साथ ही नव रात्रों के नौ रात्रियों में आदि शक्ति महामाया के निम्न शक्तिओं की साधना की जाती हैं :
प्रथम रात्रि में दक्षिणा या आद्या काली शक्ति की पूजा की जाती हैं, इसी शक्ति स्वरूप में आदि शक्ति देवी ने मधु-कैटभ नामक दैत्यों का वध कर, ब्रह्मा जी की रक्षा की थीं।
द्वितीय रात्रि, महिष नामक असुर का मर्दन कर, तीनों लोकों को दैत्य-राज के अत्याचार से मुक्त कर, महा-लक्ष्मी या महिषासुरमर्दिनी नाम से विख्यात देवी की पूजा की जाती हैं।
तृतीय रात्रि, शुंभ-निशुम्भ नामक दैत्य भ्राताओं के वध करने वाली महा-सरस्वती स्वरूप की साधना की जाती हैं।
चतुर्थ रात्रि, मथुरा पति कंस के कारगर में भगवान कृष्ण के जन्म धारण के साथ ही गोकुल में यशोदा के गर्भ से योगमाया परा शक्ति देवी ने जन्म धारण किया, चतुर्थ रात्रि में इन्हीं योगमाया शक्ति की साधना की जाती हैं।
पंचम रात्रि, वैप्रचिति नामक असुर के परिवार का नाश करने के हेतु आदि शक्ति माता ने रक्तदंतिका नाम से अवतार धारण किया तथा इन असुरों के वध करने के निमित्त रक्त का पान करती रही, पंचम रात्रि में रक्तदंतिका देवी की पूजा की जाती हैं।
षष्ठम रात्रि, शाकंभरी देवी की पूजा की जाती हैं, दुर्गमासुर नामक दैत्य ने ब्रह्मा जी से समस्त वेदों को आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त कर, लुप्त कर दिया, परिणामस्वरूप पृथ्वी में १०० वर्षों तक वर्षा का लोप हो गया। ऋषि-मुनियों तथा ब्राह्मणों द्वारा सहायता हेतु निवेदन करने पर आदि शक्ति, शाकंभरी नाम से, अपने हाथों में नाना प्रकार के शाक-मूल इत्यादि ले कर प्रकट हुई तथा मानवों की रक्षा की।
सप्तम रात्रि, दुर्गा देवी की पूजा साधना की जाती हैं, इसी रूप में आदि शक्ति दुर्गमासुर नामक दैत्य का वध किया था।
अष्टम रात्रि, में देवी भ्रामरी की पूजा की जाती हैं, जब देवताओं के पत्नियों की सतीत्व नष्ट करने हेतु दानव उद्धत हुए, असंख्य भ्रमरों के रूप में प्रकट हो आदि शक्ति ने अरुण नामक तथा अन्य असुरों का वध किया।
नवम रात्रि, अंतिम रात्रि में देवी चामुंडा की पूजा आराधना की जाती हैं, चण्ड तथा मुण्ड नामक दो दैत्य भ्राताओं के वध करने हेतु आदि शक्ति चामुंडा नाम से विख्यात हैं।
एक बार पितामह ब्रह्मा जी से, दुर्गमासुर नाम दैत्य ने समस्त वेदों तथा मंत्रों को वर स्वरूप प्राप्त कर लिया तथा लुप्त कर दिया। मंत्रों तथा वेद के अभाव हेतु, पृथ्वी पर ऋषि-मुनि, ब्राह्मणों द्वारा देवताओं को हवि भाग अर्पण बंद हो गया, परिणामस्वरूप वर्षा का लोप हो गया। वर्षा के अभाव के कारण पृथ्वी में उगने वाले समस्त प्रकार के वनस्पति, शाक, मूल, वनस्पति इत्यादि का भी लोप हो गया तथा ऐसी स्थिति १०० वर्षों तक बनी रही और पृथ्वी पर मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों का अंत होने लगा। घर-घर शवों के ढेर लगने लगे तथा यत्र-तत्र पशुओं, अन्य जीवों के शव दिखने लगे। ब्राह्मणों तथा ऋषि-मुनियों ने हिमालय पर जाकर, वर्षा