गदाधर चट्टोपाध्याय या रामकृष्ण परमहंस, दक्षिणेश्वर के ठाकुर

रामकृष्ण परमहंस (गदाधर चट्टोपाध्याय)

रामकृष्ण परमहंस, बचपन में गदाधर चट्टोपाध्याय नाम से जाने जाते थे।
जन्म : १८, फरवरी १८३६, कामारपुकुर नमक गाँव, हुगली जिला, पश्चिम बंगाल, भारत, के एक गरीब वैष्णव ब्राह्मण परिवार में।
मृत्यु या महा समाधि : १६, अगस्त १८८६, कोलकाता शहर, गले में कैंसर के कारण।
पिता : खुदीराम चट्टोपाध्याय।
माता : चंद्रमणि देवी।
गुरु : भैरवी और तोतापरी।
विवाह : सरदामणि मुखोपाध्याय, २३ साल की आयु में विवाह।

इन्होंने अपना पूरा जीवन माँ काली, जिन्हें वे भव तारिणी (भव सागर से तारने वाली) कहते थे, की सेव-साधना में व्यतीत किया। शक्ति संप्रदाय में तांत्रिक पद्धति के विपरीत, भक्ति भाव को अधिक श्रेष्ठ माना तथा यह सिद्ध भी किया। कोलकाता की महारानी रासमुनि का मंदिर जो आज दक्षिणेश्वर नाम से प्रसिद्ध हैं, गादाइ या गदाधर वहाँ के पुजारी हुए।
शिष्य ( गृहस्थ वर्ग से ) : गिरीश चन्द्र घोष (नाटक या थिएटर के निर्देशक), महेन्द्रनाथ गुप्ता (शिक्षक तथा प्रधानाचार्य), महेंद्र नाथ सरकार (एलोपैथी से होमियोपैथी में परिवर्तित चिकित्सक, समाज सेवक), अक्षय कुमार सेन (लेखक) इत्यादि।
संन्यासी शिष्य : स्वामी विवेकानंद या नरेंद्र नाथ दत्त (आध्यात्मिक गुरु, समाज सेवी), रामकृष्ण मिशन के संस्थापक; राखल चन्द्र घोष (स्वामी ब्रह्मानंद), कालीप्रसाद चन्द्र (स्वामी अभेदानन्द), तारकनाथ घोषाल (स्वामी शिवानंद), सशिभूषण चक्रवर्ती (स्वामी रामकृष्णानन्द), सरतचन्द्र चक्रवर्ती (स्वामी सरदानन्द), तुलसी चरण दत्त (स्वामी निर्मलानंदा), गंगाधर घटक (स्वामी अखंडानंद), हरी प्रसन्न (स्वामी विज्ञानानंद) इत्यादि।

रामकृष्ण परमहंस

Ramkrishna Paramahansa

रामकृष्ण परमहंस

रामकृष्ण परमहंस! एक महान संत, शक्ति साधक तथा समाज सुधारक थे। इन्होंने अपना सारा जीवन निःस्वार्थ मानव सेवा के लिये व्यतीत किया, इनके विचारों का कोलकाता के बुद्धिजीवियों पर गहरा सकारात्मक असर पड़ा तथा वे सभी इन्हीं की राह पर चल पड़े। छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच इत्यादि समाज के नाना प्रकार के नियमों को मानने के विपरीत, निःस्वार्थ मानव सेवा का आश्रय लेकर, विभिन्न धर्म को मानने वालों को एक करने में इन्होंने अपना सारा जीवन व्यतीत कर दिया। वे अपनी बातों या विचारों को प्रकट करने हेतु, अधिकतर छोटी-मोटी कहानियों का सहारा लेते थे। बचपन से ही इन्हें धर्म या अध्यात्म के प्रति विशेष रुचि थी तथा पारम्परिक विद्या अर्जन, सामाजिक नीतियों का इन्होंने त्याग किया एवं स्वयं के अनुसार ही चले। ज्ञान अर्जन का माध्यम जो पाठशाला से प्राप्त होता हैं, जिसे सामान्यतः भविष्य में धन उपार्जन करने हेतु किया जाता हैं, बचपन में इन्होंने इसका विरोध किया।
बचपन से ही गदाधर ईश्वर पर अडिग आस्था रखते थे, ईश्वर के अस्तित्व को समस्त तत्वों में मानते थे तथा ईश्वर के प्राप्ति हेतु इन्होंने कठोर साधना भी की, ईश्वर प्राप्ति को ही सबसे बड़ा धन मानते थे। अंततः इन्होंने सभी धर्मों को एक माना तथा ईश्वर प्राप्ति हेतु केवल अलग-अलग मार्ग सिद्ध किया। अपने विचारों से सर्वदा, सभी धर्मों के मेल या भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वालों की एकता में इन्होंने अपना अहम योगदान दिया। गदाधर, माँ काली के परम भक्त थे, अपने दो गुरुओं! १. योगेश्वरी भैरवी तथा २. तोतापरी के सान्निध्य में इन्होंने सिद्धि प्राप्त की या ईश्वर के साक्षात् दर्शन हेतु कठिन तप किया एवं सफल हुए। इन्होंने मुस्लिम तथा ईसाई धर्म की भी साधनाएँ की और सभी में एक ही ईश्वर को देखा।

