भगवान शिव के कपाली होने का कारण।

भगवान् शिव तथा ब्रह्मा में परस्पर विवाद।

प्राचीन समय में, स्थावर जंगम जगत एकीभूत महासमुद्र में डूबा जाने पर, जब सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वायु, अग्नि इत्यादि का अस्तित्व नहीं रह जाता हैं और सम्पूर्ण जगत अन्धकार मय हो जाता हैं। ऐसे समय पर भगवान् विष्णु हजारों वर्षों की योगनिद्रा में शयन करते हैं एवं अंत में राजस रूप धारण कर, समस्त लोकों की रचना करते हैं। श्री हरि विष्णु का वह राजस रूप, श्रृष्टि उत्पन्न कर्ता, पञ्च मुख, तथा वेद-वेदांगों का ज्ञाता था ब्रह्मा तथा उसी समय इनके साथ तमोमय (तमो गुण सम्पन्न), त्रिलोचन पुरुष का भी प्राकट्य होता हैं, जिन्हें शंकर नाम से जाना जाता हैं। अहंकार वश दोनों अवतार शंकर तथा ब्रह्मा आक्रांत हो गए तथा उनमें परस्पर वाद विवाद होने लगा, कि कौन महान हैं। इसके पश्चात् भगवान् शिव, ब्रह्मा जी से पराजित से हो गए तथा राहुग्रस्त चन्द्रमा के समान दीन एवं अधोमुख होकर खड़े हो गए।
शंकर से पराजित होने जाने पर, क्रोध से अंधे हुए ब्रह्मा जी के पांचवे मुँह ने रुद्र से कहा ! मैं आपको जनता हूँ, आप दिगंबर, लोकों को नष्ट करने वाले प्रलयंकारी हैं, इस पर भगवान् शिव अपने तीसरे नेत्र से ब्रह्मा जी को भस्म करने की इच्छा से देखने लगे। शंकर जी के स्वेत, रक्त, स्वर्णिम, नील और पिंगल वर्ण के पांच मुख एक समान हो गए। शंकर जी के सूर्य के समान दीप्त मुखों को देख कर ब्रह्मा जी ने कहा, जलमें आघात करने पर बुलबुले तो उत्पन्न होते हैं, परन्तु क्या उन में किसी प्रकार की शक्ति होती हैं ?

शिव जी द्वारा ब्रह्मा जी के पांचवे मस्तक का काटना एवं उनके बाएँ हाथ पर चिपकना तथा शिव जी का बद्रिकाश्रम जाना।

इस पर शिव जी ने क्रोध में भर कर अपने नख के अग्र भाग से ब्रह्मा जी के इस प्रकार कहने वाले मुख को काट डाला। शंकर जी द्वारा कटा हुआ ब्रह्मा जी का मस्तक उन्हीं के बाम हथेली में जा गिरा तथा चिपक गया, बहुत प्रयास करने पर भी शंकर जी ब्रह्मा जी के कटे हुए मस्तक को अपने हथेली से अलग नहीं कर पाए। इस पर ब्रह्मा जी बहुत क्रुद्ध हो गए तथा उन्होंने कवच-कुंडल एवं शर शरण करने वाले विशाल बहु वाले एक पुरुष की रचना की। वह पुरुष सूर्य के समान तेजस्वी था, शक्ति तथा भरी तरकस धारण किये हुए था, उस पुरुष ने शिव जी से कहा ! तुम शीघ्र यहाँ से चले जाओ अन्यथा में तुम्हारा वध कर दूंगा, परन्तु तुम तो पाप युक्त हो; तुम जैसे बड़े पापी को कौन मरना चाहेगा। उस पुरुष के इस प्रकार कहने पर शिव जी लज्जित हो गए तथा बद्रिकाश्रम चले गए, जहाँ नर-नारायण का निवास हैं।

'कपाल' जिसे भगवान् शिव पात्र की तरह सर्वदा व्यवहार करते हैं, उनके बाम हाथ में शोभा पता हैं, कपाल धारण करने के कारण ही उन्हें 'कपाली' कहा जाता हैं।

