पितामह ब्रह्मा जी की पत्नी, महा-सरस्वती! नव निर्माण एवं ज्ञान स्वरूपा शक्ति।

महा-सरस्वती! ज्ञान-बुद्धि, सृजन, संगीत तथा ललित कला इत्यादि रचनात्मक कार्यों की अधिष्ठात्री देवी।

ज्ञान एवं बुद्धि, संगीत, ललित कला, वाणी, रचनात्मक कार्य, संस्कृति की अधिष्ठात्री देवी महा-सरस्वती हैं। महा-काली, महा-सरस्वती तथा महा लक्ष्मी, मिल कर महा-देवियों के समूह का निर्माण करती हैं। देवी महा-सरस्वती स्वरूप में ज्ञान, विद्या, रचना से सम्बद्ध हैं, जगत सृष्टि कर्ता प्रजापति या पितामह ब्रह्मा की शक्ति या अर्धाग्ङिनी हैं; राजसिक या रजो गुण संपन्न हैं। चराचर दृष्टि-गोचर ब्रह्माण्ड इन्हीं दोनों दंपति द्वारा ही निर्मित हैं, देवी महा-सरस्वती, ब्रह्मा जी की प्रेरणा तथा शक्ति हैं, देवी सरस्वती ज्ञान हैं तो प्रजापति ब्रह्मा रचनाकार।
सरस्वती शब्द तीन शब्दों से निर्मित हैं, प्रथम 'सर' जिसका अर्थ सार, 'स्व' स्वयं तथा 'ती' जिसका अर्थ सम्पन्न हैं; जिसका अभिप्राय हैं जो स्वयं ही सम्पूर्ण सम्पन्न हो। ब्रह्माण्ड के निर्माण में सहायता हेतु, ब्रह्मा जी ने देवी सरस्वती को अपने ही शरीर से उत्पन्न किया था। इन्हीं के ज्ञान से प्रेरित हो ब्रह्मा जी ने समस्त जीवित तथा अजीवित तत्वों का निर्माण किया। ब्रह्मा जी की देवी सरस्वती के अतिरिक्त दो पत्नियां और भी हैं प्रथम सावित्री तथा द्वितीय गायत्री; तथा सभी रचना-ज्ञान से सम्बद्ध कार्यों से सम्बंधित हैं। देवी सरस्वती का एक नाम ब्राह्मणी भी हैं, जो किसी ब्राह्मण की पत्नी होना दर्शाता हैं।

वेद माता, ब्राह्मणी के नाम से त्रि-भुवन में विख्यात, विद्यार्थी वर्ग कि अधिष्ठात्री देवी सरस्वती।

देवी सरस्वती, वेद माता के नाम से विख्यात हैं, चारों वेद इन्हीं के स्वरूप माने जाते हैं; उन्हीं के प्रेरणा से उन्होंने वेदों की रचना की हैं। देवी सरस्वती वाक शक्ति या वचन से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती हैं, वाक शक्ति या वाक् सिद्धि प्रदान करती हैं।
श्वेत रंग, देवी सरस्वती को अत्यंत प्रिय हैं तथा इसी वर्ण से सम्बंधित द्रव्यों, तत्वों का वे प्रयोग करती हैं; हंस, श्वेत कमल, जप-माला, स्फटिक तथा वीणा इन्हें विशेष प्रिय हैं। हंस देवी का वाहन हैं, ब्रह्मा जी तथा देवी सरस्वती दोनों पूर्णतः श्वेत वर्ण से अत्यंत घनिष्ठ सम्बंधित हैं; देवी योग तथा ध्यान विद्या की भी ज्ञाता हैं। वचन द्वारा भाव प्रकाश करना या सम्मोहित करना, प्रेम सम्बंधित निवेदन भी देवी की कृपा से सफल होते हैं।
सामान्यतः देवी की साधना विद्यार्थी वर्ग द्वारा की जाती हैं। ज्ञान तथा विद्या के अधिष्ठात्री होने के परिणामस्वरूप, विद्यालयों, महा विद्यालयों, शिक्षण संस्थानों में देवी की मूर्ति स्थापित की जाती हैं। बसंत पंचमी या माघ शुक्ल पंचमी तिथि, देवी सरस्वती को समर्पित हैं, इस दिन देवी सामान्यतः विद्यार्थी वर्ग द्वारा घर-घर में पूजिता हैं। अन्य शक्ति साधक इस दिन ज्ञान-बुद्धि प्राप्ति हेतु देवी की विशेष पूजा अर्चना करते हैं।