पारिवारिक परिचय तथा कोलकाता, दक्षिणेश्वर में आगमन।

इनका वास्तविक नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था; इन्होंने सभी धर्मों और जातियों की एकता तथा समानता हेतु जीवन भर कार्य किया, परिणामस्वरूप इन्हें राम-कृष्ण नाम सर्व सादाहरण द्वारा दिया गया एवं इनके उदार विचार जो सभी के प्रति सम भाव रखते थे, के कारण परमहंस की उपाधि प्राप्त हुई।
इनका जन्म १८ फ़रवरी १८३६, बंगाल प्रांत, हुगली जिले के कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके पिताजी का नाम खुदीराम चट्टोपाध्याय तथा माता का नाम चंद्रमणि देवी था। गदाधर के जन्म के पहले से ही, इनके माता-पिता को कुछ ऐसी अलौकिक लक्षणों का अनुभव होने लगा था, जिसके अनुसार वे यह समझ गए थे की कुछ शुभ होने वाला हैं। इनके पिता ने सपने में भगवान विष्णु को अपने घर में जन्म लेते हुए देखा तथा माता को शिव मंदिर में ऐसा प्रतीत हुआ कि! एक तीव्र प्रकाश इन के गर्व में प्रवेश कर रहा हैं। बाल्य काल, यानी ७ वर्ष की अल्पायु में इनके पिता का देहांत हो गया तथा परिवार के सनमुख आर्थिक संकट प्रकट हुआ, परन्तु इन्होंने कभी हार नहीं मानी।

इनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय, जो कोलकाता में एक पाठशाला का सञ्चालन करते थे, इन्हें अपने साथ कोलकाता लेकर आये; परन्तु बहुत प्रयासों के पश्चात भी इनका मन अध्यापन में नहीं लगा। कोलकाता की महारानी रसमुनि ने, इनके बड़े भाई रामकुमार को अपने काली मंदिर के प्रधान पुजारी के पद पर नियुक्त किया। साथ ही गदाधर भी अपने बड़े भाई के साथ, मंदिर के कार्यों में सहायता करते थे। मंदिर में अवस्थित काली प्रतिमा को गदाधर सजाने संवारने का कार्य करते थे। १८५६ में इनके बड़े भाई रामकुमार के मृत्यु के पश्चात, गदाधर काली मंदिर के पुरोहित के पद पर नियुक्त किये गए। इस काल तक वे सर्वदा ध्यान मग्न रहते थे तथा मंदिर में उपस्थित काली की प्रतिमा को संपूर्ण ब्रह्माण्ड कि जननी या माता के रूप में देखते थे।

देवी शारदामणि से गदाधर का विवाह।

मंदिर में सर्वदा ध्यान मग्न रहने के कारण, कुछ लोगों ने यह भ्रम फैला दिया कि! गदाधर पागल हो गए या उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया हैं। परिणामस्वरूप, इनकी माता तथा बड़े भाई ने इनका विवाह करने का निश्चय किया, उनकी धरना थी कि विवाह पश्चात के कर्तव्य के पालन हेतु इनका मानसिक संतुलन ठीक हो जायेगा। सन १८५९, २३ वर्ष की आयु में ५ वर्ष की आयु वाली कन्या शारदामनि मुख़र्जी से गदाधर का विवाह सम्पन्न हुआ, जो पास ही ३ मिल दूरी पर स्थित ग्राम जयरामबाटी की थी। विवाह के पश्चात शारदामनि अपने मायके में ही रहती थी, तथा १५ वर्ष की आयु पूर्ण होने के पश्चात अपने पिता के साथ वे कोलकाता अपने पति गदाधर के पास आई तथा रहने लगी; परन्तु वे दोनों ही संन्यासी जीवन व्यतीत करते थे। मायके से कोलकाता आने के पश्चात शारदा देवी ने अपने पति गदाधर से पूछा! आप की कोई संतान नहीं होगी क्या? गदाधर ने उत्तर दिया इस संसार के सभी प्राणी तुम्हारे और मेरे संतान हैं, तुम तो अनगिनत संतानों की माता हो।

