सृष्टि-कर्ता ब्रह्मा

समस्त जीवों के पितामह, अपने ज्ञान से ब्रह्माण्ड के प्रत्येक स्थूल तथा परा जीव तथा वस्तुओं का निर्माण करने वाले 'पितामह ब्रह्मा जी'। संसार या ब्रह्माण्ड के निर्माणकर्ता, तमो गुण सम्पन्न, सृजन कर्ता।

पालन-कर्ता विष्णु

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के पालन-हार, पालन-पोषण के कर्त्तव्य या दाइत्व का निर्वाह करने वाले, सत्व गुण सम्पन्न 'श्री हरि विष्णु'। सृजन के पश्चात् तीनों लोकों के प्रत्येक तत्व तथा जीव का पालन-पोषण करने वाले।

संहार-कर्ता शिव

तीनों लोकों में विघटन या विध्वंस के प्राकृतिक लय के अधिष्ठाता, तमो गुण सम्पन्न 'शिव'। वह शक्ति जो ब्रह्माण्ड के प्रत्येक जीवित तथा निर्जीव तत्व के विघटन के कार्यभार का निर्वाह करती हैं।

राजर्षि वेन के भुजाओं के मंथन से प्रकट ‘राजा पृथु’।

राजा ध्रुव के वंश में जन्म धारण करने वाले भगवान विष्णु के नवम अंश अवतार ‘महाराज पृथु’, जिन्होंने पृथ्वी से समस्त अन्न तथा औषधियों का दोहन किया तथा प्रजा हेतु पुर-ग्रामादि स्थान प्रदान करना।

राजा अंग द्वारा अश्वमेध-महायज्ञ का अनुष्ठान करना; ऋत्विजो द्वारा समर्पित द्रव्यों को पुत्र हीन होने के कारण देवताओं द्वारा ना स्वीकार करना तथा संतान प्राप्ति हेतु यज्ञ में पुरोडाश नामक चरू का समर्पण करना।

एक बार राजर्षि अंग ने अश्वमेध-महायज्ञ का अनुष्ठान किया था, उसमें वेदवादी ब्राहमणों द्वारा आवाहन करने पर भी देवता अपना भाग लेने हेतु नहीं आयें। इस पर सभी ऋत्विज विस्मित हुए तथा अंग से कहा ! “राजन ! हम आहुतियों के रूप में आपका जो भी द्रव्य-पदार्थ हवन कर रहें हैं, उसे देवता स्वीकार नहीं कर रहें हैं। हमें ज्ञात हैं की आप की हवन सामग्री दूषित नहीं हैं तथा वेद मन्त्र भी बलहीन नहीं हैं, उनका प्रयोग करने वाले समस्त ऋत्विजगण सभी नियमों का पूर्णतः पालन करते हैं। ऐसा कोई भी कारण नहीं हैं, जिस से इस यज्ञ में देवताओं का किंचित मात्र भी तिरस्कार हुआ हैं; फिर देवता लोक क्यों अपना भाग नहीं ले रहें हैं ? यह हमारे समझ से बहार हैं।”
ऋत्विजो के इस प्रकार कहने पर अंग बहुत उदास हुए तथा उन्होंने उपस्थित सदस्यों से देवताओं द्वारा सोमपात्र ग्रहण न करने का कारण पूछा। सदस्यों ने कहा ! “राजन आप ने इस जन्म में तो कोई अपराध नहीं किया हैं, परन्तु पूर्व जन्म में आप का एक अपराध अवश्य हैं, जिस कारण आप पुत्र हीन हैं। पहले आप पुत्र प्राप्त करने का कोई उपाय करें। पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ करने पर भगवान यज्ञेश्वर आपको अवश्य ही पुत्र प्रदान करेंगे; इस पर जब संतान हेतु यज्ञपुरुष श्री हरि का आवाहन किया जाएगा, देवता अपने-अपने भाग को स्वयं ग्रहण करेंगे।” इस पर, राजा अंग ने पुत्र संतान प्राप्ति हेतु पशु में यज्ञ रूप से रहने वाले श्री विष्णु भगवान के पूजन के निमित्त पुरोडाश नामक चारू का समर्पण किया।

यज्ञ से खीर लिए हुए दिव्य पुरुष का प्रकट होना, रानी का उसे खा कर वेन को जन्म देना तथा वेन की क्रूरता देख संसार का त्याग कर वन में जाना।

यज्ञाग्नि में आहुति डालते ही यज्ञ-कुंड से एक दिव्य पुरुष का प्राकट्य हुआ, जो अपने हाथों में सिद्ध खीर लिए हुए थे। याजकों की अनुमति से राजा अंग ने वह खीर अपनी अंजलि में ले ली और उसे स्वयं सूंघ कर आपनी पत्नी को दे दिया। रानी ने वह खीर खा कर अपने पति के सहवास से गर्भ धारण किया, उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। वह बालक “वेन” बाल्यावस्था से ही अपने नाना अधर्म के वंश में उत्पन्न ‘मृत्यु’ का अनुगामी हुआ (सुनीथा मृत्यु की पुत्री थीं), वह बड़ा ही अधर्मी हुआ। वह बड़ा ही क्रूर और निर्दयी था, उसे देखकर पुरवासी लोग वेन आया वेन आया कह कर भाग खड़े होते थे; वह अपने संग खेलते हुए बालकों को मर देता था। इस प्रकार वेन के कुकर्म देख कर राजा अंग ने उसे सुधरने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु वह असफल रहें।
राजा वेन एक रात बहुत दुःखी हो मन ही मन सोचने लगे ! “पूर्व जन्म में जिन्होंने श्री हरि की आराधना की होगी, उन्हें कुपूत के दुष्कर्मों से होने वाले असह्य क्लेश नहीं सहने होते होंगे, जिसकी करनी से माता-पिता का सुयश मटिया-मेट हो जाये, सबसे विरोध हो जाये, अधर्म का भागी होना पड़े, स्थाई चिंता मिले; घर-संसार दुख दाई हो जाये; ऐसा पुत्र प्राप्त करने की कौन कामना करेगा ?” उन्हें पूरी रात नींद आई, उनका चित गृहस्थ से विरक्त हो गया था। वे आधी रात अपनी शय्या से उठे तथा उन्होंने सभी प्रियजनों के मोह का त्याग किया और चुप-चाप महल से निकल कर, वन की ओर चेले, उनकी पत्नी सुनीथा नींद में बेसुध थीं। सुबह, सभी प्रजा जनों, मंत्रियों, सुहृद-गणों को जब ज्ञात हुआ की राजा ने गृह त्याग कर दिया हैं तो सभी उन्हें खोजने निकले। परन्तु, किसी को भी राजा अंग का कोई अता-पता नहीं लगा, तब वे सभी निराश होकर नगर में लौट आयें।

वेन को पृथ्वी के राज पर अभिषिक्त करना, उसके द्वारा किये जाने वाले अत्याचार तथा ऋषियों द्वारा विचार विमर्श कर राजा वेन को समझाने हेतु उनके पास जाना।

राजा अंग के चले जाने के पश्चात, भृगु आदि मुनियों ने देखा की पृथ्वी की रक्षा करने वाला कोई नहीं हैं; सभी पशुओं के समान उच्छृङ्खल होते जा रहे हैं; माता सुनीथा की सम्मति से वेन को पृथ्वी के राजपद पर अभिषिक्त कर दिया, परन्तु मंत्री इस अभिषेक से सहमत नहीं थे। वेन बड़ा ही कठोर शासक था, चोर-डाकुओं ने जब सुना की वह राजा बन गया हैं; उनके मन में बड़ा डर पैदा हुआ तथा सभी इधर-उधर चुप गए। वेन आठों लोक-पालों के ऐश्वर्य के कारण उन्मंत्त हो गया, अभिमान-वश वह अपने आप को ही सबसे बड़ा मानने लगा तथा महापुरुषों का अपमान करने लगा। वह निरंकुश हो, सर्वत्र विचरण करने लगा, ‘कोई भी द्विजाति वर्ण का पुरुष किसी प्रकार का यज्ञ, दान तथा हवन न कर पाए’, उसने अपने राज्य पर इसका ढिंढोरा पिटवा दिया तथा सारे धर्म कर्म बंद कर दिए।
राजा वेन द्वारा किये जाने वाले नित्य इस प्रकार के अत्याचारों को देख, सरे ऋषि-मुनि एकत्र हुए तथा तीनों लोकों पर महान संकट आया जान कर आपस में कहने लगे। “सुनिथी के गर्भ से उत्पन्न हुआ ये वेन बड़ा ही दुष्ट हैं, इसके अत्याचारों से प्रजा महान संकट में पड़ गई हैं; उनकी अवस्था ऐसे हैं जैसा की उस चींटी का होता हैं जो दोनों ओर जल रहे काष्ठ के बीच में हो। हमने इसे प्रजा की रक्षा हेतु नियुक्त किया था, परन्तु ये तो प्रजा को नष्ट करने में तुला हुआ हैं। हमने सब कुछ जानते हुए भी वेन को राजा बनाया; परन्तु यह नहीं सोचा था की वह हमारी भी बातें नहीं मानेगा, अगर ऐसा ही रहा तो धिक्कार से दग्ध हुए इस दुष्ट को हम अपने तेज से भस्म कर देंगे।” इस प्रकार विचार विमर्श कर ऋषि गण वेन के पास गए तथा अपने क्रोध का उन्हें न ज्ञात होते हुए, उन्हें समझाने की चेष्टा की।
मुनियों ने राजा वेन से कहा ! “राजन ! हम आपसे जो कह रहे हैं उस पर ध्यान दे; इससे आपके आयु, बल, श्री तथा कीर्ति की वृद्धि होगी। यदि मनुष्य मन, वाणी, शरीर तथा बुद्धि से धर्म का आचरण करे, तो उसे स्वर्ग आदि शोक-संताप रहित लोकों की प्राप्ति होती हैं। यदि उसका निष्काम भाव हो, तो वही धर्म उसे अनंत मोक्ष प्राप्त कराती हैं, इसलिए वीरवर ! प्रजा का कल्याण रूप वह धर्म नष्ट नहीं होना चाहिए। जो राजा दुष्ट मंत्री और चोर आदि से अपनी प्रजा की रक्षा करते हुए न्याय करता हैं, वह इहलोक तथा परलोक दोनों जगह सुख भोगता हैं। जिस राजा के राज्य में स्वधर्म पालन के द्वारा भगवान् यज्ञ पुरुष श्री हरि की आराधन होती हैं; उस पर भगवान् सर्वदा प्रसन्न रहते हैं। वे ही सम्पूर्ण भूतों की आत्मा तथा विश्व के रक्षक हैं, इसी कारण इंद्र आदि लोकपाल सहित समस्त लोक उनकी बड़ी आदर से पूजा-आराधना करती हैं। भगवान् श्री हरि समस्त लोक, लोकपाल और यज्ञों के नियंता हैं, वे ही वेदत्रयीरूप, द्रव्यरूप और तप;रूप हैं, आप को उनके अनुकूल आचरण करना चाहिये। ब्राह्मणों द्वारा किया हुआ यज्ञ अनुष्ठान पूजादि से प्रसन्न हो भगवान् के अंश स्वरूप समस्त देवता आपको मनचाहा फल प्रदान करेंगे। आप को यज्ञ अनुष्ठान बंद कर देवताओं का तिरस्कार नहीं करना चाहिये।”

