महाविद्याओं में पंचम स्थान पर विद्यमान देवी छिन्नमस्ता, स्व-बलिदान की प्रेरणा स्रोत।

स्वयं अपनी या स्वतः बलिदान देने वाली देवी छिन्नमस्ता, दस महाविद्याओं में पांचवें स्थान पर, बुद्धि और ज्ञान से संबंधित।

छिन्नमस्ता शब्दों दो शब्दों के योग से बना हैं: प्रथम छिन्न और द्वितीय मस्ता, इन दोनों शब्दों का अर्थ हैं, 'छिन्न : अलग या पृथक' तथा 'मस्ता : मस्तक', इस प्रकार जिनका मस्तक देह से पृथक हैं वह छिन्नमस्ता कहलाती हैं। देवी अपने मस्तक को अपने ही हाथों से काट कर, अपने हाथों में धारण करती हैं तथा प्रचंड चंडिका जैसे अन्य नामों से भी जानी जाती हैं।
उनकी उपस्थिति दस महा-विद्याओं में पाँचवें स्थान पर हैं, देवी एक प्रचंड डरावनी, भयंकर तथा उग्र रूप में विद्यमान हैं। समस्त देवी देवताओं से पृथक देवी छिन्नमस्ता का स्वरूप हैं, देवी स्वयं ही तीनों गुणों; सात्विक, राजसिक तथा तामसिक, का प्रतिनिधित्व करती हैं, त्रिगुणमयी सम्पन्न हैं। देवी ब्रह्माण्ड के परिवर्तन चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं, संपूर्ण ब्रह्मांड इस चक्र से चलायमान हैं। सृजन तथा विनाश का संतुलित होना, ब्रह्माण्ड के सुचारु परिचालन हेतु अत्यंत आवश्यक हैं। देवी छिन्नमस्ता की आराधना जैन तथा बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं तथा बौद्ध धर्म में देवी छिन्नमुण्डा वज्रवराही के नाम से विख्यात हैं।
देवी जीवन के परम सत्य मृत्यु को दर्शाती हैं, वासना से नूतन जीवन के उत्पत्ति तथा अंततः मृत्यु की प्रतीक स्वरूप हैं देवी। देवी, स्व-नियंत्रण के लाभ, अनावश्यक तथा अत्यधिक मनोरथों के परिणाम स्वरूप पतन, योग अभ्यास द्वारा दिव्य शक्ति लाभ, आत्म-नियंत्रण, बढ़ती इच्छाओं पर नियंत्रण का प्रतिनिधित्व करती हैं। देवी, योग शक्ति, इच्छाओं के नियंत्रण और यौन वासना के दमन की विशेषकर प्रतिनिधित्व करती हैं।
समस्त प्रकार के अहंकार को छिन्न-छिन्न करती हैं देवी छिन्नमस्ता।

महाविद्यायों में चतुर्थ स्थान पर विद्यमान, देवी भुवनेश्वरी

देवी छिन्नमस्ता

यौन वासनाओं तथा अत्यधिक कामनाओं के त्याग और आत्म नियंत्रण की साक्षात छवि हैं 'देवी छिन्नमस्ता'।

देवी अपने मस्तक को अपने ही खड्ग से काटकर, अपने शरीर से छिन्न या पृथक करती हैं तथा अपने कटे हुए मस्तक को अपने ही हाथ में धारण करती हैं। देवी का यह स्वरूप अत्यंत ही भयानक तथा उग्र हैं, देवी इस प्रकार के भयंकर उग्र स्वरूप में अत्यधिक कामनाओं तथा मनोरथों से आत्म नियंत्रण के सिद्धांतों का प्रतिपादन करती हैं। देवी छिन्नमस्ता का घनिष्ठ सम्बन्ध, "कुंडलिनी" नामक प्राकृतिक ऊर्जा या मानव शरीर में छिपी हुई प्राकृतिक शक्ति से हैं। कुण्डलिनी शक्ति प्राप्त या जागृत करने हेतु; योग अभ्यास, त्याग तथा आत्म नियंत्रण की आवश्यकता होती हैं। एक परिपूर्ण योगी बनने हेतु, संतुलित जीवन-यापन का सिद्धांत अत्यंत आवश्यक हैं, जिसकी शक्ति देवी छिन्नमस्ता ही हैं, परिवर्तन शील जगत (उत्पत्ति तथा विनाश, वृद्धि तथा ह्रास) की शक्ति हैं देवी छिन्नमस्ता। इस चराचर जगत में उत्पत्ति या वृद्धि होने पर देवी भुवनेश्वरी का प्रादुर्भाव होता हैं तथा विनाश या ह्रास होने पर देवी छिन्नमस्ता का प्रादुर्भाव माना जाता हैं।
देवी, योग-साधना की उच्चतम स्थान पर अवस्थित हैं। योग शास्त्रों के अनुसार तीन ग्रन्थियां ब्रह्मा ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि तथा रुद्र ग्रंथि को भेद कर योगी पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर पता हैं तथा उसे अद्वैतानंद की प्राप्ति होती हैं। योगियों का ऐसा मानना हैं कि मणिपुर चक्र के नीचे के नाड़ियों में ही काम और रति का निवास स्थान हैं तथा उसी पर देवी छिन्नमस्ता आरूढ़ हैं तथा इसका ऊपर की ओर प्रवाह होने पर रुद्रग्रंथी का भेदन होता हैं।