रजो-गुण की अधिष्ठात्री महादेवी, महा-सरस्वती

महा-सरस्वती

नदियों तथा योग साधना की देवी सरस्वती, नील सरस्वती।

ऋग वेद के अनुसार, देवी सरस्वती नदियों की अधिष्ठात्री देवी हैं तथा नदियों की देवी नाम से जानी जाती हैं। इन्हीं के नाम से सरस्वती नदी का अस्तित्व हैं, जो हिन्दुओं में अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा पवित्र मानी जाती हैं; गंगा, नर्मदा, यमुना आदि नदियों के सामान ही पवित्र तथा पाप हारिणी मानी जाती हैं। वास्तविक रूप में देखा जाये तो सरस्वती नदी का प्रवाह विस्तृत नहीं हैं, बहुत ही सामान्य दूरी तय कर लुप्त हो जाती हैं। बद्री-क्षेत्र स्थित व्यास गुफा जहा महर्षि वेद व्यास जी ने समस्त वेदों का पुनर्निर्माण किया था; गुफा के समीप ही सरस्वती नदी का उद्गम हैं। थोड़ी ही दूर पर मन्दाकिनी नदी कि ओर जाते हुए सरस्वती नदी, भूमि में विलुप्त हो जाती हैं। ऐसा माना जाता हैं कि! सरस्वती नदी वहाँ से लुप्त हो, त्रिवेणी संगम में गंगा तथा यमुना नदी के संगम से जा मिलती है। गंगा, यमुना तथा सरस्वती यह तीनों पवित्र नदियाँ मिल कर संगम का निर्माण करती हैं तथा त्रिवेणी संगम के नाम से प्रसिद्ध हैं, जो इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हैं।
इन तीनो नदियों का सम्बन्ध योग साधना से भी हैं; कुण्डलिनी शक्ति के प्रवाह हेतु ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी! इन्हीं नदियों का प्रतीक हैं। गंगा नदी चन्द्र शक्ति का प्रतीक हैं तथा ईड़ा, नाड़ी से सम्बंधित हैं, सरस्वती नदी, ज्ञान शक्ति का प्रतीक हैं तथा सुषुम्ना नाड़ी से सम्बंधित हैं तथा यमुना नदी, सूर्य शक्ति का प्रतीक हैं तथा पिंगला नाड़ी से सम्बंधित हैं। सुषुम्ना नाड़ी ही कुण्डलिनी शक्ति को ब्रह्मरंध की ओर प्रवाहित करती हैं, कुण्डलिनी शक्ति एक चक्र से दूसरे चक्र में प्रवाह करती हैं। मानव देह में इन तीन नाड़ियों की स्थिति रीढ़ की हड्डी के साथ स्थित हैं, मध्य में सुषुम्ना, बाई ओर ईड़ा तथा दाहिने ओर पिंगला, विद्यमान हैं।

देवी सरस्वती, अपने एक अन्य नाम नील सरस्वती से त्रि-भुवन में विख्यात हैं; इस रूप में देवी का शारीरिक वर्ण गहरे नील रंग से युक्त हैं। जो तारा समूह कि देवियों में से एक हैं तथा ब्रह्माण्ड में व्याप्त समस्त एवं सम्पूर्ण ज्ञान से सम्पन्न, समृद्ध हैं। देवी अपने ज्ञान से ज्वलंत चिता पर जल रहे शव को शिव में परिवर्तित करने में सक्षम हैं या कहने तो जन्म तथा मृत्यु रूपी चक्र से मुक्त कर, देवी मोक्ष प्रदान करती हैं।