राजा वेन द्वारा आगंतुक ऋषियों को उन्हें ही सर्व देव-मय मान कर, उनकी पूजा करने का आदेश देना तथा ऋषियों द्वारा हुंकार से राजा की मृत्यु।

राजा वेन ने समस्त ऋषि गणो से कहा ! “तुम लोग बड़े मूर्ख हो, तुम्हें देख कर बड़ा खेद होता हैं, तुम लोगों ने अधर्म में ही अपनी बुद्धि को स्थिर कर रखा हैं। इसी कारण वश तुम जीविका देने वाले, मुझ साक्षात् पति को छोड़कर किसी दूसरे जार पति की उपासना करते हो। जो लोग राजा स्वरूप भगवान का अनादर करते हैं, उन्हें इस लोक और पर लोक दोनों में सुख नहीं प्राप्त होता हैं। जिन यज्ञ पुरुष के प्रति तुम्हारी भक्ति हैं, वह कौन हैं ? विष्णु, ब्रह्मा, महादेव, इंद्र, वायु, यम, सूर्य, मेघ, कुबेर, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्नि और वरुण तथा इनके अतिरिक्त भी जो दूसरे देवता हैं वह वर तथा श्राप देने में समर्थ हैं; वे सभी राजा के शरीर में वास करते हैं; परिणामस्वरूप राजा सर्व-देवमय हैं तथा देवता उसी के अंश मात्र हैं। ब्राह्मणों तुम मत्सरता छोड़कर अपने सभी कर्मों के द्वारा मेरा पूजन करो, भला मेरे सिवा कौन अग्र-पूजा का अधिकारी हो सकता हैं।"
वह इस प्रकार की विपरीत बुद्धि युक्त हो पापी तथा कुमार्ग गामी हो गया था, परिणामस्वरूप उसका पाप क्षीण हो गया। मुनियों के द्वारा बहुत विनययुक्त हो समझाने पर भी वेन ने उनपर ध्यान नहीं दिया। इस पर सभी मुनि राजा वेन पर कुपित हो गए, उन्होंने निश्चित कर लिए की उनके अंत से ही संसार का कल्याण हो सकता हैं। इस प्रकार अपने क्रोध को प्रकट कर उन्होंने राजा वेन को मारने का निश्चय किया, भगवान श्री हरि की निंदा के कारण वह पहले ही मर गया था; परन्तु ऋषियों ने हुंकार या श्राप से उसका अंत कर दिया। वेन की शोकाकुल माता सुनीथा मन्त्र इत्यादि के बाल से तथा नाना युक्तियों से अपने पुत्र के शव की रक्षा करने लगी।

राजा हीन पृथ्वी होने के कारण चोर-डाकू-लुटेरों से उत्पन्न अराजकता तथा ऋषियों द्वारा राजा वेन के मृत देह का मंथन।

