देवी सरस्वती का नदी रूप में परिवर्तन तथा पुष्कर में प्राकट्य, महिमा।

पुष्कर में ब्रह्मा जी का यज्ञ करना तथा सभी का उस यज्ञ में आगमन।

एक बार जब ब्रह्मा जी कृत युग में पुष्कर क्षेत्र में यज्ञ कर रहे थे, मरीचि, अंगीरा, पुलह, पुलस्त्य, क्रतु तथा प्रजापति दक्ष उनके पास गए। वहां सभी बारह आदित्य, एकादश रूद्र, दोनों अश्वनीकुमार, अष्ट वसु, मरुद्गन, विश्व-देव, साध्य नामक देवता उपस्थित थे। शेष जी के वंशज वासुकी इत्यादि नाग समुदाय, अरिष्टनेमि, गरुड़, वारुणि, आरुणि समस्त विनता-कुमार वहां उपस्थित थे। स्वयं श्री हरि विष्णु वहां गए तथा ब्रह्मा जी को नमस्कार कर उनकी वंदना की तथा उनके द्वारा करने योग्य कार्य प्रदान करने के लिए कहा। भगवान विष्णु अपने हाथों पर धनुष धारण कर उस यज्ञ मंडप की रक्षा कर रहें थे, समस्त दैत्य तथा राक्षसों के सरदार तथा समुदाय भी वहां पर उपस्थित था। समस्त देवता, असुर, दैत्य सप्त ऋषिगण आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, चारों वेद, शास्त्र, निरुक्त, कल्प, शिक्षा, मीमांसा, गणित, समस्त विद्याएँ, प्राण, कर्म, नय, संकल्प, अर्थ, हर्ष, समस्त ग्रह तथा नक्षत्र मरुद्गण, विश्वकर्मा, पितृ गण, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, यम-नियम, दुर्गम कष्ट से तारने वाली शक्ति, भाष्य, क्षण, लव, मुहूर्त, दिन, रात्रि, पक्ष, मास, ऋतुएं, ब्रह्मा जी की सेवा में खड़े थे। इनके सिवा श्रेष्ठ देवियाँ जैसे ही, कीर्ति, द्धुति, प्रभा, धृति, क्षमा, भूति, नीति, विद्या, मति, श्रुति, स्मृति, कांति, शांति, पुष्टि, क्रिया, समस्त अप्सराएँ, सम्पूर्ण देव माताएं ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित थीं।

