में हलाहल विष देने से, समुद्र में डाल कर तथा ऊपर से पर्वतों के निचे दबाने इत्यादि दुर्व्यवहार के कारण जो पाप उनके पिताजी दैत्यपति को लगा हैं, उनसे वे शीघ्र ही मुक्त हो जाये। भगवान् श्री हरि ने कहा ! प्रह्लाद मेरी कृपा से तुम्हारी ये सभी इच्छाएँ पूर्ण होगी, तुम एक और वर मांग लो। प्रह्लाद ने भगवान् श्री हरि से अपने लिये निश्चल भक्ति मांगीं, भगवान् विष्णु ने परम निर्वाण पद प्राप्त करने का वर प्रदान किया।

दैत्यराज का नरसिंह प्रभु के हाथों विनाश-अंत।

सम्पूर्ण पृथ्वी हिरण्यकशिपु के क्रोध के कारण कंपायमान हो रहीं थीं, दैत्यराज का स्वरूप उस समय में जीमूत कृष्ण मेघ समान था तथा मेघ के तुल्य ही घोर ध्वनि वाला हो गया था, उसने प्रह्लाद से पूछा ! क्या इस खम्भे में भी तेरे भगवान् हैं? प्रह्लाद के पुकार पर भगवान् श्री हरि विष्णु, नरसिंह रूप में खम्भे से प्रकट हुए, जिनका न ही मानव देह तथा और न ही पशु का देह था। दैत्यराज के महल के प्रवेश-द्वारा की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात, नरसिंह अवतार रूप में अपने लंबे तेज़ सिंह जैसे नखों से, जो न अस्त्र थे न शस्त्र। ओंकार की सहायता वाले मृगेंद्र ने उछल कर, जंघा पर दैत्यराज को गिराया और अपने तीक्षण विलाल नखों से दैत्यराज को पकड़ कर विदीर्ण कर दिया, इस प्रकार वो नृसिंह प्रभु के द्वारा युद्ध में निहित हो गया। दैत्यराज के विनाश हो जाने पर त्रिलोक में सभी प्रसन्नता को प्राप्त हुए, इसके पश्चात् सब देवता, ऋषि गण तथा तापस गण ने उन आदि देव, आद्य पुरुष का स्तवन किया।
प्रह्लाद की स्तुति करने पर, पीताम्बरधारी भगवान् श्री हरि प्रकार हुए, प्रह्लाद ने भगवान् को नमस्कार किया। भगवान् बोले ! हे प्रह्लाद ! मैं तेरी अनन्य भक्ति से बहुत प्रसन्ना तथा संतुष्ट हूँ, जो इच्छा वर मांग ले। प्रह्लाद ने भगवान् श्री हरि से निवेदन किया कि, नाना प्रकार से जैसे अग्नि समूह में डालने, सर्पों के कटवाने, भोजन में हलाहल विष देने से, समुद्र में डाल कर तथा ऊपर से पर्वतों के निचे दबाने इत्यादि दुर्व्यवहार के कारण जो पाप उनके पिताजी दैत्यपति को लगा हैं, उनसे वे शीघ्र ही मुक्त हो जाये। भगवान् श्री हरि ने कहा ! प्रह्लाद मेरी कृपा से तुम्हारी ये सभी इच्छाएँ पूर्ण होगी, तुम एक और वर मांग लो। प्रह्लाद ने भगवान् श्री हरि से अपने लिये निश्चल भक्ति मांगीं, भगवान् विष्णु ने परम निर्वाण पद प्राप्त करने का वर प्रदान किया।



आद्या शक्ति काली


माता दुर्गा

दुर्गमासुर मर्दिनी, दुर्गम संकटों से मुक्त करने वाली 'माता दुर्गा'

माता सती

साक्षात् आद्या शक्ति, शिव जी की अर्धांगनी सती या पार्वती, शक्ति की अधिष्ठात्री देवी

माता सरस्वती

ज्ञान तथा श्रृजन की अधिष्ठात्री देवी, ब्रह्मा जी की अर्धांगनी 'माता सरस्वती'

माता लक्ष्मी

धन, सुख, वैभव की अधिष्ठात्री देवी, विष्णु जी की अर्धांगिनी 'माता लक्ष्मी'

महाकाली

काल का भी भक्षण करने में समर्थ, 'माता महा-काली'

माता तारा

मोक्ष तथा सर्वोच्च ज्ञान प्रदान करने वाली, 'माता तारा'



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