शिव-पार्वती
शिव जी ने नर-नारायण को देख कर कहा; भगवान् में महा कपालिक हूँ, आप मुझे भिक्षा दे।
भगवान शिव के ऐसा कहने पर धर्मपुत्र नारायण ने उनसे कहा! तुम अपने त्रिशूल के द्वारा मेरी बाई भुजा पर आघात करो। शिव जी ने अति वेग से नारायण की भुजा पर आघात किया, जिससे नारायण जी की बाई भुजा से तीन धाराएं निकली। उन तीन धाराओं में से एक से आकाश में स्थित ताराओं से मण्डित आकाश गंगा का निर्माण हुआ, एक धारा पृथ्वी पर गिरी जिसे अत्रि ऋषि ने प्राप्त किया (मन्दाकिनी नदी), तीसरी धारा भगवान् शिव के हाथ में चिपकी हुई कपाल पर गिरी, जिससे एक श्याम वर्ण वाले शिशु का जन्म हुआ, जो अपने हाथों में धनुष तथा बाण लिए हुए था। भगवान् शिव ने उस बालक से, जिसका जन्म नारायण की बाहू से हुआ था, जो सूर्य के सामन तेजस्वी था, ब्रह्मा जी से उत्पन्न उस पुरुष को मरने के लिए कहा।
तदनंतर, नारायण की भुजा से तथा ब्रह्मा जी से उत्पन्न दोनों पुरुषों में सहस्त्रों वर्षों तक घोर युद्ध होता रहा। तत्पश्चात् शिव जी, ब्रह्मा जी के पास गए तथा कहा! मेरे पुरुष ने आपके पुरुष को जीत लिया हैं, ब्रह्मा जी ने कहा कि उनका पुरुष अजित हैं तथा उसका जन्म दूसरों से पराजित होना नहीं हैं, मेरा पुरुष तो महाबली हैं। ऐसा कहने पर शिव जी ने, ब्रह्मा जी के पुरुष को सूर्य मंडल में उछाल कर धर्म पुत्र नारायण द्वारा उत्पन्न पुरुष के शारीर में फेंक दिया।

ब्रह्महत्या का भगवान् शिव के शरीर में प्रवेश करना तथा शिव जी द्वारा ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति हेतु नाना तीर्थों में स्नान करना, अंत में विष्णु जी के शरण में जाना।

शिव जी को अपने बाम हाथ के करतली में चिपके हुए भयंकर कपाल के सट जाने के कारण बड़ी चिंता हुई, वे व्याकुल हो गए थे, उन्हें बड़ा संताप हुआ। तदनंतर, कालिख के वर्ण वाली गहरे नील रंग की, रक्त वर्ण रंग के केश वाली भयंकर ब्रह्महत्या भगवान् शिव के सन्मुख प्रकट हुई। उस घोर विकराल स्त्री को देख कर, शिव जी ने उससे पूछा ! तुम कौन हो तथा यहाँ किस उद्देश्य से प्रकट हुई हो। उस घोर स्वरूप वाली स्त्री ने शिव जी से कहा ! मैं ब्रह्महत्या हूँ; अप मुझे स्वीकार करे, में इसी कारण अप के पास आई हूँ। ऐसा कहते हुए, संताप से युक्त शिव के के शरीर में ब्रह्महत्या समा गयी। ब्रह्महत्या से अभिभूत हो शिव जी पुनः बद्रिकाश्रम आये, परन्तु, नर तथा नारायण ऋषियों ने उन्हें दर्शन नहीं दिया। उन दोनों ऋषियों को न देख, शिव जी यमुना जी में स्नान करने गए परन्तु यमुना का जल शिव जो को देख सूख गया, यमुना जी को निर्जल देख वे सरस्वती नदी में स्नान करने गए, परन्तु वो भी वहाँ से लुप्त हो गई।
इसके पश्चात् शिव जी पुष्कर, धर्मारण्य, सैंधवारण्य में जा कर बहुत समय तक पवित्र स्नान किया, नैमिषारण्य तथा सिद्धपुर में भी गए तथा स्नान किया, परन्तु उस घोर ब्रह्महत्या ने उन्हें नहीं छोड़ा। उन्होंने अनेक नदियों में पवित्र स्नान किये, तीर्थों, आश्रमों, देव मंदिरों में गए, वे स्वयं योगी थे परन्तु किसी भी प्रकार से उन्हें ब्रह्महत्या से मुक्ति नहीं मिली। अंततः, शिव जी खिन्न हो कुरुक्षेत्र गए, वहाँ पर उन्होंने चक्रपाणि भगवान् श्री हरि विष्णु को देखा, उन्होंने शंख, चक्र, गदा धरी पुंडरीकाक्ष की हाथ जोड़ कर स्तुति की।