सरस्वती नदी का उद्गम।

सरस्वती नदी का उद्गम
विप्रचित्ति, शिवि, शंकु, प्रह्लाद, बलि, कुम्भ, संहाद, अनुहाद, वृषपर्वा, नमुचि, शम्बर, इन्द्रतापन, वातापी, केशी, राहू, वृत्र इत्यादि बहुत से दानव ब्रह्मा जी की उपासना करते हुए बोले – आप ने हम लोगों की सृष्टि कर तीनों लोकों का राज्य हमें दिया हैं तथा देवताओं से अधिक बलवान बनाया हैं। इस यज्ञ में हम कौन सा कार्य करें? अदिति के गर्भ से उत्पन्न इन देवताओं से क्या कार्य होगा ? फिर भी आप तो हम सभी के पितामह हैं देवताओं को संग में ले कर यज्ञ कार्य पूर्ण करें। यज्ञ की समाप्ति पर राज्य-लक्ष्मी को ले कर देवताओं से अवश्य ही हमारा युद्ध होगा।
इस तरह के गर्व युक्त वचन सुन कर भगवान् विष्णु ने शंकर जी से कहा – ब्रह्मा जी ने समस्त दानवों को इस यज्ञ में आमंत्रित किया हैं तथा ये सभी यज्ञ में विघ्न डालने का प्रयास कर रहे हैं। यज्ञ के पूर्ण होने तक हम सभी चुप रहेंगे परन्तु यज्ञ-समाप्ति पर दैत्यों से हमारा युद्ध होगा, आप को कोई ऐसा यत्न करना चाहिए जिस से पृथ्वी से दानवों का नामों-निशान मिट जाए। देवराज इंद्र की विजय के लिए आप को प्रयत्न करना चाहिये, इन दानवों का धन ले कर हम ब्राह्मणों तथा दुःखी मनुष्य में बाट लेंगे। यह बात सुनकर ब्रह्मा जी ने भगवान् विष्णु से समस्त दानवों को क्षमा करने का निवेदन किया। ब्रह्मा जी ने भगवान् विष्णु से कहाँ – सत्य युग के अंत में जब ये यज्ञ समाप्त होगा, आप तथा दानवों को विदा करने पर, आप लोगों को संधि या विग्रह जो उचित हो करने का निवेदन किया। ब्रह्मा जी ने दानवों को समझाया कि तुम्हें देवताओं के साथ विरोध नहीं करना चाहिये, इस समय मित्र भाव से युक्त हो मेरा कार्य सम्पन्न करो। दानवों ने पितामह को धैर्य बंधाया कि हमसे हमारे छोटे भाई देवताओं को कोई भय नहीं हैं, आप के आदेश का हम हर परिस्थिति में पालन करेंगे, जिस पर ब्रह्मा जी को बड़ा ही संतोष हुआ।
कुछ समान पश्चात यज्ञ में महान ऋषियों का आगमन हुआ; भगवान विष्णु ने उनका पूजन किया, भगवान शंकर ने उन्हें आसन प्रदान किया, वशिष्ठ जी ने उनका कुशल-क्षेम पूछ अर्घ्य प्रदान किया तथा निवास स्थान प्रदान किया। जटा तथा मृग चर्म धारण करने वाले समस्त ऋषिगण यज्ञ में उपस्थित थे, उनमें कुछ महात्मा जन वालखिल्य (एक ही समय अन्न ग्रहण करने वाले) थे तो कुछ संप्रख्यान (तत्व का विचार करने वाले) थे। उन सभी तपस्वियों ने जैसे ही पुष्कर के जाल में अपना मुंह देखा, तक्षण ही वे अत्यंत रूपवान हो गए। सभी को बड़ा ही आश्चर्य हुआ की ये चमत्कार कैसे? इस पर उन तपस्वियों ने उस तीर्थ का नाम मुख दर्शन तीर्थ रख दिया। तत्पश्चात वे स्नान कर अपने-आपने नियम में लग गए, वे वनवासी मुनि वहां अत्यंत शोभा पाने लगे, अग्निहोत्र कर नाना क्रियाएँ सम्पन्न की। वे सोचने लगे की यह सरोवर श्रेष्ठ हैं, इस कारण उन ऋषियों ने उस सरोवर का नाम पुष्कर रख दिया।
तदनंतर वे सभी द्विज वहां पर प्राची सरस्वती नदी का नाम सुन उसमें स्नान करने की इच्छा से गए। सरस्वती नदी का तट बड़ा ही मनोरम था, नाना प्रकार के वृक्ष तथा प्राणी वहां की शोभा बड़ा रहें थे तथा श्रेष्ठ ऋषिगण समुदाय भी वहां निवास करते थे। पुष्कर तीर्थ में सरस्वती नदी सुप्रभा, कांचना, प्राची, नंदा तथा विशाला नाम के पाँच धाराओं में प्रभावित होती हैं।
ब्रह्मा जी के यज्ञ मंडप पर देवताओं, दैत्यों, ऋषियों इत्यादि सभी द्विजों का आगमन हुआ, ब्रह्मा जी ने यज्ञ की दीक्षा ली तथा यज्ञ के द्वारा भगवान का यजन प्रारंभ किया। उस यज्ञ के प्रभाव से, द्विजों के पास मनचाही वस्तुओं अपने आप ही उपस्थित हो रहीं थीं, गन्धर्व मधुर गान कर रहे थे, अप्सराएँ नाच रहीं थी, दिव्य बजे बजाये जा रहे थे। उस समय ऋषियों ने सरस्वती का सुप्रभा नाम से आवाहन किया, पितामह ब्रह्मा जी का सम्मान करते हुए सरस्वती नदी वहां उपस्थित हुई।