वेदांत के अनुसार! देवी सरस्वती ब्राह्मण की शक्ति हैं तथा प्रकृति रूपा आद्या शक्ति कि राजसिक अवतार या शक्ति हैं। आद्या शक्ति प्रकृति ही, महा-काली, महा-लक्ष्मी तथा महा-सरस्वती स्वरूपी अवतारों में त्रि-देवियों या महा-देवियों के नाम से विख्यात हैं।

सरस्वती जी का जन्म ब्रह्मा जी के मुख से हुआ था, परिणामस्वरूप देवी वाणी तथा विद्या की अधिष्ठात्री देवी हैं, स्वयं ब्रह्मा जी इन से मोहित हो गए थे, तथा इन से विवाह कर लिया। भारत वर्ष से बाहर; जापान, म्यांमार, कंबोडिया, थाईलैंड तथा इंडोनेसिया में भी होती हैं।

देवी सरस्वती की भौतिक स्वरूप वर्णन।

एक सुन्दर तथा मनोहर नारी के रूप में देवी सरस्वती प्रतीत होती हैं; देवी मंद-मंद मुसकुरा रही हैं तथा रेशमी श्वेत साड़ी पहने हुए हैं। देवी नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं तथा अनेक अलंकार या आभूषण धारण करती हैं। देवी सरस्वती श्वेत कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं, परन्तु कही-कही पर वे मोर या हंस पर भी आरूढ़ होती हैं, देवी का वाहन हंस हैं। देवी चार भुजाओं से युक्त हैं तथा अपने भुजाओं में वेद पुस्तक, जप माला, वीणा एवं कमंडल धारण करती हैं। देवी के हाथ में धारण की हुई वीणा, ललित कला तथा संगीत विद्या के प्रतीक हैं; वेद पुस्तक, सार्वभौमिक, दिव्य, अनन्त तथा सत्य ज्ञान के साथ साधना से सम्बंधित हैं; जप माला, योग की प्राकृतिक शक्ति और आंतरिक आध्यात्मिक ज्ञान और कमंडल, सम्पूर्ण ज्ञान रूपी अमृत से सम्बंधित हैं। महा-सरस्वती स्वरूप में देवी की आठ भुजाओं से युक्त हैं तथा वे अपनी भुजाओं में वीणा, घंटी, त्रिशूल, शंख, धनुष, वाण, चक्र, गदा धारण करती हैं।

देवी सरस्वती तथा गायत्री के प्रादुर्भाव से सम्बद्ध कथा।

ब्रह्मा जी ने अपनी सहायतार्थ हेतु अपनी वाणी से देवी सरस्वती को उत्पन्न किया था, परिणामस्वरूप देवी वचन की अधिष्ठात्री मानी गई हैं।
एक बार विष्णु तथा ब्रह्मा जी में विवाद हो गया कि! कौन अधिक महान या बड़ा हैं। तदनंतर, भगवान शिव की विकट ज्योतिर्मय मूर्ति दोनों के मध्य प्रकट हुई, साथ ही आकाशवाणी हुई! जो इस मूर्ति के अंत को प्राप्त कर लेगा वो ही महान या श्रेष्ठ होगा। भगवान विष्णु नीचे की ओर मूर्ति का अंत देखने गए और शीघ्र ही लौट आयें; परन्तु ब्रह्मा जी मूर्ति के ऊपर की ओर गए और बहुत दूर चले गए, परन्तु उन्हें भी उस विशाल मूर्ति का अंत नहीं मिला। ब्रह्मा जी ने वापस आते समय सोचा कि! अपने मुंह से झूठ नहीं बोलना चाहिए, उन्होंने इस हेतु अपना पाँचवाँ मुंह बनाया, जो की गधे का मुंह के समान था तथा उसी गधे के पाँचवें मुंह से उन्होंने भगवान विष्णु को कह दिया कि! वे मूर्ति की सीमा या अंत देख आये हैं। तत्काल ही शिव तथा भगवान विष्णु का पृथक रूप एक हो गया तथा उस स्थान में ब्रह्मा जी की झूठी वाणी! सरस्वती नमक नदी के रूप में प्रकट हुई, अंततः सरस्वती नदी, गंगा नदी में जा मिली, जिससे उनके झूठ से उत्पन्न होने का दोष मिट गया।
ब्रह्मा जी जी की प्रथम पत्नी सावित्री जी को उन्होंने सृष्टि उत्पन्न करने से पूर्व ही प्रकट किया, जी उनकी प्रथम शक्ति थीं तथा गायत्री माता को गौ माता सुरभि से उत्पन्न किया था। ब्रह्मा जी तीन पत्नी सावित्री, सरस्वती तथा गायत्री हैं, जिनमें से सावित्री जी ने उनका त्याग कर दिया था।