एक दिन मुनिगण सरस्वती नदी के पवित्र जल में स्नान कर, अग्निहोत्र इत्यादि नित्य-कर्म से निवृत्त हो नदी के तट पर बैठे विचार-विमर्श कर रहें थे। पृथ्वी राजा से रहित रक्षा हीन थीं, वे आपस में चर्चा करने लगे की; इस कारण चोर-डाकुओं के कारण कुछ अमंगल तो नहीं होने वाला हैं। इतने में डाकुओं की सब दिशाओं से उड़ाने वाली धुल उन्हें दिखाई दी, वे समझ गए की राजा के न होने के परिणामस्वरूप देश में अराजकता फैली हुई हैं। राज्य शक्ति हीन हो गया हैं, चोर-डाकू अधिक हो गए हैं, उपयुक्त उपद्रव प्रजा का धन लूट कर, रक्त के प्यासे लुटेरों द्वारा ही मचाया गया हैं। अपने तेज तथा तपो बल से लोगों को ऐसे कुप्रवृति से रोकने में समर्थ होने पर भी, उन ऋषियों ने हिंसा आदि दोष देख कर भी इसका कोई निवारण नहीं किया। तदनंतर उन्होंने सोचा की राजा अंग का वंश नष्ट नहीं होना चाहिये, ऐसा सोच कर उन्होंने मृत राजा वेन के जंघा को बड़े जोर से मथा तो एक बौना पुरुष उत्पन्न हुआ। वह काक के समान काले वर्ण का था, उनकी भुजाएं बहुत ही छोटी थीं, जबड़े बहुत बड़े, टाँगें छोटी, नाक चपटी, लाल नेत्र तथा बाल ताम्र वर्ण के थे। उसने बड़े दिन स्वर में ऋषियों से पूछा ! “मैं क्या करूँ !” ऋषियों ने कहा ! “निषीद या बैठ जा”। जन्म लेने के पश्चात उस पुरुष ने राजा वेन के पापों को अपने ऊपर ले लिया, परिणामस्वरूप उसके वंशधर नैषाद भी हिंसा, लूटपाट आदि पाप-कर्मों में लिप्त रहते थे।
इसके पश्चात मुनियों ने राजा वेन के भुजाओं का मंथन किया, जिससे एक स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकट हुआ। ब्रह्मवादी ऋषि उस जोड़े को देख बहुत प्रसन्न हुए, उन्हें देख कर ऐसा प्रतीत होता था, जैसे भगवान के अंश ने जन्म ग्रहण किया हैं।

वराह अवतार
वराह अवतार
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वराह भगवान, हिरण्याक्ष का वध करते हुए
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वराह भगवान की मनोरम पाषण मूर्ति
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महाराज पृथु का पृथ्वी पर कुपित होना, पृथ्वी देवी का गौ रूप धारण कर भागना तथा महाराज पृथु की शरण में जा उनकी स्तुति करना।