होने के निमित्त भगवती आदि शक्ति की आराधना स्तुति-साधना की। ब्राह्मणों तथा ऋषि मुनियों की तपस्या से संतुष्ट हो, जगत-जननी माता ने उन्हें दर्शन दिया, जो अपने हाथों में नाना शाक-मूल लेकर प्रकट हुई थीं तथा सभी जीवों को भोजन हेतु शाक-मूल आदि प्रदान की, देवी माँ का यह रूप शाकंभरी नाम से विख्यात हैं। तत्पश्चात, ७ दिनों तक हजारों नेत्रों से युक्त हो रुदन करती रही, जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी जल से पूर्ण हो गई; देवी माँ इस रूप में शताक्षी नाम से विख्यात हुई। तदनंतर, दुर्गमासुर दैत्य का वध कर दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हुई। देवी दुर्गा साक्षात भगवान शिव की पत्नी पार्वती या सती हैं, परा शक्ति महामाया आदि शक्ति हैं, इनके नौ स्वरूप जिन्हें जो 'नव-दुर्गा' नाम से प्रसिद्ध हैं।
वर्ष में चार बार नव-रात्र उत्सव पौष, चैत्र, आषाढ़, अश्विन, प्रतिपद से नवमी तिथि तक मनाया जाता हैं। इन दिनों माता दुर्गा के नौ रूपों की विशेषकर पूजा आराधना की जाती हैं, गुजरात तथा उत्तर भारत में यह उत्सव बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता हैं। भारत के पूर्वी भाग में अश्विन मास या शरद्-ऋतु में दुर्गा पूजा उत्सव बड़े हर्ष-उल्लास के साथ मनाया जाता हैं; महर्षि कात्यायन की तरह ही देवी माँ का आवाहन छष्ठी तिथि में की जाती हैं तथा सप्तमी, अष्टमी, नवमी को विधिवत् पूजा आराधना कर, दशमी तिथि के दिन देवी माँ अपने ससुराल कैलाश चली जाती हैं। साथ ही चैत्र मास में भी देवी की पूजा आराधना की जाती हैं। भारत वर्ष के उत्तरी तथा पश्चिम भाग में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती के साथ, माता के नौ रूपों की साधन की जाती हैं तथा पूर्वी भाग में महिषमर्दिनी दुर्गा की आराधना की जाती हैं। इस अवधि में देवी की किसी भी रूप में साधन-पूजा शुभकर तथा विशेष फलप्रद होती हैं। साधक, दिव्य तथा अलौकिक शक्तिओं का अवलोकन करता पाता हैं। विशेषकर, तंत्र के अनुसरण करने वाले इस अवधि में नाना प्रकार की साधन कर सिद्धि प्राप्त करते हैं।
दुर्गा सप्तशती में व्याप्त, देवी कवच में माता दुर्गा के नौ रूपों की व्याख्या की गयी हैं।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रिति.महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।
शक्ति के तीन रूप माने गया हैं जो त्रिगुणात्मक गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं, परा-शक्ति, अप-राशक्ति तथा अविद्या शक्ति। प्रथम परा-शक्ति ही महामाया-योगनिद्रा हैं, जो पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार के रूप में विद्यमान हैं। परिणामस्वरूप दुर्गा सप्तशती में तीन बार 'नमस्तस्यै' का प्रयोग किया गया हैं, इससे तीनों शक्तिओं को नमन किया जाता हैं।