सरस्वती देवी का नदी रूप में परिवर्तित हो पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान कर पुष्कर में प्रकट होना।

पहले की बात हैं, एक बार श्री हरि विष्णु ने देवताओं के निमित्त सरस्वती से पश्चिम समुद्र पर बडवानल को ले डालने के लिए कहाँ, जिस से समस्त देवताओं का भय दूर हो सकें। इस पर देवी सरस्वती ने भगवान विष्णु से कहा – में स्वाधीन नहीं हूँ, इस हेतु आप ब्रह्मा जी से आग्रह करें। तदनंतर देवताओं सहित श्री हरि विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा - सरस्वती बड़ी ही साध्वी हैं, उनमें किसी प्रकार का दोष नहीं हैं, उनके अतिरिक्त कोई और नहीं हैं जो बडवानल को ले जा सकें। इस प्रकार के वचनों को सुन कर ब्रह्मा जी ने सरस्वती से कहाँ – तुम इन सब देवताओं की रक्षा करो, इस कार्य को करने पर तुम्हें बहुत सम्मान मिलेगा। ब्रह्मा जी की आज्ञा पाकर, सरस्वती देवी अपने तेज से सर्वत्र प्रकाश फैलाते हुई चली, उस समय गंगा जी भी उनके पीछे चलीं। इस पर सरस्वती देवी ने गंगा जी से कहाँ – सखी तुम कहाँ जा रहीं हो? में तुम से पुनः मिलूंगी। इस पर गंगा देवी ने सरस्वती जी से कहाँ तुम जब पूर्व दिशा को ओर आओगी तभी मुझे देख पाओगी। यह सुन सरस्वती देवी ने कहाँ – तुम भी उत्तराभिमुखी हो कर शोक का त्याग कर देना। जिस पर गंगा जी ने कहाँ मैं उत्तर मुखी होने पर तथा तुम पूर्व मुखी होने पर अधिक शुभ तथा पवित्र मानी जाऊंगी। उत्तर मुखी गंगा तथा पूर्व मुखी सरस्वती के तट पर जो मनुष्य दान तथा श्राद्ध कर्म करेंगे वे तीनों ऋणों से मुक्त होंगे। तदनंतर देवी सरस्वती नदी रूप में परिवर्तित हो गई, जिसके कारण बड़वानल से उन्हें जलने का कोई भय नहीं था। देवी सरस्वती एक पाकर के वृक्ष मूल से प्रकट हुई, जो भगवान् विष्णु का साक्षात् स्वरूप ही था। सरस्वती देवी ने भगवान् विष्णु से बड़वानल समर्पित करने के लिए कहा तथा भगवान विष्णु ने सरस्वती जी को बड़वानल को सोने के घड़े पर रख कर सरस्वती जी को सौंप दिया। उस सोने के घड़े को अपने उदार में रख कर सरस्वती देवी पश्चिम की ओर चल पड़ी। अदृश्य गति से चलते हुए सरस्वती नदी पुष्कर में पहुँची तथा ब्रह्मा जी के किये हुए हवन कुंडों को जल से आप्लावित कर दिया। इस प्रकार सरस्वती नदी का पुष्कर क्षेत्र में प्राकट्य हुआ। जो पुष्कर में स्थित सरस्वती नदी में स्नान करते हैं, वे ब्रह्म लोक जाने के अधिकारी होते हैं।
सरस्वती नदी पुष्कर से अदृश्य हो कर पुनः पश्चिम दिशा की ओर चली, वहां से थोड़ी दूर जाने पर वे एक खजूर वन में पुनः प्रकट हुई। वहां पर वे नंदा नाम से तीनों लोकों में प्रसिद्ध हुई।
(माना जाता हैं सरस्वती नदी हिमालय से निकलकर गुप्त पथ से कुरुक्षेत्र, विराट, पुष्कर, प्रभास आदि क्षेत्रों से होती हुई गुजरात के कच्छ के रास्ते से सागर में मिलती हैं, इनकी एक शाखा का प्रयाग में गंगा और यमुना से सरस्वती का संगम होता हैं।)