ब्राह्मणों तथा ऋषियों ने महाराज पृथु को प्रजा का रक्षक उद्घोषित कर दिया, इस समय पृथ्वी अन्न हीन हो गई परिणामस्वरूप भूख के कारण प्रजा हाहाकार करने लगी। उन्होंने अपने स्वामी महाराजा पृथु के सम्मुख आकर कहा ! हम पेट की भीषण ज्वाला से जल रहें हैं, आप शरणागतों के रक्षक हैं, हमारे अन्न दाता प्रभु हैं, परिणामस्वरूप हम आप की शरण में आयें हैं। आप सभी की रक्षा करने वाले हैं, आप हम क्षुधा पीड़ितों को शीघ्र ही अन्न देने का प्रबंध करें, ऐसा न हो की भूख और प्यास के कारण हमारा अंत हो जाये।
प्रजा जनों के इस प्रकार करुण क्रंदन सुनकर महाराज पृथु ने बहुत देर तक विचार-विमर्श किया तथा उन्होंने अन्न के अभाव का मूल कारण गया किया। पृथ्वी स्वयं ही अन्न तथा औषधियों को अपने भीतर छुपा रहीं थीं, इस पर उन्होंने कुपित होकर अपने धनुष को उठाया तथा भगवान शंकर के समान अत्यंत क्रोधित होकर पृथ्वी को लक्ष्य बनाकर बाण चढाया। इस पर उन्हें देख पृथ्वी ने गौ का रूप धारण किया और डरकर भागने लगी। इस पर महाराज पृथु को बड़ा ही क्रोध आया, जहाँ-जहाँ पृथ्वी गई वहाँ-वहाँ महाराज पृथ्वी का पीछा करते हुए गए। पृथ्वी ने जब देखा की उसे महाराज पृथु से कोई नहीं बचा सकता हैं, वह भयभीत हो उनसे कहने लगी। “धर्म के तत्त्व को जनने वाले शरणागत वत्सल राजन ! आप सभी प्राणियों की रक्षा करने में तत्पर रहते हैं, आप मेरी रक्षा करें। आप क्यों मुझे मरना चाहते हैं, में अत्यंत दीन हूँ, आप तो धर्मज्ञ हैं, फिर आप एक स्त्री का वध कैसे करेंगे। स्त्रियाँ अगर कोई अपराध कर लेती भी हैं तो दीन-वत्सल पुरुषों को उन पर हाथ नहीं उठाना चाहिये। सारा जगत मेरे ही आधार पर स्थित हैं, मुझे मार कर आप स्वयं तथा अपनी प्रजा को कहाँ रखेंगे ?”
महाराज पृथु ने पृथ्वी से कहा ! “तू मेरे आज्ञा का उलंघन करने वाली हैं, तू यज्ञों में देवता रूप से अपना भाग तो लेती हैं, परन्तु हमें अन्न नहीं प्रदान कर रहीं हैं, इस कारण में तुझे मार ही डालूँगा। तूने पूर्व में ब्रह्मा जी के उत्पन्न किये हुए अन्नादि बीजों को अपने में लीन कर दिया हैं तथा अभी उसे अपने गर्भ से नहीं प्रदान कर रहीं हैं। जो दुष्ट अपना ही पोषण कर, अन्य प्राणियों के प्रति निर्दय हो जाये, वह कोई भी क्यों न हो, उसे राजा को उचित दंड देना ही चाहिये। तू बहुत गर्वीली और मदिन्मत्ता हैं; इस समय माया से ही ये गौण का रूप बनाये हुए हैं, में तेरे टुकड़े-टुकड़े कर अपने योग बल से प्रजा को धारण करूँगा।” महाराज पृथु के इस प्रकार क्रोध पूर्ण वचन सुनकर पृथ्वी कांपने लगी और अत्यंत विनीत भाव से हाथ जोड़े कहा !
“आप साक्षात् परमपुरुष हैं तथा अपनी माया से अनेक प्रकार के शरीर धारण कर गुणमय जान पड़ते हैं, वास्तव में आत्मानुभव के द्वारा आप अधिभूत, अध्यात्म और अधिदैव सम्बन्धी अभिमान और उससे उत्पन्न हुए राग-द्वेष से सर्वथा रहित हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। यह त्रिगुणात्मक सृष्टि आप ने ही रची हैं तथा मुझे समस्त जीवों का आश्रय बनाया। आप ही मुझे अस्त्र-शास्त्र लेकर मरने चले तो में और किस की शरण में जाऊं ? कल्प के आरंभ में आप ने अपने आश्रित रहने वाली अनिर्वचनीय माया से ही, सम्पूर्ण जगत की रचना की और उसी माया के द्वारा ही आप इसका पालन करने हेतु तत्पर रहते हैं। आप धर्म पारायण हैं, आप मुझ गौ रूप धारिणी को कैसे मरना चाहते हैं, आप एक होकर भी माया रूप से अनेक रूपों में विख्यात हैं; आपन ने ही अपनी माया से ब्रह्मा जी को रच कर, उनसे विश्व की रचना की हैं। आप साक्षात् सर्वेश्वर हैं, आप ही पञ्च-भूत, इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ देवता, बुद्धि और अहंकार रूप अपनी शक्तियों के द्वारा क्रमशः जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार करते हैं। नाना प्रकार के कार्यों हेतु समय-समय पर आप ही विभिन्न अवतारों में अवतीर्ण होते हैं, आप को मेरा नमस्कार हैं। आप ही ‘वराह अवतार’ धारण कर मुझे अघात जल से ढूंढ कर बहार लाये थे, इस प्रकार एक बार तो मेरा उद्धार कर अपने ‘धराधर’ नाम पाया था, आपकी क्रियाओं का उद्देश्य हम जैसे लोग कैसे समझ सकते हैं।”

समस्त अन्न को प्राप्त करने हेतु, पृथ्वी का गौ रूप में अपने आप को दोहने तथा पृथ्वी को समतल करने हेतु महाराज पृथु से कहना।

