क्षीर-सागर में त्रिकुट नाम का एक प्रसिद्द एवं सुन्दर पर्वत था, जो दस सहस्त्र योजन ऊँचा था। वह पर्वत विविध जाती के वृक्षों से युक्त वनों से सुशोभित था, वहां कई रमणीय झरनाएँ थीं, वहां बहुत से नदियाँ तथा सरोवर भी थें और सब ओरों से समुद्र की लहरें उस पर्वत के निचले भाग से टकराती थीं। उस पर्वत की तलहटी पर तरह-तरह के जंगली पशुओं के झुण्ड के झुण्ड रहते थें, सुन्दर-सुन्दर पक्षीं थीं। पर्वतराज त्रिकुट में वरुण देव का एक उद्धान था, जिसका नाम ऋतुमान था तथा उसमें देवागानाएं क्रीडा करती थी। सब प्रकार से वह पर्वत! फल तथा फुल के वृक्षों से सुशोभित था! जो प्रत्येक ऋतु में हरे-भरे रहते थें, उस उद्धान में एक भरी सरोवर था।
उस पर्वत के घोर वन में बहुत सी हथिनियों के साथ एक गजेन्द्र भी निवास करता था, वह वहां के समस्त हाथियों का सरदार था। एक दिन वह अपनी हथिनियों के साथ बड़ी-बड़ी झाड़ियों को अपने पैरों से रोंदता हुआ घूम रहा था, उसके डर से वन के अन्य जीव भाग जाया करते थें। बड़े हाथी तथा अन्य हथिनियां छोटे-छोटे बच्चों को घेरे हुए चल रहे थें, उस समय बड़ी ही तीव्र धुप थीं। सभी हाथि प्यास के कारण व्याकुल हो उठे थे, गजेन्द्र तथा उसके अन्य साथी कमल के पराग की गंध को सूंघते हुए सरोवर की ओर चले तथा कुछ क्षण पश्चात वे सरोवर के पास पहुच गए। उस सरोवर का जल अमृत के समान मधुर तथा निर्मल था, अरुण कमलों की केसर से वह महक रहा था। सर्वप्रथम गजेन्द्र सरोवर के भीतर गया था जी भर कर जल पीया, तदन्तर जल में स्नान कर अपनी थकन मिटायी। तदन्तर, गजेन्द्र गृहस्थ पुरुषों की भातीं मोह-ग्रस्त होकर अपनी सूड़से जल की फुहारों को छोड़-छोड़ कर अपने साथिन हथिनियों और बच्चों को नहलाने लगा तथा अपने सूड़ से जल भरकर बच्चों को जल पिलाने लगा। भगवान की माया से उन्मत्त हुआ गजेन्द्र उन्मत्त हो गया था परन्तु उसे ज्ञात नहीं था की उसपर बहुत बड़ी विपत्ति आ रहीं थीं।
गजेन्द्र जिस समय उन्मत्त हो रहा था, उसी समय प्रारभ्य की प्रेरणा से एक बलवान ग्राह ने क्रोध में भरकर उसका पैर पकड़ लिया। इस प्रकार अकस्मात विपत्ति में पड़कर उस बलवान गजेन्द्र ने अपनी शक्ति ने अनुसार, अपने आप को छुड़ाने की बहुत चेष्टा की परन्तु वह छुड़ा नहीं पाया! ग्राह बड़े ही वेग से गजेन्द्र को अपने ओर खीच रहा था। यह सब देखकर गजेन्द्र के साथ आयें हुए अन्य हथनियां, हाथी तथा बच्चे बहुत घबरा गए तथा चिग्घाड़ने लगे, बहुतों ने उसे सहायता पहुँचाकर जल से बहार निकल लेना चाहा, परन्तु सभी असफल रहें। गजेन्द्र तथा ग्राह अपनी-अपनी पूरी शक्ति लगते हुए एक दुसरे से भिड़े हुए थे। इस प्रकार लड़ते हुए १००० वर्ष बीत गया तथा दोनों ही जीवित रहे; यह घटना देखकर देवता भी आश्चर्य चकित हो गए। अन्तः में बार-बार जल में खिंचे जाने के कारण गजेन्द्र का शरीर शिथिल पड़ गया था, गजेन्द्र की शक्ति क्षीण हो गई थीं और वहां ग्राह तो जलचर ही ठहरा। ग्राह बड़े उत्साह तथा बल लगाकर गजेन्द्र को अपने और खीचने लगा।