सरस्वती नदी के नंदा नाम पड़ने का करण :

पृथ्वी पर प्रभंजन नम के एक राजा थे, एक दिन वे वन में शिकार कर रहें थे। उन्होंने एक झाड़ के पीछे एक मृग खड़ा देखा तथा वहाँ मृग ठीक राजा के सामने खड़ा था। उन्होंने तक्षण ही अपने बाण से उस मृग को बिंध डाला, आहत मृग चकित हो, चारों ओर देखने लगा। फिर धनुष बाण धारण किये हुए राजा को देख कर कहाँ; तेरा ये कार्य पाप युक्त हैं, तूने ऐसा क्यूँ किया ? मैं यहाँ नीचे मुंह कर अपने आप को निर्भय सोच कर अपने बच्चे को दूध पिला रहीं थीं तथा तूने इस अवस्था में मुझे अपना शिकार बनाया हैं। तेरी बुद्धि बड़ी ही खोटी हैं; तू मेरे श्राप से कच्चा मांस खाने वाला पशु बनेगा।

मृगी के श्राप से राजा प्रभंजन का व्याघ्र हो जाना तथा नंदा नाम की गाय का उसके सनमुख आना।

इस प्रकार मृग की वाणी सुन, राजा व्याकुल हो गया तथा उस मृग से कहाँ; मैं नहीं जनता था की तू अपने बच्चे को दूध पिला रहीं हैं, अनजाने में मैंने तेरा वध किया है। कृपा कर तू मेरे व्याघ्र योनी से मुक्ति का कोई उपाय बता; मृग ने राजा से कहाँ अज से सौ वर्ष पूर्ण होने पर इस स्थान पर नंदा नाम की एक गौ थीं, उसे साथ तुम्हारा वार्तालाप होने पर तुम श्राप मुक्ति प्राप्त करोगे।
मृग के श्राप अनुसार राजा प्रभंजन व्याघ्र हो गया तथा उनकी आकृति बड़ी ही भयानक थी। वह वन में पशुओं तथा मनुष्यों को खा कर जीवन व्यतीत करने लगा, उसके मन में बड़ा ही विलाप था तथा वह सोचता था कब वो पुनः मनुष्य योनी प्राप्त करेगा। इस व्याघ्र योनी में मेरे द्वारा पुण्य का कार्य नहीं हूँ सकता हैं; केवल हिंसा ही जीवन-वृति हैं, इसके द्वारा तो मुझे केवल दुःख ही प्राप्त होगा।
सौ वर्ष पूर्ण होने पर, एक दिन वहां गऊओं का बहुत बड़ा झुण्ड उपस्थित हुआ। वहां पर गऊओं के निमित्त प्रचुर मात्र में घास तथा जल था, ग्वालों ने रहने के लिए सदाहरण घर तथा गऊओं के विश्राम के लिए बाड़ लगा दी। उन गऊओं के झुण्ड में हष्ट-पुष्ट नंदा नाम की एक गाय प्रधान थीं तथा वह निर्भय हो कर झुण्ड के आगे चला करती थीं। एक दिन वह अपने झुण्ड से बिछड़ गई तथा उस व्याघ्र के सामने पड़ गई। व्यग्र ने नंदा से कहाँ आज विधाता ने तुझे मेरा ग्रास नियत किया हैं, तभी तू स्वयं यहाँ आकर मेरे सनमुख उपस्थित हुई। व्याघ्र के इस प्रकार के वचन सुनकर नंदा को अपने बछड़े की याद आ गई तथा उसका गला भर आया वो रोने लगी।
व्यग्र, गाय से बोला की सभी अपने कर्मों का भोग भोगते हैं, तेरी मृत्यु आज ही नियत हैं, तू बता तो किस कारण तू रुदन कर रहीं हैं?
नंदा ने व्यग्र से कहाँ ! मैं जानती हूँ की तुम्हारे पास आये हुए की मृत्यु निश्चित हैं। मैंने हाल ही में एक बछड़े को जन्म दिया हैं वह मेरा पहला बच्चा हैं, वो अभी घास खाने ले उपयुक्त नहीं हैं। इस समय वो भूख से व्याकुल हो मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा, इस कारण में रो रहीं हूँ। मेरे न रहने पर मेरा बछड़ा कैसे जीवित रहेगा? में पुत्र स्नेह के वशीभूत हो रो रहीं हूँ। तुम मुझे उसके पास जाने दो, में उसे दूध पिला कर कुछ हितकारी उपदेश दूंगी तदनंतर अपनी सखियों की देख रेख पर उसे सौंप कर तुम्हारे पास लौट आऊंगी। इसके पश्चात तुम मुझे खा लेना। इस पर व्याघ्र से नंदा से कहाँ ! आब तुझे पुत्र से क्या काम ? नंदा बोलीं – मृगेंद्र मैं पहला बछड़ा ब्यायी हूँ, उसके प्रति मेरी बड़ी ममता हैं मुझे थोड़ी देर के लिए छोड़ दो; मैं शपथ पूर्वक कहती हूँ की अगर में पुनः लौट नहीं आई तो मुझे वो पाप लगे जो एक ब्राह्मण तथा माता-पिता के वध करने पर लगता हैं। साथ ही, व्याधों, मलेच्छों, सोये हुए प्राणियों को मारने तथा विष देने वाले को जो पाप लगता हैं वो मुझे लगे।
नंदा के इस प्रकार शपथ करने पर व्याघ्र को विश्वास हो गया की गाय वापस लौट आएगी। वह नंदा से बोला की, वापस आते हुए तुम्हारे हितैषी तुम्हें समझायेंगे की प्राणों के संकट उपस्थित होने पर, शपथ उपेक्षा का कोई पाप नहीं लगता हैं। तुम किसी की बातों को न मानना वे तुम्हारी बुद्धि को क्षण भर में भ्रमित कर डालेंगे, तुम्हें केवल ये याद रखना हैं की तुमने व्याघ्र से की हुई शपथ को पूर्ण करना हैं। अब तुम जाओ तथा अपने बच्चे तथा बन्धु-बांधवों से मिल कर शीघ्रता से वापस आ जाओ।
नंदा बड़ी ही सत्य वादिनी थीं, ह्रदय पर अत्यंत दुःख होते हुए अपने बछड़े से मिली तथा उसे दुग्ध पान कराया तथा कहाँ की वह उनकी अंतिम भेंट हैं। में व्याघ्र को शपथ पूर्वक कह आई हूँ की में पुनः उस के पास लौट जाऊंगी। इस पर नंदा का बछड़ा बोला की में भी तुम्हारे साथ चलूँगा, तुम्हारे साथ मेरा भी मर जाना अच्छा हैं; माता से बिछड़े बालक के जीव का क्या प्रयोजन हैं? इस पर नंदा ने बछड़े से कहा! क्योंकि मेरी ही मृत्यु नियत हैं, तुम मेरे पीछे नहीं आना। तुम्हारे लिए ये ही माता का अंतिम सन्देश हैं; कभी भी प्रमाद कर करना, प्रमाद से समस्त प्राणी नष्ट हो जाते हैं। लोभवश कभी ऐसे घास को चरने मत जाना की किसी दुर्गम स्थान पर उगी हो, लोभ से इहलोक तथा परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं। हिंसक प्राणियों, मलेच्छों और चोरों द्वारा संकट उपस्थित होने पर, सर्वदा ही अपने शरीर की रक्षा करना। सर्वत्र सूंघते हुए ही भ्रमण करना, भयंकर वन में अकेले कभी नहीं जाना, सर्वदा धर्म में ही अपने आप को स्थापित रखना, क्योंकि एक न एक दिन सभी की मृत्यु होगी। तुम शोक छोड़ मेरे वचनों का पालन करना।
नंदा ने अपने झुण्ड के सभी बड़ों से कहा! मैं अपने झुण्ड में आगे-आगे चल रही थीं, इतने में मैं एक घोर व्याघ्र से सनमुख आ गई। मैंने उसे नाना शपथों से विश्वास दिलाया की मैं अपने पुत्र तथा मेरे प्रिय बन्धु-बांधवों से मिलकर, पुनः वापस चली आऊंगी तब तुम मुझे खा लेना। आप सब मेरे इस दीन, अनाथ और व्याकुल बच्चे की रक्षा करना, अपने पुत्र की भांति इसकी देखरेख करना, में अपने समस्त भूल को क्षमा करना। नंदा की बात सुन कर सभी को बड़ा ही दुःख हुआ तथा वे महान आश्चर्य में पड़ गए, कि नंदा पुनः उस व्याघ्र के पास क्यों जा रहीं है। सभी ने उसे समझाया की वह शपथ तोड़ दे, इस पर उसे कोई पाप नहीं लगेगा, परन्तु नंदा नहीं मानी।