देवी दुर्गा, अपने प्रथम स्वरूप में शैलपुत्री नाम से विख्यात हैं, पर्वत-राज हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म धारण करने हेतु, इन्हें शैलपुत्री नाम प्राप्त हुआ। शैलपुत्री शब्द दो शब्दों के मेल से बना हैं प्रथम शैल तथा द्वितीय पुत्री, हिमालय राज शैल की पुत्री शैलपुत्री। देवी शैलपुत्री मस्तक पर अर्ध चन्द्र, नाना आभूषण, मुकुट इत्यादि धारण की हुई हैं एवं अत्यंत मनोहर प्रतीत होती हैं। वृषभ पर आरूढ़ देवी का वाहन वृषभ हैं एवं अपने दायें हाथ में त्रिशूल तथा दायें हाथ में पद्म धारण करती हैं। नाना प्रकार के अलंकारों तथा उत्तम वस्त्र धारण कर देवी सुन्दर कन्या प्रतीत होती हैं।
ब्रह्मा जी की प्रार्थना स्वीकार करते हुए, देवी ने ही पूर्व जन्म में ब्रह्म-पुत्र दक्ष के यहाँ सती रूप से जन्म धारण किया था। भगवान शंकर से इनका विवाह हुआ था तथा अपने पिता दक्ष के यहाँ पति निंदा सुनकर इन्होंने योग-अग्नि से आपने शरीर को भस्म कर, देह त्याग कर दिया था। भगवान शिव को ज्ञात होने पर कि! उनकी प्रियतमा शिवा ने अपने पिता के यज्ञ अनुष्ठान में देह त्याग कर दिया हैं; वे घोर क्रुद्ध हुए तथा अपने अनुचरों के साथ उन्होंने दक्ष यज्ञ का विध्वंस कर दिया। तारकासुर नाम के दैत्य ने ब्रह्मा जी की घोर साधना कर उन्हें प्रसन्न किया, तीनों लोकों में अधिकार तथा अमरत्व प्राप्त करने के निमित्त! 'भगवान शिव के पुत्र द्वारा ही उसकी मृत्यु होने' का वर प्राप्त कर, वह प्रायः अमर ही हो गया था। क्योंकि, सती की मृत्यु के पश्चात भगवान शिव, कैलाश में सर्वदा ध्यान या योग साधना मग्न रहते थे एवं वैरागी हो गए थे, उनके पुत्र उत्पन्न होने का कोई प्रश्न ही नहीं था। तारकासुर ने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकल कर, स्वयं देवराज के आसन में आसीन होकर तीनों लोकों में राज करने लगा।
इस घोर समस्या के निवारण हेतु, समस्त देवता तथा ब्रह्मा जी ने एकत्र होकर आदि शक्ति की आराधना की तथा उनसे पुनः देह धारण कर, भगवान शिव की अर्धाग्ङिनी बनने की प्रार्थना की। जगत-जननी माता ने देवताओं तथा ब्रह्मा जी की प्रार्थना सके अनुसार, हिमालय राज के कन्या के रूप में जन्म धारण किया। शैल या हिमालय की कन्या होने के कारण इन्हें शैलपुत्री नाम प्राप्त हुआ हैं आगे जाकर पार्वती नाम से प्रसिद्ध हुई। नव रात्रों की प्रथम तिथि इन्हीं को समर्पित हैं, इस दिन इनकी आराधना की जाती हैं; इनके अन्य नामों में हैमवती भी एक हैं।
देवी दुर्गा की द्वितीय शक्ति ब्रह्मचारिणी नाम से विख्यात हैं, इस स्वरूप में देवी कठोर तप करने वाली हैं, ब्रह्म की चारिणी यानी कठोर ताप का आचरण करने वाली हैं। देवी मस्तक पर अर्ध चन्द्र तथा नाना प्रकार के आभूषण धारण करती हैं तथा अपने दाहिने हाथ में जप माला एवं बाएँ हाथ में कमंडल धारण करती हैं, देवी तीन नेत्रों से युक्त हैं।