महाराज पृथु के होठ क्रोध से कांप रहे थे, पृथ्वी ने हृदय को विचारपूर्वक समाहित किया और डरते-डरते उनसे कहा ! आप अपना क्रोध शांत कीजिये, तत्त्व दर्शी मुनियों ने इस लोक और परलोक में मनुष्यों द्वारा कल्याण युक्त कार्य करने के निमित्त, कृषि, अग्निहोत्र इत्यादि बहुत से उपाय बताये गए हैं, उनके बताये हुए पथ का अनुसरण कर भी मनुष्य अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त करता हैं। परन्तु, जो अज्ञानी पुरुष उन उपायों का अनादर कर मन-कल्पित उपायों का आश्रय लेता हैं, उसे सभी प्रयत्न निष्फल होते हैं। पूर्व काल में ब्रह्मा जी ने जो धान्य आदि जो उत्पन्न किया था, मैंने देखा कि यम-नियम आदि व्रत का पालन न करने वाले दुराचारी लोग उन्हें खाए जा रहें हैं। आप जैसे प्रजा-पालकों ने मेरा पालन और आदर करना छोड़ दिया; परिणामस्वरूप सभी चोर के समान हो गए। इसी कारण में यज्ञ के औषधियों को मैंने अपने अन्दर छुपा लिया तथा अधिक समय तक मेरे उदार में रहने के कारण वे धान्य मेरे उदार में जीर्ण हो गए हैं। आप उन्हें पूर्व आचार्यों के बताये उपाय से निकल लीजिये, यदि आप को समस्त प्राणियों हेतु बल की वृद्धि करने वाले अन्न की आवश्यकता हैं तो अपने मेरे योग्य बछड़ा, दोहन-पात्र और दुहने वाले की व्यवस्था करें। मैं बछड़े को स्नेह युक्त हो पिन्हाकर दूध के रूप में आप को सभी अभीष्ट वस्तु प्रदान करूँगी। राजन ! एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात ! आप को मुझे समतल करना होगा, जिस से वर्षा ऋतु पश्चात इंद्र देव द्वारा वर्षाया हुआ जल सर्वत्र समान रूप से बनी रहे; मेरे भीतर की आद्रता न सुख पाए।
पृथ्वी देवी द्वारा कहे हुए हितकारी उपायों को महाराज पृथु ने स्वीकार किया तथा स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बना कर अपने हाथों से पृथ्वी रूप धारी गौ से समस्त अन्न तथा औषधियों को दुह लिया। महाराज पृथु के समान ही अन्य विज्ञजनों ने भी वसुंधरा रूपी गौ से अपनी-अपनी अभीष्ट वस्तुएँ दुह ली। ऋषियों ने बृहस्पति जी को बछड़ा बना कर इन्द्रिय (वाणी, मन और क्षोत्र) रूप पात्र में पृथ्वी देवी से वेद-रूपी पवित्र दुग्ध दुह ली। देवताओं ने इंद्र को बछड़े के रूप में कल्पना कर, सुवर्ण पात्र में अमृत, बल-वीर्य, ओज (इन्द्रियबल) और शारीरिक बल रूप दुग्ध दुहा। दैत्य तथा दानवों ने प्रह्लाद जी को वत्स बनाकर लोह के पात्र में मदिरा और आदव (ताड़ी इत्यादि) दुहा। गन्धर्व तथा अप्सराओं ने विश्व-वसु को बछड़ा बनाकर, कमल रूप पात्र में संगीतमाधुर्य और सौंदर्य रूपी दुग्ध दुहा। महाभागा पितृ गणों ने अर्यमा नाम के पित्रीश्वर को वत्स बनाया तथा मिटटी के पात्र में कव्य रूपी दुग्ध दुहा। कपिल देव जी को बछड़ा बना कर आकाश रूप पात्र में सिद्धों ने अणिमा आदि अष्ट सिद्धि तथा विधा धरों ने आकाश गमन आदि विद्याओं को दुहा। किम्पुरुषादि आया मायाविर्यो ने मयदानव को बछड़ा बना कर नाना प्रकार के संकल्पमयी मयाओं को दुग्ध रूप में दुहा। यक्ष-राक्षस तथा भूत-पिशाच आदि मांसाहारियों ने भूतनाथ रूद्र को बछड़ा बनाकर कपाल रूप पात्र में रुधिरा-सव रूप दुग्ध दुहा।
सर्प-बिच्छु इत्यादि विषैले जीवों ने तक्षक को बछड़ा बना कर मुख रूप पात्र में विष रूप दुग्ध को दुहा। पशुओं ने बैल को बछड़ा बनाकर वन रूप पात्र में तृण रूप दुग्ध को दुहा। मांसाहारी जीवों ने सिंह रूपी बछड़े द्वारा अपने शरीर रूप पात्र में मांस रूप दुग्ध को दुहा। गरुड़ जी को वत्स बनाकर पक्षियों ने किट-पतंग आदि चर-अचार पदार्थों को दुग्ध रूप में दुहा। वृक्षों ने वाट को वत्स बना कर अनेक प्रकार का रस रूपी दुग्ध दुहा तथा पर्वतों ने हिमालय रूपी बछड़े को शिखर रूप पात्र में अनेक प्रकार के धातुओं को दुग्ध रूप में प्राप्त किया। पृथ्वी जो महाराज पृथु के आधीन थीं, सभी जातियों ने अपने मुखिया को बछड़ा बनाकर नाना पत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थों को दुग्ध रूप में प्राप्त किया। इस प्रकार पृथ्वी देवी को उदार हृदय से अपना सब कुछ देते देख महाराज पृथु को उनसे स्नेह हो गया और उन्होंने उन्हें कन्या के रूप में स्वीकार कर लिया। इसके पश्चात महाराज पृथु ने अपने धनुष की नोक से पर्वतों को तोड़-फोड़ कर सरे भूमंडल को प्रायः समतल कर दिया। उन्होंने प्रजा हेतु समतल भूमि में यथायोग्य निवास स्थानों का विभाग किया तथा अनेक गाँव, नगर, दुर्ग, पशुओं के रहने हेतु स्थान बसायें। महाराज पृथु से पूर्व पृथ्वी पर पुर-ग्रामादि का विभाग नहीं था।