सरस्वती शक्ति अवतार धारण कर, शुम्भ-निशुम्भ तथा उस की बड़ी भरी सेना का संहार।

पूर्व काल की बात हैं, शुम्भ तथा निशुम्भ नाम के दो भाई बहुत बलशाली प्रतापी दैत्य थे। अपने अपार बल के मद-अभिमान से चूर हो दोनों भाइयों ने त्रिलोक के राज्य पर आक्रमण किया तथा देवताओं को परास्त कर उन्हें अमरावती पुरी से निकाल दिया। तदनंतर, समस्त देवताओं ने हिमालय पर जा शरण लिया एवं सर्व मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी का स्तवन किया।

देवताओं द्वारा स्तुति करने पर गौरी देवी या पार्वती अत्यंत प्रसन्न हुई, उन्होंने देवताओं से पूछा! "आप लोग किसकी स्तुति कर रहे हैं?" तक्षण ही वहां पर देखते ही देखते शिवा देवी के शरीर से एक कुमारी कन्या का प्राकट्य हुआ तथा वे कहने लगी! "यह सभी आप की ही स्तुति कर रहें हैं! शुम्भ तथा निशुम्भ नमक दैत्यों से प्रताड़ित होने के कारण, अपनी रक्षा हेतु आपकी प्रार्थना कर रहे हैं। उस कन्या का प्रादुर्भाव शिव पत्नी शिवा से हुआ एवं वे देवी कौशिकी नाम से विख्यात हुई। देवी कौशिकी ही साक्षात् शुम्भ-निशुम्भ का वध करने वाली सरस्वती हैं तथा उन्हें ही उग्र तारा या महोग्र तारा कहा गया हैं। देवी कौशिकी ने देवताओं से कहा! "तुम लोग निर्भय हो जाओ! मैं स्वतंत्र हूँ! बिना किसी सहायता मैं तुम लोगों का कार्य सिद्ध कर दूंगी तथा तक्षण ही वहाँ से अंतर ध्यान हो गई।"

एक दिन शुम्भ तथा निशुम्भ के सेवकों ने देवी के स्वरूप को देखा, उनका मनोहर रूप देखकर वे अपना सुध बुध खो बैठे। यह सब जाकर दोनों ने अपने स्वामी को कहा! "एक अपूर्व सुंदरी हिमालय पर रहती हैं तथा सिंह पर सवारी करती हैं।" यह सुनकर शुम्भ ने अपने दूत को देवी के उन्हें लाने हेतु भेजा। शुम्भ ने मुझे तुम्हारे पास दूत बना कर भेजा हैं, इसी कारण में यहाँ आया हूँ। सुरेश्वरी! शुम्भ ने जो सन्देश दिया हैं उसे सुनो! मैंने युद्ध में इंद्र आदि देवताओं को पराजित कर, उनसे समस्त रत्नों का हरण कर लिया हैं; यज्ञ में दिया हुआ देव भाग मैं स्वयं ही भोगता हूँ। तुम स्त्रियों में रत्न हो तथा सब रत्नों की शिरोमणि हो, तुम कामजनित रस के साथ मुझे या मेरे भाई को अंगीकार करो।" यह सुनकर कौशिकी देवी ने कहा! "तुम्हारा कथन असत्य नहीं हैं, परन्तु मैंने पूर्व में एक प्रण लिया हैं उसे सुनो! जो मेरा घमंड चूर कर मुझे युद्ध में जीत लेगा, उसी को में अपने स्वामी रूप में वरण कर सकती हूँ, यह मेरा दृढ़ प्रण हैं। तुम शुम्भ तथा निशुम्भ को मेरी यह प्रतिज्ञा बता दो, तदनंतर इस विषय में वह जैसा उचित समझें करें।"