हिमालय रज के यहाँ कन्या रूप में उत्पन्न होकर, इन्होंने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने का दृढ़ तथा घोर निश्चय किया। अपने दृढ़ निश्चय अनुसार देवी सर्व-प्रथम प्रतिदिन भगवान शिव के पास जाकर उनकी सेवा करने लगी। परन्तु, देवी की सेवा का भगवान शिव पर कोई असर नहीं पड़ा, वे ध्यान-मग्न ही रहे; देवताओं ने काम देव को उनकी साधना से भंग करने हेतु भेजा, परन्तु काम-वाणों का प्रयोग करने पर भगवान शिव ने काम देव को भस्म कर दिया। यह देख देवी डर गई, भगवान शिव की सेवा त्याग कर वे घोर विलाप करने लगी। वहां भगवान शिव भी अंतर्ध्यान हो गए थे, अंततः नारद जी के उपदेश अनुसार, देवी ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के निमित्त कठोर तप प्रारंभ किया। इनकी घोर तथा दुष्कर तपस्या के कारण ही इन्हें ब्रह्मचारिणी नाम प्राप्त हुआ। ३ हजार वर्षों तक इन्होंने निराहार तथा निर्जला रह कर तपस्या की, प्रथम वर्ष देवी ने केवल फलाहार ही किया, तदनंतर द्वितीय वर्ष से केवल पत्तों का ही आहार किया, तीसरे वर्ष से इन्होंने पत्तों का भी भक्षण त्याग दिया; पत्तों या पर्ण भक्षण त्याग करने के कारण इनका एक नाम अपर्णा भी हैं। इनकी कठिन तपस्या के कारण तीनों लोकों में हाहाकार मच गया था, यहाँ तक की स्वयं ब्रह्मा जी ने उनका अभिवादन करते हुए, आकाशवाणी की थी कि! "आज तक ऐसा कठोर ताप किसी ने नहीं किया हैं, आप की मनोकामना पूर्ण होगी।"
सती देह त्याग पश्चात भगवान शिव ने पूर्णतः वैराग धारण कर लिया तथा हिमालय पर्वत पर जाकर वे योग ध्यान मग्न रहने लगे, अपने प्राकृतिक कार्य तथा संसार से विरत हो गए। वहाँ, तारकासुर भली प्रकार से जनता था कि! "शिव जी तो वैरागी हैं उन के विवाह का कोई प्रश्न ही नहीं हैं तो संतान कैसा? जिसके हाथों उसकी मृत्यु होगी।" अपनी कठोर तपस्या से इन्हीं ब्रह्मचारिणी देवी ने भगवान शिव का ध्यान भंग कर, उन्हें अंततः विवाह हेतु तैयार किया, मनाया। देवी दुर्गा का यह विग्रह भक्त को अनंत फल देने वाला हैं, तप, त्याग, वैराग, सदाचार संयम की वृद्धि हेतु इनकी साधन की जाती हैं; नव रात्रों की द्वितीय तिथि ब्रह्मचारिणी देवी को समर्पित हैं।
देवी दुर्गा की तीसरी शक्ति या विग्रह, चंद्रघंटा नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्हें मस्तक में घंटे के आकर का अर्ध-चंद्र धारण करने हेतु चंद्रघंटा नाम प्राप्त हुआ हैं। इनका शारीरिक वर्ण स्वर्ण की आभा से युक्त हैं, दस भुजाओं से युक्त देवी चंद्रघंटा त्रिशूल, गदा, तलवार, कमंडल, धनुष, बाण, कमल पुष्प, अक्षर माला धारण किये हुए हैं साथ ही वरद तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं। देवी बाघ की सवारी करती हैं, बाघ देवी चंद्रघंटा का वाहन हैं; देवी चंद्रघंटा नाना प्रकार के रत्न जड़ित आभूषण धारण करती हैं तथा सर्वदा ही युद्ध हेतु प्रस्तुत या उद्धत रहती हैं।