देवी छिन्नमस्ता का भौतिक स्वरूप विवरण

देवी छिन्नमस्ता बिखरे बालों युक्त नग्न हो, कामदेव तथा उनकी पत्नी रति देवी के ऊपर अत्यंत उग्र रूप धारण किये हुए, कमल के मध्य में खड़ी हैं। देवी का शारीरिक वर्ण पिला या लाल-पीले रंग का हैं तथा पूर्ण उभरे हुए स्तनों से युक्त देवी सोलह वर्ष कि कन्या के रूप में प्रतीत हो रही हैं। देवी ने मानव मुंडो की माला के साथ सर्पों तथा अन्य अमूल्य रत्नों से युक्त आभूषण धारण कर रखी हैं, देवी सर्प रूपी यज्ञोपवित धारण करती हैं।
देवी, मस्तक पर अमूल्य रत्नों से युक्त मुकुट तथा अर्ध चन्द्र धारण करती हैं, तीन नेत्र से युक्त हैं। देवी छिन्नमस्ता के दाहिने हाथ में स्वयं का कटा हुआ मस्तक रखा हुआ हैं जो उन्होंने स्वयं अपने खड्ग से काटा हैं तथा बायें हाथ में वह खड़ग धारण करती हैं जिससे उन्होंने अपना मस्तक कटा हैं। देवी के कटे हुए गर्दन से रक्त की तीन धार निकल रही हैं, एक धार से देवी स्वयं रक्त पान कर रही हैं तथा अन्य दो धाराओं से देवी की सहचरी योगिनियाँ रक्त पान कर रही हैं।
दोनों योगिनियों का नाम जया तथा विजया या डाकिनी तथा वारिणी हैं। देवी, स्वयं तथा दोनों सहचरी योगिनियों के संग सहर्ष रक्त पान कर रही हैं। देवी की दोनों सहचरियां भी नग्नावस्था में खड़ी हैं तथा अपने हाथों में खड़ग तथा मानव खप्पर धारण की हुई हैं। देवी की सहचरी डाकिनी तमो गुणी (विनाश की प्राकृतिक शक्त) एवं गहरे वर्ण युक्त तथा वारिणी की उपस्थिति लाल रंग तथा राजसिक गुण (उत्पत्ति से सम्बंधित प्राकृतिक शक्ति) युक्त हैं। देवी अपने दो सहचरियों के साथ अत्यंत भयानक, उग्र स्वरूप वाली प्रतीत होती हैं, क्रोध के कारण उपस्थित महा-विनाश की प्रतीक है! देवी छिन्नमस्ता।

देवी छिन्नमस्ता के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा

नारद-पंचरात्र के अनुसार, एक बार देवी पार्वती अपनी दो सखियों के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान हेतु गई। नदी में स्नान करते हुए, देवी पार्वती काम उत्तेजित हो गई तथा उत्तेजना के फलस्वरूप उनका शारीरिक वर्ण काला पड़ गया। उसी समय, देवी के संग स्नान हेतु आई दोनों सहचरी डाकिनी और वारिणी, जो जया तथा विजया नाम से भी जानी जाती हैं क्षुधा (भूख) ग्रस्त हुई और उन दोनों ने पार्वती देवी से भोजन प्रदान करने हेतु आग्रह किया। देवी पार्वती ने उन दोनों सहचरियों को धैर्य रखने के लिये कहा तथा पुनः कैलाश वापस जाकर भोजन देने का आश्वासन दिया। परन्तु, उनके दोनों सहचरियों को धैर्य नहीं था, वे दोनों तीव्र क्षुधा का अनुभव कर रहीं थीं तथा कहने लगी! "देवी आप तो संपूर्ण ब्रह्मांड की माँ हैं और एक माता अपने संतानों को केवल भोजन ही नहीं अपितु अपना सर्वस्व प्रदान कर देती हैं। संतान को पूर्ण अधिकार हैं कि वह अपनी माता से कुछ भी मांग सके, तभी हम बार-बार भोजन हेतु प्रार्थना कर रहे हैं। आप दया के लिए संपूर्ण जगत में विख्यात हैं, परिणामस्वरूप देवी को उन्हें भोजन प्रदान करना चाहिए।" सहचरियों द्वारा इस प्रकार दारुण प्रार्थना करने पर देवी पार्वती ने उनकी क्षुधा निवारण हेतु, अपने खड़ग से अपने मस्तक को काट दिया, तदनंतर, देवी के गले से रक्त की तीन धार निकली। एक धार से उन्होंने स्वयं रक्त पान किया तथा अन्य दो धाराएं अपनी सहचरियों को पान करने हेतु प्रदान किया। इस प्रकार देवी ने स्वयं अपना बलिदान देकर अपनी सहचरियों के क्षुधा का निवारण किया।