इस प्रकार देहभिमानी गजेन्द्र अकस्मात् ही प्राण संकट में पड़ गया, जिससे वह निवृत होने में पूरी तरह विफल रहा। बहुत समय तक वह अपनी रक्षा हेतु विचार-विमर्श करने लगा तथा अंत में वह इस निष्कर्ष में पहुँचा कि! यह ग्राह विधाता का ही जाल हैं, जिसमें फंसकर मैं आतुर हो रहा हूँ। आब मेरे साथी भी मेरी रक्षा नहीं कर सकते हैं, वे सभी असमर्थ हो गए हैं! आब मैं सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र श्री भगवान की शरण लेता हूँ। काल बड़ा ही बलवान हैं, अत्यंत भयभीत होकर भगवान की शरण में चला जाता हैं, अवश्य ही प्रभु उसे बचा लेते हैं! मैं उन्ही की शरण ग्रहण करता हूँ। अपनी बुद्धि द्वारा ऐसा निश्चय कर, गजेन्द्र ने अपने मन को एकाग्र किया तथा पूर्व जन्म में सीखे हुए श्रेष्ठ स्त्रोतों से भगवान श्री हरी की स्तुति करने लगा, वह मन तथा वचन से उस समय सर्वशक्तिमान एक मधुर्यनिधि भगवान श्री हरी का शरणागत हुआ। गजेन्द्र बिना किसी भेदभाव के निर्विशेष रूप से भगवान् की स्तुति की थी, जिस कारण ब्रह्मा आदि अन्य देवता उसकी सहायता हेतु नहीं आयें; परन्तु सर्वात्मा होने के परिणामस्वरूप भगवान श्री हरी शीघ्रता से उस स्थान पर आयें जहाँ पर गजेन्द्र महान संकट में पड़ा हुआ था। सरोवर में ग्राह द्वारा पकड़ा हुआ गजेन्द्र बहुत ही व्याकुल हो रहा था; उसने जब देखा की आकाश मार्ग से अपने वाहन गरुड़ पर सवार होकर भगवान श्री हरी आ रहें हैं, उसने अपनी सूड़ से एक सुन्दर कमल का पुष्प उठाया और उन्हें नमस्कार किया। भगवान ने देखा की गजेन्द्र अत्यधिक पीड़ित हैं, वह अपने वाहन गरुड़ से सरोवर में कूद गए तथा गजेन्द्र के संग ग्राह को लेकर सरोवर से बहार आयें। तत्पश्चात, भगवान श्री हरी ने अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह का मुँह चिर दिया तथा गजेन्द्र को छुडा लिया।
उस समय ब्रह्मा, शिव आदि देवता, ऋषि-गन्धर्व इत्यादि भगवान श्री हरी के कर्म की प्रशंसा करने लगे तथा उनपर फूलों की वर्षा करने लगे, सिद्ध-गण भगवान की स्तुति करने लगे। इधर वह ग्राह तक्षण ही आश्चर्यमय शरीर से युक्त हो गया, यह ग्राह पहले हूहू नाम का श्रेष्ठ गन्धर्व था तथा देवलोक के शाप से उसे यह गति प्राप्त हुई थी। भगवान श्री हरी के स्पर्श से उसके सारे पाप-ताप नष्ट हो गए थे, तदनंतर उसने भगवान की प्ररिक्रमा की तथा अपने दिव्य लोक को चला गया। गजेन्द्र भी भगवान के स्पर्श से अज्ञान के अन्धकार से मुक्त हो गया, उसे साक्षात् भगवान का ही रूप प्राप्त हो गया। गजेन्द्र पूर्व जन्म में द्रविड़ देश का पांड्यवंशी राजा था तथा उसका नाम इंद्रद्युम्र था; एक समय वह राजपाट त्याग कर, तपस्वी का भेष बना कर मलय-पर्वत पर रहने लगा था।
एक दिन व स्थान के पश्चात पूजा के समय मन को एकाग्र करके सर्व-शक्तिमान भगवान की आराधना कर रहें थें, उस समय दैवीय वश से अगस्त मुनि अपने शिष्य मंडल के साथ वहाँ पधारे। उन्होंने देखा की राजा इंद्रद्युम्र प्रजापालन तथा गृहस्थोचित अतिथि सेवा आदि धर्म का त्याग कर, तपस्वी बन एकांत में चुप चाप बैठा हैं, इस पर वे राजा पर क्रुद्ध हो गए। उन्होंने राजा को शाप दिया! इस राजा ने गुरुजनों से शिक्षा ग्रहण नहीं की हैं तथा अभिमान वश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहा हैं। ब्राह्मणों का अपमान करने वाला यह हाथी के समान जड़बुद्धि हैं, कारणवश इसे हाथी के समान अज्ञानमयी हाथी की योनी प्राप्त हो। इस प्रकार शाप देकर अगस्त मुनि वह से चले गए, राजर्षि इंद्रद्युम्र ने यही उनका प्रारब्ध हैं समझ कर संतोष किया। इसके पश्चात उन्हें हाथी की योनी प्राप्त हुई, परन्तु भगवान के आराधना करने के परिणामस्वरूप उन्हें भगवान की स्मृति बनी रही। भगवान श्री हरी ने इस प्रकार गजेन्द्र का उद्धार करके उसे अपना पार्षद बना लिया तथा उन्हें साथ लेकर अपने अलौकिक धाम को चले गए।
हिन्दू धर्म से संबंधित नाना तथ्यों-कथाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर, प्रचार-प्रसार करना।