देवी द्वारा इस प्रकार उत्तर पाकर, दूत सुग्रीव वापस शुम्भ के पास चला आया तथा विस्तार पूर्वक सारी बातों से अपने स्वामी को अवगत करवाया। दूत की बातें सुनकर शुम्भ कुपित हो उठा तथा अपने श्रेष्ठ सेनापति धूम्राक्ष को हिमालय पर जाकर, देवी जिस भी अवस्था पर हो! ले आने का निर्देश दिया, फिर उसे भले ही देवी के साथ युद्ध ही क्यों न करना पड़े। दैत्य धूम्रलोचन हिमालय पर जाकर, भगवती भुवनेश्वरी (कौशिकी) से कहने लगा! "मेरे स्वामी के पास चलो नहीं तो में तुम्हें मार डालूँगा।" देवी ने कहा! "युद्ध के बिना मेरा शुम्भ के पास जाना असंभव हैं", यह सुनकर धूम्राक्ष, देवी को पकड़ने के लिये गया, परन्तु देवी ने 'हूँ' के उच्चारण मात्र से उसे भस्म कर दिया, देवी का यह रूप धूमावती नाम से भी प्रसिद्ध हैं। यह समाचार पाकर शुम्भ बड़ा ही कुपित हुआ तथा चण्ड, मुंड तथा रक्तबीज नामक असुरों को देवी के पास भेजा। दानव गणो ने, देवी के सनमुख जाकर शीघ्र ही दैत्य-पति शुम्भ को पति बनाने का आदेश दिया, अन्यथा गणो सहित उन्हें मार डालने का भय दिखाया।

देवी ने कहा! "मैं सर्वदा भगवान शिव की सूक्ष्म प्रकृति हूँ, फिर किसी दूसरे की पत्नी कैसे बन सकती हूँ? दैत्यों! या तो तुम अपने-अपने स्थानों को लौट जाओ अन्यथा मेरे साथ युद्ध करो।" देवी के यह वचन सुनकर, दैत्यों ने बड़ा क्रोध किया तथा बोलने लगे! "अब तक हम तुम्हें अबला समझ कर नहीं मार रहे थे, अब युद्ध करो।" युद्ध में देवी ने तीनों वीर दैत्यों को मार डाला तथा अपना उत्तम लोक प्रदान किया। इस प्रकार शुम्भ को जब यह समाचार प्राप्त हुआ, उसने युद्ध के निमित्त दुर्जय गणो को भेजा। कालक, कालकेय, मौर्य, दौर्ह्रद तथा अन्य असुरगण भरी सेना को साथ ले कर, दोनों भाई शुम्भ तथा निशुम्भ रथ पर आरूढ़ हो देवी से युद्ध करने के लिये निकले। हिमालय पर्वत पर खड़ी हुई रमणीय आभूषणों तथा अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित देवी शिवा को देखकर निशुम्भ मोहित हो गया तथा सरस वाणी में बोला! "देवी, तुम जैसे सुंदरी रमणी के शरीर पर मालती के फूल का एक दल भी डाल दिया जाये तो वह व्यथा उत्पन्न कर देती हैं। ऐसे मनोहर शरीर से तुम विकराल युद्ध का विस्तार कैसे कर रही हो? तब चंडिका देवी ने उसे या तो युद्ध करने या वापस चले जाने की सलाह दी। इतना सुनकर सभी महारथी देवी से युद्ध करने लगे, नाना प्रकार से अस्त्र-शस्त्र युद्ध भूमि में चलने लगे। देवी कालिका तथा उनकी सहचरियों ने दैत्यों को मरना शुरू कर दिया तथा देवी के वाहन सिंह ने भी कई दैत्यों का भक्षण कर लिया। दैत्यों के मारे जाने के कारण, रण-भूमि में रक्त की धार, नदिया बहने लगी। घोर युद्ध छिड़ जाने पर, दैत्यों का महान संहार होने लगा, देवी ने विष में बुझे हुए तीखे बाणों से निशुम्भ को मार कर धराशायी कर दिया।