नंदा द्वारा सत्य के मार्ग के महत्व का वर्णन करना तथा पुनः व्याघ्र के पास लौट कर जाना।

नंदा ने कहाँ : सम्पूर्ण संसार सत्य पर ही टिका हुआ हैं, धर्म की स्थिति सत्य में ही हैं, में अपने जीवन की रक्षा के लिए कैसे असत्य का सहारा लूँ ? जीव इस संसार में अकेले ही आता हैं और अकेले ही जाता हैं, अकेले ही उस का पालन पोषण होता हैं, अकेले ही सुख-दुःख भोगता हैं। नंदा ने राजा वाली का उदाहरण दिया, कैसे राजा बलि तीनों लोकों के अधिपति होकर भी अपना सर्वस्व भगवान विष्णु को दे दिया तथा सत्य के पथ पर अडिग रह कर स्वयं पाताल में चेले गए थे। सत्य में ही स्वर्ग, मोक्ष तथा धर्म प्रतिष्ठित हैं, जो अपने वचनों का लोप करता हैं मानों उसे अपने आप को लोप कर दिया हों। अगाध जल से भरा हुआ तीर्थ हैं सत्य, उस शुद्ध तीर्थ में स्नान करने वाला, सर्व पापों से मुक्त हो जाता हैं। एक सहस्त्र अश्वमेध यज्ञ तथा सत्य भाषण को अगर तराजू में रखा जाये तो, सत्य का ही पलड़ा भारी रहता हैं, सत्य ही उत्तम तप हैं तथा सत्य ही उत्कृष्ट शास्त्र ज्ञान हैं। सत्य भाषण में किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं हैं, साधु पुरुषों की कसौटी को परखने वाली हैं, सम्पूर्ण आश्रयों में सत्य का आश्रय श्रेष्ठ कहा गया हैं। सत्य अत्यंत ही कठिन हैं परन्तु इसका पालन स्वयं के ऊपर ही हैं। इस पर नंदा की सभी सखियाँ बोलीं तुम सम्पूर्ण देवताओं तथा दैत्यों के लिए वन्दनीय हो, क्योंकि तुम सत्य का आश्रय ले प्राणों का त्याग कर रहीं हो।
तदनंतर समस्त बन्धु-बांधवों तथा पुत्र से विदा लेकर, नंदा वहां से चल पड़ी। उसने पृथ्वी, समस्त देवताओं, दसो दिक्पालों, वन के वृक्षों, आकाश, गृह, नक्षत्र, वन-देवता, सिद्ध इत्यादि को प्रणाम कर वन में विचरते हुए अपने पुत्र को रक्षा करने का निवेदन किया। अंततः नंदा उस स्थान पर पहुँची जहाँ वो व्याघ्र रहता था, उसका बछड़ा भी उसके पीछे-पीछे उस स्थान पर आ गया तथा व्याघ्र तथा अपनी माता के आगे आ कर खड़ा हो गया। नंदा ने व्याघ्र से उसके मांस से तृप्त होने का निवेदन किया। तदनंतर, व्याघ्र ने नंदा से कहाँ! तुम अटल सत्य-वादिनी निकली, सत्य का आश्रय लेने वाले प्राणी का कोई भी अमंगल नहीं कर सकता हैं। मैंने तुम्हारे सत्य की परीक्षा लेने के लिए ही तुम्हें वापस भेज दिया था, मुझे बड़ा ही कौतूहल हो रहा था की तुमने जो सत्य-पूर्वक शपथ की थी, उसे पूरा कर पाओगी या नहीं। मेरा वो कौतूहल पूरा हुआ, आज से तुम मेरी बहन हुई तथा तुम्हारा ये बच्चा मेरा भांजा। तुमने अपने सत्य आचरण से मुझे पाप मुक्त कर दिया हैं, आब में वो कर्म करूँगा, जिसके द्वारा में समस्त पापों से मुक्त कर सकूँ। मैंने अनेक प्रकार के जीवों को मारा और खाया हैं; इस पाप से मुक्त होने हेतु उत्तम तपस्या बताओ।