वैराग भाव, आध्यात्मिक साधना तथा विचार।

अपने बड़े भाई की मृत्यु पश्चात गदाधर बड़े उद्विग्न रहने लगे, इस घटना से वे अत्यंत व्यथित हुए तथा उनके मन में वैराग्य का उदय हुआ एवं बढ़ता ही गया; परिणामस्वरूप वे पंचवटी के वन में सर्वदा ही ध्यान मग्न रहने लगे। सर्वदा ही वे ऐसा कार्य करते थे जिससे उन्हें देवी माँ के दर्शन प्राप्त हो सकें, काली माँ के दर्शन पाने हेतु वे पागल हो गए। एक दिन योगेश्वरी भैरवी नाम की साधिका का दक्षिणेश्वर में आगमन हुआ तथा उन्होंने उनसे तंत्र की दीक्षा ली, उन्हीं के सान्निध्य में वे तांत्रिक साधना करने लगे तथा ईश्वर साक्षात्कार में सफल हो सके। इसके अलावा उन्होंने तोतापरी नाम के संन्यासी से अद्वैत वेदांत की दीक्षा भी ली तथा जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त किया, भेद-भाव रहित रहकर समाज के प्रत्येक वर्ग के साथ चले।

गदाधर, माँ काली के परम भक्त थे तथा दक्षिणेश्वर के मंदिर में विद्यमान काली-प्रतिमा या विग्रह में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देखते थे; वे योग तथा तंत्र पद्धति में पारंगत साधक तो थे ही, साथ ही उन्होंने श्रद्धा भाव-भक्ति युक्त साधना, भक्ति पर विशेष बल दिया तथा प्रचार भी किया। वे देवी काली को अपने हाथों से खिलाते थे, जो किसी भी प्रकार के मंत्र से उत्सर्ग नहीं होता था; केवल पवित्र मन तथा भक्ति भाव विभोर होकर वे देवी माँ को अंतर-आत्मा से पुकारते थे तथा माँ वह साक्षात् प्रकट होकर उनके हाथों से भोजन ग्रहण करती थी।
इनके परम शिष्य गिरीश चन्द्र घोष जो की नाटक कंपनी (थियेटर) के निर्देशक थे, परमहंस जी के विचारों से प्रेरित नाटकों का मंचन करते थे। समाज को एक नई दिशा की ओर ले जाना, जिसमें सभी समान हो तथा सभी का समग्र विकास हो, यही उनके नाटकों का मुख्य उद्देश्य होता था। गिरीश चन्द्र के प्रति परमहंस जी का आघात स्नेह भी था; कहा जाता हैं! इन्हीं के गले के कर्क रोग को परमहंस जी ने अपने शरीर में ले लिया था, जिससे उनकी मृत्यु हुई। परमहंस जी इस सम्पूर्ण चराचर जगत को माया रूप में देखते थे और यह माया अविद्या से ही जन्म ग्रहण करती है, ऐसा वे मानते थे। काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया इत्यादि मानव चेतना या विवेक को निम्न स्तर की ओर अग्रसर करता हैं तथा यह ही अविद्या का मूल कारण हैं, अंधकार हैं; ज्ञान रूपी प्रकाश से माया सम्बंधित दोषों या अन्धकार से दूर रहा जा सकता हैं। निःस्वार्थ सेवा या कर्म, उच्च आदर्श, आध्यात्मिक उन्नति हेतु भक्ति भाव, प्रेम, पवित्रता इत्यादि मनुष्य विवेक के सर्वोत्तम लक्षण हैं तथा मनुष्यों को सर्वदा ही उत्तम नियमों का पालन करना चाहिए।

