'सनक, सनंदन, सनातन, और सनत्कुमार' इन चारों को सनकादि कुमार, सनकादि मुनि या सनकादि ऋषि के नाम से जाना जाता हैं, यह ब्रह्मा जी के प्रथम मानस पुत्र हैं। इन चार ऋषियों के रूप में श्री हरी विष्णु ने सर्वप्रथम अवतार धारण किया। इन दिगम्बरी कुमारों ने भगवान विष्णु के हंस अवतार से प्रलय-काल में लोप हुए वेद-शास्त्रों को प्राप्त कर, उपदेश दिया।
श्री हरी विष्णु, ने कौमार सर्ग में चार ब्राह्मणों के रूप में अवतार ग्रहण किया, जो ब्रह्मा जी के प्रथम संतान थे। इन चारों ने बहुत कठिन अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया, इनकी आयु सर्वदा ही पाँच वर्ष की रहती हैं। कल्प के आदि में ब्रह्मा जी! भगवान विष्णु के नाभि से उत्पन्न हुए तथा पद्म पर विराजमान थे, उन्होंने उस समय सम्पूर्ण जगत को जलमग्न देखा। वे सोचने लगे कि! वे कौन हैं? किसने उन्हें जन्म दिया हैं? तथा उनके जन्म का क्या उद्देश्य हैं? उस स्थिति में ब्रह्मा जी ने कई वर्षों तक तपस्या की, तदनंतर पुरुषोत्तम भगवान श्री हरी विष्णु ने उन्हें दर्शन दिया। उन्होंने, जल प्रलय के कारण सम्पूर्ण जगत में नाश हुए, समस्त प्रजा तथा तत्वों को पुनः उत्पन्न करने हेतु ब्रह्मा जी को निर्देश दिया तथा वहां से अंतर्ध्यान हो गए। तदनंतर ब्रह्मा जी ने १०० वर्षों तक तपस्या की तथा चौदह लोकों की रचना की, उन्होंने सप्त प्राकृतिक सर्ग १. महत्तत्व, २. अहंकार, ३. तन्मात्राएँ, ४. इन्द्रियाँ, ५. इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता, ६. पञ्च-पर्वा, अविद्या (तम, मोह, महामोह, तामिस्र, अन्धतामिस्र), तथा तीन वैकृतिक सर्ग ८. स्थावर, ९. तिर्यक्, १०. मनुष्य को उत्पन्न किया।
इन सर्गों की उत्पत्ति के पश्चात! ब्रह्मा जी को संतुष्टि नहीं मिली तथा उन्होंने मन ही मन भगवान श्री हरी विष्णु का ध्यान कर, इन चारों पुत्रों को उत्पन्न किया। ब्रह्मा जी के ध्यान के परिणामस्वरूप साक्षात् श्री हरी ने ही इन चारों सनक, सनंदन, सनातन, और सनत्कुमार के रूप में अवतार लिया, जो पाँच वर्ष की आयु वाले थे तथा सर्वदा ही पाँच वर्ष आयु के ही रहे।
इन चारों को उत्पन्न कर ब्रह्मा जी ने उन्हें प्रजा विस्तार के निमित्त निर्देश दिया, परन्तु इन ऋषि कुमारों ने अपने पिता! ब्रह्मा जी को इस कार्य के लिए माना कर दिया। उनके अनुसार पुरुषोत्तम भगवान श्री हरी विष्णु की आराधना से अधिक और कोई कार्य उनके लिए उपयुक्त नहीं थीं, उन्होंने नारायण की उपासना को ही सर्वाधिक महत्व वाला माना तथा वहां से चले गए। वे चारों जहाँ पर भी जाते थे, सर्वदा ही भगवान विष्णु का भजन करते थे, सर्वदा ही उनके भजन-कीर्तन में निरत रहते थे। वे सर्वदा उदासीन भाव से युक्त हो, भजन-साधन में मग्न रहते थे, इन्हीं चारों कुमारों ने उदासीन भक्ति, ज्ञान तथा विवेक का मार्ग शुरू किया, जो आज तक उदासीन अखाड़ा के नाम से चल रहा हैं। चारों भाई सर्वदा एक साथ रहते थे, एक साथ ही ब्रह्माण्ड में विचरण करते थे तथा सभी ने एक साथ ही वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया।