अपने प्रिय भाई निशुम्भ के मारे जाने पर शुम्भ क्रोध से भर गया तथा अष्ट भुजाओं से युक्त हो देवी के पास आया। शुम्भ ने शंख बजाने तथा धनुष की टंकार से आकाश-मंडल गुंज उठा तथा देवी के अटृहास से समस्त असुर संत्रस्त हो गए, देवी ने शुम्भ से कहा! "तुम युद्ध में स्थिरता पूर्वक खड़े रहो।" शुम्भ ने देवी की ओर शिखा से अग्नि ज्वाला निकलती हुई बड़ी भरी शक्ति छोड़ी, देवी एक-एक उल्का से शुम्भ की शक्ति को भस्म कर दिया, दोनों के द्वारा चलाये हुए बाणों को एक दूसरे ने काट दिया। तत्पश्चात, चंडिका ने त्रिशूल से शुम्भ पर प्रहार किया, जिससे वह पृथ्वी पर गिर गया। शूल के आघात से होने वाली व्यथा को सहकर, शुम्भ ने १० हजार भजायें धारण कर ली तथा चक्र द्वारा देवी के वाहन सिंह तथा देवी पर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया; देवी ने खेल-खेल में उन चक्रों को विदीर्ण कर दिया। तदनंतर, देवी ने त्रिशूल के प्रहार से असुर शुम्भ को मार गिराया।

शुम्भ तथा निशुम्भ का वध करने वाली शक्ति सरस्वती नाम की शक्ति हैं।

ब्रह्मा जी (सरस्वती देवी के भैरव या पति), भगवान विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होने वाले, चराचर जगत या सम्पूर्ण श्रृष्टि, तीनों लोक में समस्त जीवित तथा अजीवित तत्वों के रचयिता।

ब्रह्मा जी

रचना या सृजन के अधिष्ठात्री देव रचयिता ब्रह्मा जी, नव सृजन से सम्बद्ध राजसिक गुण, ज्ञान तथा बुद्धि से युक्त सावित्री, सरस्वती और गायत्री देवी के पति रूप में विख्यात हैं। ब्रह्मा जी का प्रादुर्भाव भगवान विष्णु के नाभि से उत्सर्ग पद्म (कमल) पुष्प पर हुआ तथा वे पद्म के आसन पर विराजमान रहते हैं; तदनंतर ब्रह्मा जी से सर्वांग सुंदरी तरुणी स्त्री 'सावित्री' उत्पन्न हुई तथा इन्हीं दोनों से चारों वेद उत्पन्न हुए। वेदों द्वारा ही सर्व प्रकार के ज्ञान का उद्भव हुआ, सम्पूर्ण ब्रह्मांड या तीनो लोक (स्वर्ग, पाताल तथा पृथ्वी) के समस्त जीवित तथा निर्जीव तत्व या पंच-भौतिक श्रृष्टि का निर्माण या सृजन ब्रह्मा जी तथा उनकी की शक्ति सावित्री द्वारा हुआ हैं। इनके द्वारा दो प्रकार की सृष्टि उत्पन्न हुई! एक चैतन्य और दूसरी जड़; चैतन्य में समस्त जीवित प्राणी जिनमें इच्छा, अनुभूति, अहंभावना का समावेश हैं तथा प्राण रूप चैतन्य तत्व हैं तथा जड़ में ठोस, द्रव्य तथा वायु विद्यमान हैं जो विचारहीन तथा प्राणहीन हैं।
ब्रह्मा जी पाँच मस्तको से युक्त थे, इनका एक मस्तक भगवान शिव द्वारा कट गया था। इसी घटना के कारण दक्ष जो प्रजापति तथा ब्रह्मा जी के पुत्र थे, शिव जी को ब्रह्म हत्या का दोषी मानते थें तथा उनसे घृणा तथा द्वेष करते थे।
इस चराचर जगत में सभी इन्हीं ब्रह्मा जी के संतान हैं, देवी रति तथा काम देव इनके अंतिम मानस संतान थें; इनके उत्पत्ति के पश्चात संतान उत्पत्ति या वृद्धि का दाईत्व इन दोनों दम्पति को प्रदान किया गया। सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने मानस श्रृष्टि की रचना की, उन्हें अपने मन तथा शरीर के नाना अंगों से नाना पुत्रों तथा एक पुत्री को प्रकट किया। प्रथम सात ऋषिओं को सप्तऋषी मंडल में स्थान मिला, १. मारीच (मन), २. अत्रि (नेत्र), ३. अंगिरा (मुख), ४. पुलह (नाभि), ५. पुलस्त (कान), ६. क्रतु (हाथ), ७. वसिष्ठ (प्राण), ८. भृगु (त्वचा), ९. चित्रगुप्त (ध्यान) १०. नारद (गोंद) ११. दक्ष (अंगुष्ठ), १२. कन्दर्भ (छाया), इच्छा से १३. सनक, १४. सनंदन, १५. सनातन, १६. सनतकुमार जो अभी तक पांच वर्ष के बालक के रूप में विद्यमान हैं।

मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष तथा कदर्म प्रजापतियों के रूप में जाने जाते हैं। सनक, सनंदन, सनातन तथा सनतकुमार, सर्वदा ही ब्रह्म तत्व को जानने हेतु सर्वदा मग्न रहते थे, वे प्रजा विस्तार हेतु निरासक्त थें; जिस कारण ब्रह्मा जी को बड़ा ही क्रोध हुआ, उनके क्रोध ने उनके मस्तक से एक पुरुष-स्त्री जोड़ा "पुरुष! मनु तथा कन्या! सतरूपा" को जन्म दिया। इस चराचर जगत के सम्पूर्ण जीव इन्हीं दोनों की संतान हैं, इनसे देहधारी प्रियव्रत तथा उत्तानपाद नामक पुत्र और प्रसूति, देवहूति तथा आकूति नामक पुत्रियों का जन्म हुआ। प्राजापति दक्ष का विवाह प्रसूति से हुआ, इन दोनों दम्पति से जन्म धारण करने वाली कन्याओं का विवाह ब्रह्मा जी के नाना मानस पुत्रों के संग हुआ। स्वाहा नाम की कन्या का विवाह अग्नि, स्वधा पित्रगण, सती जो साक्षात आद्या शक्ति सर्व-स्वरूपा प्रकृति की अवतार थी भगवान शिव के साथ विवाह हुआ; श्रद्धा, मैत्री, दया, शांति, पुष्टि, तुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, द्वी तथा मूर्ति नमक १३ कन्याओ का विवाह धर्म के साथ हुआ। ख्याति का विवाह भृगु से, सम्भूति का विवाह मरीचि से, स्मृति का विवाह अंगिरा से, प्रीति का विवाह पुलत्स्य से, क्षमा का विवाह पुलह से, सन्नति का विवाह क्रतु से, अनसुइया का विवाह अत्रि से, ऊर्जा का विवाह वसिष्ठ से हुआ। इन्हीं से पृथ्वी के समस्त जीव देवताओं, दैत्यों, मनुष्यों का जन्म हुआ, समस्त देहधारीयों की उत्पत्ति कश्यप मुनि से ही हुई हैं।

दक्ष के मानस पुत्र मरीचि से उनके मानस पुत्र महर्षि कश्यप हुए तथा दक्ष के १७ कन्याओं का विवाह इन्हीं कश्यप ऋषि के संग हुआ; इन्हीं से समत देव, पशु-पक्षी, दैत्य तथा देव उत्पन्न हुए।

