नारद! ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं, उनके कंठ से उनकी उत्पत्ति हुई हैं। ब्रह्मा जी द्वारा उत्पत्ति के पश्चात इन्हें भी सृष्टि उत्पन्न कार्य प्रदान किया गया, परन्तु सनकादी मुनियों के सामान इन्होंने भी भगवत-भक्ति को सर्वश्रेष्ठ माना तथा विषय भोगो को निरर्थक; उनके अनुसार सांसारिक कार्यों या विषय भोगो में आसक्ति, ईश्वर भजन में सबसे बड़ी बाधा थीं। भगवान विष्णु के परम भक्ति नारद ऋषि हैं, उनके अनुसार इस आसार संसार के मध्य समस्त चराचरात्मक सृष्टि के प्रत्येक तत्त्व में सर्व-व्यापी भगवान की सत्ता हैं।
नारद! देवताओं के ऋषि हैं! परिणामस्वरूप इन्हें देवर्षि नाम से भी जाना जाता हैं; नारद जी! भगवान विष्णु के अवतार हैं, इन्हें भगवान का मन भी कहा गया हैं। वास्तव में भगवान विष्णु जो भी लीला करना चाहते हैं, वे इन्हीं के द्वारा करवाते हैं, कारणवश इन्हें भगवान का मन कहा जाता हैं, वे उनके लीला सहचर हैं। सर्वदा ही नारद जी हाथ में वीणा लिए भगवान विष्णु के कीर्तन भजन में मग्न रहते हैं, उनके जिह्वा से सर्वदा ही नारायण-नारायण का उच्चारण होता रहता हैं। नारद जीम भगवत भक्ति के प्रधान बारह आचार्य : ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि-कपिल, स्वायम्भुव मनु, प्रहलाद, राजा जनक, भीष्मपितामह, राजा-बलि, शुकदेव जी, यम-राज (धर्म-राज) में से एक हैं। जीवों पर कृपा करने के निमित्त वे सर्वदा ही तीनों लोकों में भ्रमण किया करते हैं, तथा भगवत भक्ति के प्रचार के साथ ही, विपदा में पड़े हुए लोगों का उचित मार्गदर्शन भी करते हैं। जैसे इन्हीं के उपदेश से पार्वती ने शिव जी के निमित्त कठोर साधना करने का निश्चय किया तथा उन्हें पति रूप में प्राप्त किया; इन्हीं नारद जी के उपदेश से भक्त ध्रुव ने भगवान विष्णु की आराधना कर उत्तम लोक को प्राप्त किया।
देवर्षि नारद स्वयं ज्ञान के स्वरूप तथा समस्त वेदों के ज्ञाता हैं, त्रिकाल दर्शी, अपने योग-बल से समस्त लोकों में जाने में समर्थ तथा सर्व ज्ञात करने में सक्षम, धर्म, अर्थ और मोक्ष के तत्त्व को जानने वाले, कवि, ज्ञानी, तेजस्वी, विद्या के भंडार, संगीत विशारद, ज्योतिष ज्ञाता हैं।
हिन्दू धर्म से संबंधित नाना तथ्यों-कथाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर, प्रचार-प्रसार करना।