शिव जी द्वारा, ब्रह्महत्या के पाप से निवृत्ति हेतु भगवान् श्री हरि विष्णु की स्तुति करना तथा भगवान् विष्णु द्वारा वाराणसी में जा स्नान आदि करने का उपाय बताना।

भगवान् श्री हरि विष्णु की स्तुति वंदना कर, शिव जी ने उनके ब्रह्महत्या के पाप बंधन से मुक्ति हेतु, उनसे प्रार्थना की। इस पर चक्रधारी श्री विष्णु ने भगवान् शिव से कहा ! वहाँ से पूर्व की ओर प्रयाग में उनके अंश अवतार 'योगशायी' नाम के एक प्रसिद्ध देवता हैं। वही पर उनके दक्षिण चरण से 'वरणा' नाम की श्रेष्ठ नदी निकली हैं; वह नदी सब पापों को हरने वाली तथा पवित्र हैं तथा उनके वाम पद से 'असि' नाम की दूसरी नदी हैं, ये दोनों नदियाँ लोक पूज्य तथा श्रेष्ठ हैं। उन दोनों नदियों के मध्य प्रदेश योगशायी का क्षेत्र हैं तथा वह तीर्थ सब प्रकार के पापों से मुक्त कर देने वाला हैं। उस तीर्थ के समान अन्य कोई पवित्र करने में सक्षम तीर्थ तीनों लोकों में नहीं हैं, उस नगरी को वाराणसी के नाम से जानते हैं। वाराणसी नाम के तीर्थ में भगवान् 'लोल' नामक सूर्य का वास हैं, वही पर दशाश्वमेध नाम का स्थान पर उनके अंश स्वरूप केशव स्थित हैं, वहा जा कर आप पाप से मुक्त प्राप्त कर सकते हैं।
तदनंतर भगवान् शिव ने, श्री हरि विष्णु को मस्तक झुका कर प्रणाम किया तथा वाराणसी गए। वहाँ जाकर, शिव जी ने तीर्थ नगरी में दशाश्वमेध के साथ असी स्थान में स्थित भगवान् लोलार्क का दर्शन किया, वहाँ पर स्नान कर वे पाप मुक्त हुए गए तथा वे वरुण संगम पर केशव के दर्शन हेतु गए। भगवान् केशव का दर्शन कर, शिव जी ने हृषीकेश भगवान् से कहा; आप की कृपा से ब्रह्महत्या से मुझे मुक्ति मिली परन्तु, यह कपाल मेरे हाथ से अलग नहीं हो रहन हैं। आप ही मुझे इसका उपाय बता सकते हैं।
महादेव के वचन सुन कर, श्री हरि केशव बोले ! मेरे सामने कमलों से भरा जो ये दिव्य सरोवर हैं, यह परम पवित्र तथा तीर्थों में श्रेष्ठ हैं, आप इस परम श्रेष्ठ सरोवर में स्नान करे, स्नान करने मात्र से ही यह कपाल आप का साथ छोड़ देगा। इस कारण अप इस जगत में 'कपाली' नाम से प्रसिद्ध होंगे तथा यह तीर्थ भी कपाल मोचन नाम से प्रसिद्ध होगा। श्री केशव भगवान् के कथनानुसार, शिव जी ने उस सरोवर में वेदोक्त विधि से स्नान किया, परिणामस्वरूप उनके हथेली से कपाल अलग हो गया, तभी से उस तीर्थ का नाम कपालमोचन पड़ा।