महाराज पृथु द्वारा सौ अश्वमेघ यज्ञ करने की दीक्षा लेना तथा यज्ञ के अश्व को देवराज इंद्र का बार-बार चुराने का प्रयास करना तथा ब्रह्मा जी द्वारा १०० वे यज्ञ को रोकना।

महाराज पृथु ने ब्रह्मावर्त क्षेत्र में जिस स्थान पर सरस्वती नदी पूर्वाभिमुख होकर वहती हैं, सौ अश्वमेघ यज्ञ करने की दीक्षा ली। यह देख इंद्र के मन में आशंका हुई की, इस यज्ञ से महाराज पृथु का पुण्य उन से अधिक हो जायेगा। पृथु के अश्वमेघ में स्वयं भगवान श्री हरि जानार्दन ने साक्षात् दर्शन दिया था। उनके साथ रूद्र, ब्रह्मा जी, अपने-अपने अनुचरों के साथ पधारे थे, साथ ही समस्त लोकपाल, गन्धर्व, अप्सराएँ, सिद्ध, विद्याधर, दानव, दैत्य, भगवान् श्री हरि के पार्षद, सनकादि मुनि, दात्तात्रेय, कपिल, नारद इत्यादि उस यज्ञ में पधारें। महाराज पृथु भगवान् श्री हरि को ही अपना प्रभु मानते थे, उनके यज्ञ में यज्ञ सामाग्रियों को देने वाली भूमि ने कामधेनु होकर यजमानों की सभी कामनाओं को पूर्ण किया। परन्तु देवराज इंद्र को यह सहन नहीं हुआ, उन्होंने यज्ञ में विघ्न डालने का प्रयत्न किया, उन्होंने अंतिम यज्ञ के घोड़े का चुपके से हरण कर लिया। इंद्र ने अपनी रक्षा हेतु कवच रूपी पाखंड वेश धारण किया, जो अधर्म का भ्रम उत्पन्न करने वाला हैं। इंद्र द्वारा इस प्रकार शीघ्रता से यज्ञ अश्व हरण कर ले जाते हुए, अत्रि ने उन्हें देख लिया। इस पर पृथु का पुत्र इंद्र को मारने हेतु उनके पीछे दौड़ा और इंद्र से बोला “अरे तू खड़ा रह”। इंद्र तपस्वी भेष में मस्तक पर जटा-जुट तथा शरीर में भस्म धारण किये हुए थे, इस प्रकार उन्हें देख कर पृथु कुमार ने उन्हें धर्म समझा तथा उन पर बाणों का प्रहार नहीं किया। इस पर अत्रि ने इंद्र को मरने की पृथु कुमार को आज्ञा दी, इस प्रकार वह क्रोध से भर गया। इंद्र बड़े वेग से आकश में जा रहें थे, इस पर पथु कुमार भी उस के पीछे दौड़ा। उसे पीछे आते देख इंद्र वही पर अश्व को छोड़ कर अंतर्ध्यान हो गया, पृथु कुमार यज्ञ के अश्व को लेकर यज्ञ शाला में लौट आया। इस अद्भुत पराक्रम को देख महर्षियों ने उस का नाम “विजिताश्व” रख दिया।
घोड़े को यज्ञ मंडप के युप में बाँध दिया गया, इंद्र ने पुनः अश्व को चुराने का प्रयत्न किया। इस बार उसने चारों ओर घोर अन्धकार फैला दिया और छिप कर अश्व को सांकर समेत ले गया। पुनः अत्रि मुनि ने उन्हें देख लिया, इस बार इंद्र भेष बदल कर वहां आयें थे, उनके पास कपाल और खट्वांग था, जिसे देख पृथु कुमार ने किसी प्रकार से बाधा उत्पन्न नहीं की। पुनः अत्रि ने राजकुमार को उकसाया तथा राजकुमार ने इंद्र को लक्ष कर अपने धनुष में बाण चढ़ाया, यह देख इंद्र भय के मारे अश्व तथा भेष को छोड़ अंतर्ध्यान हो गया। राजकुमार विजिताश्व पुनः यज्ञ के अश्व को अपने पिता के यज्ञ शाला में ले आया। (इंद्र द्वारा त्यागे हुए उस निन्दित भेष को मंदबुद्धि पुरुषों ने ग्रहण किया, इंद्र द्वारा अश्व हरण की इच्छा से जो भी रूप धारण किया गया, वे पाप के खंड होने के कारण “पाखण्ड कहलाये”, यज्ञ के अश्व को चुराने के समय इंद्र ने जिन-जिन भेष को त्यागा था, उन ‘नग्न, रक्ताम्बर तथा कापालिक’ आदि आचरणों में मनुष्य