सनकादि ऋषियों ने श्री हरी भगवान के हंसावतार से ब्रह्म-ज्ञान की निगूढ़ शिक्षा ग्रहण की तथा उसका प्रथमोपदेश अपने शिष्य देवर्षि नारद को किया था। वास्तव में यह चारों ऋषि ही चारों वेदों के समान माने गए हैं, चारों वेद इन्हीं का स्वरूप हैं। पूर्व चाक्षुष मन्वंतर के प्रलय के समय जो वेद-शास्त्र प्रलय के साथ लीन हो गए थे, इन चार कुमारों के उन वेद-शास्त्रों को हंस अवतार से प्राप्त किया। नारद मुनि को इन्होंने ही समस्त वेद-शास्त्रों से अवगत करवाया, तदनंतर उन्होंने अन्य ऋषियों को वेदों का उपदेश दिया। इन्हें आत्मा तत्व का पूर्ण ज्ञान था, वैवस्वत मन्वंतर में इन्हीं पाँच वर्ष के बालकों ने सनातन धर्म ज्ञान प्रदान किया और निवृति-धर्म के प्रवर्तक आचार्य हुए। वे सर्वदा ही दिगंबर भेष धारण किये रहते थे! संसार में रहते हुए भी, वे कभी किसी भी बंधन में नहीं बंधे। केवल मात्र हरि भजन ही इनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था। वे चारों कुमार परम सिद्ध योगी हैं, अपने परम ज्ञान तथा सिद्धियों के परिणामस्वरूप वे सर्वदा ही सिद्ध बाल-योगी से जान पड़ते हैं। ज्ञान प्रदान तथा वेद-शास्त्रों के उपदेश, भगवान विष्णु की भक्ति और सनातन धर्म हेतु इन कुमारों ने तीनों-लोकों में भ्रमण किया। इन्होंने भगवान विष्णु को समर्पित कई स्त्रोत लिखे।
सनकादि नाम से विख्यात चारों कुमार सनक (पुरातन), सनन्दन (हर्षित), सनातन (जीवंत) तथा सनत् (चिर तरुण) के नाम में सन शब्द हैं, इसके अलावा चार भिन्न प्रत्ययों हैं। बुद्धि को अहंकार से मुक्ति का उपाय सनकादि से अभिहित हैं, केवल चैतन्य ही शाश्वत हैं। चैतन्य मनुष्य के शरीर में चार अवस्था जिसे जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय या प्राज्ञ विद्यमान रहती हैं, इस कारण मनुष्य देह चैतन्य रहता हैं। इन्हीं चारों अवस्थाओं में विद्यमान रहने के कारणवश चैतन्य मनुष्य को सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत् से संकेतित किया गया हैं। यह चारों कुमार किसी भी प्रकार की अशुद्धि के आवरण से रहित हैं, परिणामस्वरूप इन्हें दिगंबर वृत्ति वाले जो नित्य नूतन और एक समान रहते हैं कुमार कहा जाता हैं। तत्त्वज्ञ (तत्व ज्ञान से युक्त), योगनिष्ठ (योग में निपुण), सम-द्रष्टा (सभी को एक सामान देखना तथा समझना), ब्रह्मचर्य से युक्त होने के कारण इन्हें ब्राह्मण (ब्रह्मा-नन्द में निमग्न) कहा जाता हैं।
ब्रह्मा जी ने समस्त देवताओं को एक घटना से अवगत करवाया!
"तुम्हारे पूर्वज तथा मेरे प्रथम मानस पुत्र सनकादि ऋषि, आसक्ति का त्याग कर समस्त लोकों में आकाश मार्ग से विचरण किया करते थे। एक बार वे सभी लोकों के शिरों भाग में स्थित! वैकुण्ठ में गए, वहां पर सभी साक्षात् विष्णु स्वरूप ही होते हैं। क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि इन्द्रियों को भ्रमित तथा पथ भ्रष्ट करने वाली सभी प्रकार की कामनाओं का त्याग कर केवल भगवत शरण युक्त रहते हैं। वहां सर्वदा भगवान नारायण भक्तों को सुख प्रदान करने हेतु शुद्ध सत्व-मय रूप धारण कर रहते हैं। परम सौन्दर्य शालिनी देवी लक्ष्मी जी, जिनकी कृपा प्राप्त करने हेतु देव-गण भी आतुर रहते हैं, श्री हरि के धाम में अपनी चंचलता त्याग कर स्थित रहती हैं।