देवी छिन्नमस्ता के उत्पत्ति से संबंधित एक और कथा प्राप्त होती हैं! जो समुद्र मंथन के समय से सम्बंधित हैं। एक बार देवताओं और राक्षसों ने अमृत तथा अन्य प्रकार के नाना रत्नों के प्राप्ति हेतु समुद्र मंथन किया। देवताओं और राक्षसों दोनों नाना रत्न प्राप्त कर शक्तिशाली बनना चाहते थे, सभी रत्नों में अमृत ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रत्न था, जिसे प्राप्त कर अमरत्व प्राप्त करने हेतु, देव तथा दानव समुद्र मंथन कर रहे थे। समुद्र मंथन से कुल १८ प्रकार के रत्न प्राप्त हुए, देवताओं के वैध धन्वन्तरी, अमृत कलश के साथ अंत में प्रकट हुए। तदनंतर देवताओं और राक्षसों दोनों में अमृत कलश प्राप्त करने हेतु, भारी उत्पात हुआ अंततः देवताओं से दैत्य अमृत कलश लेने में सफल हुए। समस्या के निवारण हेतु भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार धारण किया। अपने नाम के स्वरूप ही देवी मोहिनी ने असुरों को मोहित कर लिया तथा असुर-राज बाली से अमृत कलश प्राप्त कर, देवताओं तथा दानवों को स्वयं अमृत पान करने हेतु तैयार कर लिया। मोहिनी अवतार में स्वयं आद्या शक्ति महामाया ही भगवान विष्णु से प्रकट हुई थी। देवी मोहिनी ने छल से सर्वप्रथम देवताओं को अमृत पान कराया तथा शेष स्वयं पान कर, अपने हाथों से अपने मस्तक को धर से अलग कर दिया, जिससे अब और कोई अमृत प्राप्त न कर सकें।

देवी छिन्नमस्ता से सम्बंधित अधिक तथ्य

सामान्यतः हिंदू धर्म अनुसरण करने वाले देवी छिन्नमस्ता के भयावह तथा उग्र स्वरूप के कारण, स्वतंत्र रूप से या घरों में उनकी पूजा नहीं करते हैं। देवी के कुछ-एक मंदिरों में उनकी पूजा-आराधना की जाती हैं, देवी छिन्नमस्ता तंत्र क्रियाओं से सम्बंधित हैं तथा तांत्रिकों या योगियों द्वारा ही यथाविधि पूजित हैं। देवी की पूजा साधना में विधि का विशेष ध्यान रखा जाता हैं, देवी से सम्बंधित एक प्राचीन मंदिर रजरप्पा में हैं, जो भारत वर्ष के झारखंड राज्य के रामगढ़ जिले में अवस्थित हैं। देवी का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय हैं इसे केवल सिद्ध साधक ही जान सकता हैं। देवी की साधना रात्रि काल में होती हैं तथा देवी का सम्बन्ध तामसी गुण से हैं।
देवी अपना मस्तक काट कर भी जीवित हैं, यह उनकी महान यौगिक (योग-साधना) उपलब्धि हैं। योग-सिद्धि ही मानवों को नाना प्रकार के अलौकिक, चमत्कारी तथा गोपनीय शक्तियों के साथ पूर्ण स्वस्थता प्रदान करती हैं।

संक्षेप में देवी छिन्नमस्ता से सम्बंधित मुख्य तथ्य।

  • मुख्य नाम : छिन्नमस्ता।
  • अन्य नाम : छिन्न-मुंडा, छिन्न-मुंडधरा, आरक्ता, रक्त-नयना, रक्त-पान-परायणा, वज्रवराही।
  • भैरव : क्रोध-भैरव।
  • भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान नृसिंह अवतार।
  • तिथि : वैशाख शुक्ल चतुर्दशी।
  • कुल : काली कुल।
  • दिशा : उत्तर।
  • स्वभाव : उग्र, तामसी गुण सम्पन्न।
  • कार्य : सभी प्रकार के कार्य हेतु दृढ़ निश्चितता, फिर वह अपना मस्तक ही अपने हाथों से क्यों न काटना हो, अहंकार तथा समस्त प्रकार के अवगुणों का छेदन करने हेतु शक्ति प्रदाता, कुण्डलिनी जाग्रति में सहायक।

देवी छिन्नमस्ता

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