की बुद्धि प्रायः मोहित हो जाती हैं।” महाराज पृथु को जब देवराज इंद्र के इस कुटिलता का पता चला तो उन्हें बड़ा क्रोध आया, उन्होंने अपने धनुष पर बाण चढ़ाया तथा इंद्र के वध हेतु अपने आप को प्रस्तुत किया। इस पर ऋत्विजों ने महाराज पृथु से कहा ! ‘राजन आप तो बड़े ही बुद्धिमान हैं, यज्ञ दीक्षा लेने पर, यज्ञ पशु को छोड़ किसी अन्य का वध उचित नहीं हैं। आपके यज्ञ में विघ्न डालने वाला आपका शत्रु इंद्र, ईर्ष्या वश निस्तेज हो रहा हैं; हम उन्हें अमोघ आवाहन-मन्त्र द्वारा उन्हें यही बुला लेते हैं तथा बल पूर्वक उसका अग्नि में हवन कर देते हैं।
इस प्रकार इंद्र का यज्ञ में आवाहन किया गया, जिसे ही श्रुवा द्वारा यज्ञ में आहुति डालना था, ब्रह्मा जी वहां पर आयें और ऋत्विजों को आहुति डालने से रोक दिया। ब्रह्मा जी बोले ! “याजको ! तुम्हें इंद्र का वध नहीं करना चाहिये, यज्ञ-संज्ञक इंद्र को भगवान् की ही मूर्ति हैं, यज्ञ द्वारा तुम जिनकी आराधना कर रहे हो, वे इंद्र के ही अंग हैं और उन्हें ही तुम यज्ञ द्वारा मरना चाहते हो ? पृथु के यज्ञ अनुष्ठान में इंद्र ने जो पाखण्ड किया हैं, वह धर्म उच्छेदन करने वाला हैं, अब उस से अधिक विरोध न करों, नहीं तो वह और भी पाखण्ड मार्गों का प्रचार करेगा। परम यशस्वी महाराज पृथु के ९९ यज्ञ ही रहने दो। इसके पश्चात उन्होंने महाराज पृथु से कहा ! आप तो मोक्ष धर्म को जानने वाले हैं, अतः आप को इन यज्ञों की क्या आवश्यकता हैं, आपका सर्वदा ही मंगल हो ! आप और इंद्र दोनों ही यज्ञ-पुरुष भगवान् श्री हरि के शरीर हैं, आप को अपने स्वरूप भूत इंद्र के प्रति क्रोध नहीं करना चाहिये। आपका यह यज्ञ निर्विघ्न समाप्त नहीं हुआ, आप चिंता न करें तथा मेरी बात को आदर पूर्वक स्वीकार कीजिये, इस यज्ञ को बंद कीजिये। इंद्र के करें हुए पाखंडों से धर्म का नाश हो रहन हैं, बार-बार इंद्र घोड़े को चुरा कर आप के यज्ञ में विघ्न डाल रहा हैं तथा इन्हीं पाखण्ड पथ इंद्र की माया अधर्म की जननी हैं, आप इसे नष्ट कर डालिए।”
ब्रह्मा जी के इस प्रकार समझाने पर महाराज पृथु ने यज्ञ का आग्रह त्याग दिया तथा इंद्र के साथ संधि कर ली। इसके पश्चात यज्ञ के अंत में वे स्नान कर निवृत्त हुए, उन्हें नाना देवताओं ने अभीष्ट वर प्रदान किया, उन्होंने ब्राह्मणों को दक्षिणाऍ दी, ब्राह्मणों ने भी संतुष्ट हो उन्हें अमोघ आशीर्वाद प्रदान किया।


आद्या शक्ति काली तथा अन्य पृष्ठ


धन्वन्तरि अवतार

धन्वन्तरि अवतार, देव वैध

वामन अवतार

वामन अवतार, स्वर्ग का सिंहासन पुनः इंद्र को प्रदान करवाने वाले

राम अवतार

राम अवतार, राक्षसों से रक्षा हेतु

धन, सुख, वैभव की अधिष्ठात्री देवी, विष्णु जी की अर्धांगिनी 'माता लक्ष्मी'

धन, सुख, वैभव की अधिष्ठात्री देवी, विष्णु जी की अर्धांगिनी 'माता लक्ष्मी'

देवताओं को केवल अमृत पान करा उनका कार्य सिद्ध करने वाले, मोहिनी।

देवताओं को केवल अमृत पान करा उनका कार्य सिद्ध करने वाले, मोहिनी।

धूमावती

धुऐ में विद्यमान, अलक्ष्मी या धनहीन, अशुभता तथा नाना कष्टों से सम्बंधित, विधवा देवी, धूमावती।



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