जब सनकादि ऋषि वैकुण्ठ में पहुंचे तो वहां के मनोरम नैःश्रेयस वन, सरोवरों में खिली हुई वासंतिक माधवी लता की सुमधुर गंध, मंदर, मुकुंद, तिलक वृक्ष, उत्पल (रात्रि में खिलने वाले कमल), चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नागकेसर, बकुल, अम्बुज (दिन में खिलने वाले कमल), पारिजात आदि पुष्पों की सुगंध से उन्हें बड़ा ही आनंद हुआ। भगवान दर्शन की इच्छा से वहां के मनोरम, रमणीय स्थलों को देखकर ६वी ड्यौढि पार कर जब वे सातवीं पर पहुँचें, उन्हें हाथ में गदा लिए दो पुरुष दिखें। सनकादि ऋषि बिना कैसी रोक-टोक के सर्वत्र विचरण करते थे, उनकी सभी के प्रति समान दृष्टि थीं, सर्वदा वे दिगंबर वेश धारण करते थे। वे चारों कुमार पूर्ण तत्व ज्ञानी थे, ब्रह्मा जी के सर्वप्रथम संतान होते हुए भी वे सर्वदा पाँच वर्ष के बालक की आयु वाले थे। इस प्रकार निःसंकोच हो भीतर जाते हुए कुमारों को जब द्वारपालों ने देखा, उन्होंने शील-स्वभाव के विपरीत सनकादि के तेज की हंसी उड़ाते हुए उन्हें रोक दिया। भगवान दर्शन पर जाते हुए कुमारों को द्वारपाल के इस कृत्य पर क्रोध आ गया।
सनकादि कुमारों ने द्वारपालों से कहा! तुम तो भगवान समान ही समदर्शी हो, परन्तु तुम्हारे स्वभाव में यह विषमता कैसी? भगवान तो परम शांत स्वभाव के हैं, उनका कैसी से विरोध भी नहीं हैं, तुम स्वयं कपटी हो! परिणामस्वरूप दूसरों पर शंका करते हो। भगवान के उदर में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड स्थित हैं, यहाँ रहाे वाले ज्ञानीजन सर्वात्मा श्री हरि विष्णु से कोई भेद नहीं देखते हैं। तुम दोनों हो तो भगवान के पार्षद, परन्तु तुम्हारी बुद्धि बहुत ही मंद हैं, तुम काम, क्रोध, लोभ युक्त प्राणियों के पाप योनि में जन्म धारण करो। सनकादि की इस प्रकार कठोर वचनों को सुनकर, अत्यंत दीन भाव से युक्त हो पृथ्वी पर पड़ कर उन दोनों ने कुमारों की चरण पकड़ ली। वे जानते थे कि ब्राह्मण के श्राप का उनके स्वामी! श्री हरि विष्णु भी खंडन नहीं कर सकते हैं, वे भी ब्राह्मणों से बहुत डरते हैं। इधर जब भगवान को ज्ञात हुआ कि उनके द्वारपाल एवं पार्षद जय तथा विजय ने सनकादि साधुओं का अनादर किया हैं, वे स्वयं लक्ष्मी जी सहित उस स्थान पर आयें। परम दिव्य विग्रह वाले श्री हरि विष्णु तथा लक्ष्मी जी को देखकर सनकादि कुमारों ने उन्हें प्रणाम किया, उनकी दिव्य, मनोहर, अद्भुत छवि को निहारते हुए कुमारों के नेत्र तृप्त नहीं हो रहें थे।
भगवान श्री हरि विष्णु ने उन कुमारों से कहा! यह जय तथा विजय मेरे पार्षद हैं, इन्होंने बड़ा अपराध किया हैं, आप मेरे अनुगत भक्त हैं; इस प्रकार मेरे ही अवज्ञा करने के कारण आपने जो दंड इन्हें दिया हैं, वह उचित ही हैं। मेरी निर्मल सुयश-सुधा में गोता लगाने वाला चाण्डाल भी क्यों न हो तुरंत पवित्र हो जाता हैं; तत्काल समस्त पापों को नष्ट कर देती हैं, मेरे उदासीन रहाे पर भी लक्ष्मी जी मुझे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ती हैं। ब्राह्मण, दूध देने वाली गायें तथा अनाथ प्राणी मेरे ही शरीर हैं।
भगवान श्री हरि ने आपने द्वारपाल जय तथा विजय से कहा! तुम्हें यह श्राप मेरे इच्छा के अनुसार प्राप्त हुआ हैं, यही तुम्हारी परीक्षा हैं। तीन जन्मो तक तुम्हारा जन्म दैत्य योनि में होगा तथा मैं तुम्हारा प्रत्येक जन्म में उद्धार करूँगा, उस योनि से मुक्ति प्रदान करूँगा। श्राप के कारण तुम दोनों प्रथम जन्म में हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यपु बनोगे, द्वितीय में रावण तथा कुम्भकर्ण तथा तृतीय जन्म में शिशुपाल तथा दन्तवक्र बनोगे।
हिन्दू धर्म से संबंधित नाना तथ्यों-कथाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर, प्रचार-प्रसार करना।