देवी चंद्रघंटा के घंटे की ध्वनि से भूत-प्रेत बाधा दूर चले जाते हैं तथा अत्याचारी दानव-दैत्य प्रकंपित रहते हैं। शत्रु तथा दुष्टों का दमन करने के निमित्त देवी सर्वदा तत्पर रहती हैं, परन्तु इनका स्वरूप सौम्य तथा शांतिदायक हैं। इनकी प्रसिद्धि सौम्यता या सौम्य स्वभाव के साथ, वीरता-निर्भीकता तथा युद्ध कौशल हेतु हैं, परिणामस्वरूप इनके साधक भी वीर तथा सौम्य स्वभाव वाले होते हैं। इनका उपासक सिंह या बाघ की भाति पराक्रमी तथा निर्भीक हो जाता हैं, साथ ही सदगुणता, वीरता तथा विनम्रता का विकास होता हैं तथा देह में कान्ति गुण की वृद्धि होती हैं। नव रात्रों में इनकी साधन तीसरी तिथि में की जाती हैं।
देवी चंद्रघंटा की कृपा से साधक के सभी पाप तथा बाधाएं दूर हो जाती हैं, अपने भक्तों के दुःख-कष्टों का निवारण देवी शीघ्र ही कर देती हैं, अपने दिव्य ध्वनि से भूत-प्रेत बाधाओं को दूर कर देती हैं। देवी का भक्त नाना प्रकार के अलौकिक दृश्यों का दर्शन करने में सक्षम हो पाता हैं साथ ही दिव्य सुगंध तथा ध्वनियों को अनुभव कर पाता हैं; देवी का भक्त जहाँ भी जाता हैं अपनी दिव्य अलौकिक छठा के कारण वहां उपस्थित सभी सुख तथा शांति अनुभव करते हैं।
माँ दुर्गा अपने छठवें स्वरूप में कात्यायनी नाम से विख्यात हैं। कत नमक एक विख्यात महर्षि थे, उनके पुत्र कात्य हुए तथा इन्हीं कात्य के गोत्र में प्रसिद्ध ऋषि कात्यायन उत्पन्न हुए। इन्होंने देवी दुर्गा को पुत्री रूप में प्राप्त करने हेतु, बहुत वर्षों तक कठिन तपस्या की तथा ऋषि की इच्छानुसार ही दुर्गमासुर संहारिका माँ दुर्गा ने इनके यहाँ पुत्री रूप में जन्म धारण किया तथा कात्यायनी नाम से प्रसिद्ध हुई। मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए देवी नाना प्रकार के अलंकारों या आभूषणों से सुशोभित हैं तथा चार भुजाओं से युक्त हैं; अपने दाहिने भुजाओं से देवी माँ वर तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित कर रही हैं तथा बाएँ भुजाओं में पद्म पुष्प तथा तलवार धारण करती हैं। सिंह! देवी माँ का वाहन हैं, देवी कात्यायनी सिंह पर आरूढ़ हैं।
महिषासुर नमक दैत्य ने एक समय देवताओं पर आक्रमण कर देवताओं को स्वर्ग से बहार निकल दिया तथा तीनों लोकों पर अत्याचार करने लगा। ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या कर दैत्य-राज ने वरदान प्राप्त किया था कि! "उसकी मृत्यु किसी स्त्री के हाथों से ही हो सकेंगी अन्यथा नहीं"। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, इंद्र, यम, वरुण इत्यादि समस्त देवताओं ने अपने-अपने तेज के अंश से एक शक्ति को उत्पन्न किया तथा उन देवी को अपने नाना अस्त्र-शस्त्र युक्त शक्तियां भी प्रदान की। महर्षि कात्यायन ने ही सर्वप्रथम इन देवी की पूजा की थी, परिणामस्वरूप इनका नाम कात्यायनी पड़ा, महिषासुर वध के पश्चात इन्हें महिषासुरमर्दिनी दुर्गा नाम प्राप्त हुआ। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी के दिन इनका प्रादुर्भाव हुआ तदनंतर, शुक्ल सप्तमी, अष्टमी, नवमी इन तीन दिनों में महर्षि ने देवताओं के तेज पुंज से प्रकट उस दिव्य शक्ति की विधिवत पूजा आराधना की अंततः दशमी के दिन देवी ने महिषासुर दैत्य का वध किया। भारत वर्ष के पूर्वी भाग में बंगाली समाज इन्हीं देवी की पूजा बड़े ही धूम-धाम से की जाती हैं, जो विश्व विख्यात हैं।