नंदा गया के द्वारा, व्याघ्र को अभय दान की महिमा का वर्णन करना तथा धर्म का उस स्थान पर उपस्थित होना।

नंदा बोलीं – सत्य युग में तप, त्रेता में ज्ञान तथा कर्म, द्वापर में यज्ञ तथा कल युग में दान को सर्वश्रेष्ठ बताया गया हैं तथा सम्पूर्ण दानों में समस्त भूतों को अभय दान देना ही सर्वोत्तम दान हैं। जो समस्त चराचर प्राणियों को अभय दान देता हैं, वह सब प्रकार से पाप मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त होता हैं। अहिंसा के समान न तो कोई दान हैं और न ही तपस्या, अहिंसा ही सभी धर्मों को प्राप्त करने वाला हैं। आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दुखों से संतप्त होने वालों को योग का आश्रय लेना चाहिये, जिससे उन्हें उत्तम शांति की प्राप्ति होती हैं। यही परम कल्याण का साधन हैं, जिसे मैंने संक्षेप से बताया हैं। व्याघ्र को अपनी समस्त विगत बातों का स्मरण हो आया तथा उस ने उस गाय से उसका नाम पूछा।
जैसे ही गाय ने अपना नाम नंदा बताया वैसे ही प्रभंजन श्राप से मुक्त हो गए तथा उसी समय नंदा का दर्शन करने हेतु साक्षात् धर्म वहां पर आएं। धर्म ने नंदा से कहा! में तुम्हारे सत्य भाषण से अत्यंत प्रसन्न हूँ तुम मुझ से कोई श्रेष्ठ वर मांग लो। नंदा ने वर माँगा की वह तथा उसका पुत्र उत्तम गति को प्राप्त करें तथा यह स्थान मुनियों को धर्म प्रदान करने वाला तीर्थ बन जाए। यहाँ सरस्वती नदी आज से मेरे ही नाम से प्रसिद्ध हो तथा इनका नाम नंदा पद जाए। नंदा अपने पुत्र सहित तक्षण ही सत्य वादियों के उत्तम लोक में चली गई, राजा प्रभंजन ने पूर्ववत अपने राज्य को प्राप्त कर लिया, नंदा सरस्वती नदी के मार्ग से ही स्वर्ग को गई। इस कारण विद्वानों ने सरस्वती नदी का नाम नंदा रख दिया, स्नान तथा जलपान करने से सरस्वती नदी मनुष्य हेतु स्वर्ग की सीढी बन जाती हैं। अष्टमी के दिन जो मनुष्य एकाग्रचित्त हो पुष्कर के सरस्वती नदी में स्नान करता हैं वो मृत्यु पश्चात स्वर्ग को जाता हैं। स्त्रियों को सरस्वती नदी सर्वदा ही सौभाग्य प्रदान करने वाली हैं, विशेषकर तृतीया तिथि में, इस दिन केवल दर्शन ही मनुष्य के अनेक पापों का शमन करता हैं। ब्रह्मा से उत्पन्न ये सरस्वती नदी परम पावन तथा पुण्यसलिला, ये ही नंदा नाम से प्रसिद्ध हैं। दक्षिण दिशा की ओर प्रवाहित सरस्वती नदी तथा उत्तर दिशा को प्रवाहित गंगा नदी महान पुण्य प्रदान करने वाली हैं।