शिष्य, विचार तथा महासमाधि।

सिद्धि प्राप्ति के पश्चात्, गदाधर की ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा बहुत से बुद्धिजीवी, संन्यासी एवं सामान्य वर्ग के लोग उनके संसर्ग हेतु दक्षिणेश्वर काली मंदिर आने लगे। सभी के प्रति उनका स्वभाव बड़ा ही कोमल था, सभी वर्गों तथा धर्मों के लोगों को वे एक सामान ही समझते थे। वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं होता था जो परमहंस जी नहीं जान पाते थे, माँ काली की कृपा से वे त्रिकाल दर्शी महा-पुरुष बन गए थे। रूढ़ि वादी परम्पराओं का त्याग कर, उन्होंने समाज सुधर में अपना अमूल्य योगदान दिया, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, विजयकृष्ण गोस्वामी, केशवचन्द्र सेन जैसे बंगाल के शीर्ष विचारक उनसे प्रेरणा प्राप्त करते थे। इसी श्रेणी में स्वामी विवेकानंद उनके प्रमुख अनुयाई थे, उनके विचारों तथा भावनाओं का स्वामी जी ने सम्पूर्ण विश्व में प्रचार किया तथा हिन्दू सभ्यता तथा संस्कृति की अतुलनीय परम्परा को प्रस्तुत किया। स्वामी जी ने परमहंस जी के मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जो सम्पूर्ण विश्व में समाज सेवा, शिक्षा, योग, हिन्दू दर्शन पर आधारित कार्यों में संलग्न रहती हैं तथा प्रचार करती हैं, इनका मुख्यालय बेलूर, पश्चिम बंगाल में हैं। रामकृष्ण परमहंस, ठाकुर नाम से जाने जाने लगे थे, बंगाली में ठाकुर शब्द का अभिप्राय ईश्वर होता हैं, सभी उन्हें इसी नाम से पुकारने लगे थे।

इनके अन्य अनुयाइयों या शिष्यों में नाटकों के निर्देशक गिरीश चन्द्र घोष थे, ठाकुर का उनके प्रति आघात स्नेह था। एक बार एक नाटक को देखने हेतु, उन्होंने अपना सर्वस्व उन्हें दे दिया था तथा गिरीश का सब कुछ अपने ऊपर ले लिया था। परिणामस्वरूप इनके गले में कर्क रोग हुआ तथा इसी रोग से इनकी मृत्यु हुई। रोग होने के पश्चात भी इन्होंने रोग पर कभी ध्यान नहीं दिया तथा अंत काल में वे अधिकतर समाधिस्थ रहने लगे थे, यहाँ तक की वे अपनी चिकित्सा भी नहीं करना कहते थे, स्वामी विवेकानंद चिकित्सा काराते रहे परन्तु किसी भी प्रकार की चिकित्सा का उनके रोग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अंततः १६ अगस्त १८८६ भोर होने से पहले ब्रह्म-मुहूर्त में इन्होंने महा-समाधि ली या कहे तो पञ्च तत्व के इस शरीर का त्याग कर ब्रह्म में विलीन हो गए।

ठाकुर के विचार बहुत ही अलग हुआ करते थे, एक बार स्वामी विवेकानंद को हिमालय पर जाकर तपस्या करने की बड़ी इच्छा हुई। वैसे भी हिन्दू दर्शन के अनुसार, हिमालय जा एकांत में तपस्या करने का विशेष महत्व हैं और आदि काल से ही ऐसे परम्परा चली आ रही हैं। इसके निमित्त जब विवेकानंद, गुरु आज्ञा हेतु ठाकुर से आज्ञा लेने गए तो उन्होंने कहा! हमारे आस पास बहुत से लोग भूख, बीमारी इत्यादि से तड़प रहे हैं, चारों ओर अज्ञान का अंधकार फैला हुआ हैं। यहाँ लोगों की अवस्था बहुत ही दारुण हैं, हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनंद को तुम्हारी आत्मा स्वीकार करेंगी? ठाकुर के ऐसे ही विचारों ने उन्हें, महान योगी, उत्कृष्ट साधक तथा समाज सुधारक बनाया। अंततः स्वामी जी यही रहें तथा दरिद्र को नारायण मानकर उनकी सेवा करने लगे एवं सेवा पथ को ही उन्होंने उपासना, साधना समझा।


माता भावतारिणी या काली, दक्षिणेश्वर, कोलकाता।

माता भावतारिणी दक्षिणेश्वर

रामकृष्ण परमहंस।

रामकृष्ण परमहंस