इनका स्वरूप अत्यंत ही दिव्य एवं भव्य हैं, ब्रज मंडल की अधिष्ठात्री हैं, देवी कात्यायनी! भगवान कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने हेतु ब्रज की गोपिओं ने कात्यायनी देवी की आराधना की थी। नव-रात्रों की छठवीं तिथि इन्हें समर्पित हैं, बंगाल प्रान्त में इसी दिन से दुर्गा उत्सव प्रारंभ हो जाता हैं तथा बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता हैं। इनकी उपासना से बड़े ही सरलता से अर्थ, धर्म, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती हैं तथा जन्म जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं।
देवी दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से विख्यात हैं। देवी कालरात्रि घोर अन्धकार की तरह काले रंग युक्त शारीरिक वर्ण वाली हैं, इसी कारण देवी! कालरात्रि नाम से विख्यात हैं। इनका स्वरूप डरावना हैं, इनके सर के बाल बिखरे हैं, गोल-गोल बड़े तीन नेत्र हैं तथा मस्तक पर अर्ध चन्द्र विराजमान हैं। देवी अपनी भुजाओं तथा गले में विद्युत की तरंगों वाली चमकदार माला धारण करती हैं, देवी कालरात्रि चार भुजाओं से युक्त हैं। अपने दोनों दाहिने भुजाओं से देवी वर तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं तथा बाएँ भुजाओं में खड़ग तथा पाश शक्ति धारण करती हैं। देवी का वाहन गधा हैं, देवी गधे की सवारी करती हैं। इनके नासिका के श्वास प्रश्वास से अग्नि की भयानक ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। स्वरूप से देवी कालरात्रि अत्यंत घोर तथा भयंकर प्रतीत होती हैं, परन्तु देवी सर्वदा सदाचारियों हेतु शुभ फल प्रदान करने वाली हैं, परिणामस्वरूप इनका एक नाम 'शुभंकरी' भी विख्यात हैं।
नव-रात्रों की सातवीं तिथि माता कालरात्रि को समर्पित हैं, इनके भक्त किसी भी प्रकार से आतंकित या भय-भीत नहीं होते हैं, सभी परिस्थितियों में सुरक्षित रहते हैं। देवी कालरात्रि दुष्टों का विनाश करती हैं, दैत्य-राक्षस, भूत-प्रेत इत्यादि अशुभ शक्तियां इनके स्मरण मात्र से भय-भीत होकर पलायन कर जाती हैं साथ ही ग्रह जनित दोष भी देवी कृपा से दूर रहते हैं। देवी कालरात्रि का साधक सर्वथा-सर्वदा भय मुक्त हो विचरण करता हैं, उसे किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता हैं। देवी कालरात्रि केवल मात्र दुराचारियों, पाखंडियों, दुष्टों के लिये घोर प्रताप तथा स्वरूप वाली हैं, उन्हें दण्डित करने वाली हैं! अन्यथा इनका शुभंकरी स्वरूप सर्वदा शुभ का ही कारक हैं। देवी के भक्त हर प्रकार के भय जैसे अग्नि-भय, रोग-भय, शत्रु-भय इत्यादि से दूर रहते हैं। ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियाँ देवी अपने भक्तों को प्रदान करती हैं, साथ ही समस्त पापों का नाश कर मृत्यु पश्चात अक्षय पुण्य लोकों की प्राप्ति कराती हैं।