१. अदिति से देवता, २. दिति से दैत्य, ३. काष्ठा से अश्व इत्यादि, ४. अनिष्ठा से गन्धर्व, ५. सुरसा से राक्षस, ६. इला से वृक्ष, ७. मुनि से अप्सरागण, ८. क्रोधवशा से सर्प, ९. सुरभि से गौ और महिष, १०. सरमा से हिंसक पशु, ११. ताम्रा से सियार, गिद्ध इत्यादि, १२. तिमि से जल के जीव, १३. विनता से गरुड़ और अरुण, १४. कद्रु से नाग-सर्प, १५. पतंगी से पतंग, १६. यामिनी से शलभ, १७. दनु से दानव।

सभी जीव, देवता-मनुष्य-दानव ब्रह्मा जी के पर-पौत्र हैं, अतः वे पितामह नाम से तीनो लोक विख्यात हैं तथा परम-पिता नाम से भी जाने जाते हैं। तंत्रों या आगम ग्रंथो में वैखानस संप्रदाय ब्रह्मा जी की ही आराधना करता हैं, इसी से प्रेरित होकर असुर या दैत्य ब्रह्मा जी की तपस्या कर विशेष वर प्राप्त कर लेते थे। परन्तु ब्रह्मा जी धर्म के रक्षक थे, तथापि उन्होंने सर्वदा ही धर्म का अनुसरण किया।

सावित्री जी द्वारा ब्रह्मा जी का त्याग तथा केवल पुष्कर में ही उनकी पूजा-मंदिर होने का श्राप; गायात्री जी की गौ माता से उत्पत्ति तथा ब्रह्मा जी से विवाह।

सावित्री जी, पितामह ब्रह्मा की प्रथम पत्नी हैं; एक बार ब्रह्मा जी ने ब्रह्माण्ड ने निर्माण हेतु एक यज्ञ का आयोजन किया। हिन्दू सनातन धर्म के अनुसार, गृहस्थों के लिये समस्त प्रकार के देव या मांगलिक कार्यों की पूर्ति हेतु पत्नी का संग रहना आवश्यक हैं। सावित्री जी को यज्ञ अनुष्ठान स्थल पर बुलवाने हेतु, ब्रह्मा जी ने अपने मानस पुत्र नारद को भेजा। परन्तु, नारद जी अपने आचरण अनुसार ब्रह्माण्ड में इधर उधर घूम कर अंततः बहुत विलम्ब से सावित्री जी के पास पहुँचें; जिस कारण उन्हें यज्ञ स्थल पहुँचने में देरी हो गई।
यहा यज्ञ स्थल पर ब्रह्मा जी रुष्ट हो गए तथा नंदिनी गाय द्वारा एक ग्वालिन-देवी गायत्री को उत्पन्न किया तथा उनसे विवाह कर यज्ञ अनुष्ठान सम्पूर्ण किया। तदनंतर, जब देवी सावित्री यज्ञ स्थल में पहुँची तो उन्होंने देखा की ब्रह्मा जी ने नूतन विवाह कर लिया, इस पर वे रुष्ट हो गई। क्रोध-वश उन्होंने ब्रह्मा जी को श्राप दे दिया कि! "भविष्य में उनकी पूजा केवल उसी यज्ञ स्थल में ही होगी, अन्यत्र कहीं नहीं;" वह यज्ञ पुष्कर नमक स्थान में हो रहा था जो राजस्थान में हैं, अज भी ब्रह्मा जी की पूजा केवल पुष्कर में ही होती हैं, उनका मंदिर वही पर हैं। यही नहीं, सावित्री जी ने ब्रह्मा जी का त्याग किया, ब्राह्मण वर्ण जिन्होंने गायत्री तथा ब्रह्मा जी का विवाह सम्पन्न करवाया, श्राप दिया कि "उन्हें जितनी भी दक्षिणा क्यों न मिले उनकी क्षुधा कभी शांत नहीं होगी" तथा कल युग में गउओं को मनुष्यों का उछिष्ट या जूठा खाना पड़ेगा। नारद जी को श्राप दिया की उनका कभी विवाह नहीं होगा, अग्निदेव कलि-युग में अपमानित होंगे।


देवी सरस्वती ब्रह्मा जी के साथ

देवी सरस्वती ब्रह्मा जी के साथ

देवी सरस्वती

महा-सरस्वती