भगवान् शिव इस प्रकार कपाली नाम से विख्यात हुए। प्रजापति दक्ष ने इसी कारण शिव जी को अपने यज्ञ अनुष्ठान में निमंत्रित नहीं किया था, सती जो दक्ष की कन्या थी तथा आदि शक्ति की अवतार, उन्हें एक कपाली की पत्नी मान कर यज्ञ में नहीं बुलाया गया। प्रजापति दक्ष ब्रह्मा जी के पुत्र थे, इसी कारण वे सर्वदा शिव जी से द्वेष रखते थे, उनसे घृणा करते थे। वास्तव में देखा जाये तो, शिव जी कुपात्र को सुपात्र बनाने का कार्य करते हैं, एक मृत देह का कपाल जो निरर्थक तथा निर्गुण हैं, उसे वे तथा उनके अनुचर भोजन पात्र के रूप में व्यवहार करते हैं, उसी में ब्रह्म की अनुभूति कर उसी की पूजा करते हैं सर्वदा अपने साथ रखते हैं।

प्रयाग तथा वाराणसी (काशी) का महत्व।

भारत वर्ष में हिमवान् तथा विंध्य-गिरि के बीच का भाग अत्यंत पुण्यदायक माना गया हैं, इसमें गंगा तथा यमुना के बीच का भाग पृथ्वी की अंतर्वेदी हैं। नैमिषारण्य स्वर्ग के समान हैं, इन सबसे भी उत्तम तीर्थ प्रयाग हैं, तीर्थ-राज प्रयाग भोग, मोक्ष तथा मनोवांछित फलों को देने वाला हैं। एक समय ब्रह्मा जी ने समस्त यज्ञों को तराजू के एक ओर रखा और दूसरी ओर प्रयाग को रखा तो प्रयाग का पलड़ा भारी रहा। अनेक जन्मों के संचित पाप, जिनका व्रत, तप, दान इत्यादि से भी दूर होना दुःसाध्य हैं, वह पाप प्रयाग में नष्ट हो जाता हैं। मनुष्य का शरीर सात धातुओं का बना हुआ हैं तथा समस्त धातुओं के पाप मनुष्य के केशों में आ कर ठहर जाते हैं तथा काशों का मुंडन करने पर समस्त पाप निकल जाते हैं, प्रयाग में मुंडन करने से मनुष्य के सब पाप नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार निष्पाप हो कर गंगा तथा यमुना के सलिल के संगम पर स्नान करना चाहिये, सत्यलोक तथा प्रयाग में कोई अंतर नहीं हैं।
तीर्थ-राज प्राग से भी श्रेष्ठ काशी या वाराणसी को माना गया हैं, यहाँ पर केवल देहवासन, दाह संस्कार होने से मुक्ति मिलती हैं या मोक्ष प्राप्त होता हैं। यहाँ साक्षात् विश्व नाथ निवास करते हैं, इसे अविमुक्त जाना जाता हैं, यह वो क्षेत्र हैं जहाँ भगवान् शिव को ब्रह्महत्या से मुक्ति प्राप्त हुए थी। प्रलय काल में एकार्णव का जल जैसे जैसे बढता हैं, वैसे-वैसे शिव जी काशी को ऊपर उठाते हैं, यह क्षेत्र शव जी के त्रिशूल के नोक में स्थित हैं। न तो ये आकाश में स्थित हैं और न ही भूमि पर, यहाँ सर्वदा ही सत्य-युग लगा रहता हैं, ग्रहों का दोष नहीं प्राप्त होता हैं, यहाँ सर्वदा मंगल ही मंगल हैं। काशी के निर्माता स्वयं विश्वनाथ जी हैं, यहाँ रह कर पाप करने वालो को दंड देने का अधिकार केवल काल भैरव का हैं, जो काशी के द्वार पाल हैं। यहाँ पाप करने वालो को दारुण रुद्र यातना भोगनी पड़ती हैं, जो नरक से भी अति दुसह हैं, पाप करने वालो के लिए काशी नरक के समान हो जाती हैं। यहाँ रहने वाले लोगो को, अन्य दूसरे को पीड़ा देने वाला कर्म नहीं करना चाहिए, पृथ्वी में सत ज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता हैं; शुद्ध बुद्धि से काशी में पुण्य का उपार्जन करना चाहिये। काशी में जप, तप तथा योग के बिना एक ही जन्म में कल्याण की प्राप्ति हो जाती हैं।

मणिकर्णिका घाट श्मशान, वाराणसी या कशी।

मणिकर्णिका घाट, वाराणसी या कशी

ज्वलंत चिता में विराजमान भैरवी

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