देवी त्रिपुर-भैरवी का घनिष्ठ सम्बन्ध 'काल भैरव' से हैं, जो जीवित तथा मृत दोनों अवस्थाओं में मनुष्य को अपने दुष्कर्मों के अनुसार दंड देते हैं, वे अत्यंत भयानक स्वरूप और उग्र स्वभाव वाले हैं। काल भैरव, स्वयं भगवान शिव के ऐसे अवतार हैं, जिनका घनिष्ठ सम्बन्ध विनाश से हैं तथा वे यम राज के अत्यंत निकट हैं। जीवात्मा को अपने दुष्कर्मों का दंड यम-राज या धर्म-राज के द्वारा दिया जाता हैं। त्रिपुर-भैरवी, काल भैरव तथा यम राज भयंकर स्वरूप वाले हैं, जिन्हें देख सभी भय से कातर हो जाते हैं। दुष्कर्म के परिणामस्वरूप विनाश तथा दंड, इन भयंकर स्वरूप वाले देवी-देवताओं की ही संचालित शक्ति हैं। देवी, कालरात्रि, महा-काली, चामुंडा आदि विनाशकारी गुणों से सम्बंधित देवियों के समान मानी जाती हैं।
समस्त विध्वंसक वस्तुओं या तत्वों से देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं जैसे श्मशान भूमि, अस्त्र-शस्त्र, मृत शव, रक्त, मांस, कंकाल, खप्पर, मदिरा पान, धूम्रपान इत्यादि। देवी के संगी साथी भी इन्हीं के समान गुणों तथा स्वभाव वाले ही हैं जैसे भूत-प्रेत, पिशाच, डाकिनी, भैरव, कुत्ते इत्यादि। देवी के उग्र स्वरूप के कारण, विपरीत एवं भयंकर परिणाम उन्हीं को भोगना पड़ता हैं जो दुष्ट प्रवृति के होते हैं। विनाश शक्ति स्वरूप में देवी, दुष्टों के सनमुख प्रकट हो उनका विनाश करती हैं और अंततः मृत्यु पश्चात दंड भी देती हैं। वास्तव में देवी भैरवी विनाश रूपी पूर्ण शक्ति हैं।
देवी भैरवी, कि शारीरिक कांति हजारों उगते हुए सूर्य के समान हैं तथा कभी-कभी देवी का शारीरिक वर्ण गहरे काले रंग के समान प्रतीत होती हैं, जैसे काली या काल रात्रि का हैं। नग्न अवस्था में देवी तीन खुले हुए नेत्रों से युक्त एवं मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए हैं तथा रुद्राक्ष, सर्पों और मानव खोपडियों से निर्मित माला से सुशोभित हैं। देवी के लम्बे काले घनघोर बाल हैं, चार भुजाओं से युक्त देवी अपने दायें हाथों में खड़ग तथा मानव खोपड़ी से निर्मित खप्पर धारण करती हैं तथा बायें हाथों से अभय तथा वर मुद्रा प्रदर्शित करती हैं। देवी अपने स्वाभाविक स्वरूप में अत्यंत भयंकर, प्रचंड डरावनी प्रतीत होती हैं, देवी हाल ही कटे हुए असुरों के मुंडो या मस्तकों की माला अपने गले में पहनती हैं, जिनसे रक्त की धार बह रही हो। देवी का मुखमंडल भूत तथा प्रेतों के समान डरावना तथा भयंकर हैं, देवी का प्राकट्य मृत देह या शव से हैं। देवी वह शक्ति हैं जिसके प्रभाव से ही मृत देह अपने-अपने तत्वों में विलीन होते हैं, फिर वह दाह संस्कार से हो या सामान्य प्रक्रिया से। शव दाह संस्कार, शव को सामान्य प्रक्रिया से शीघ्र पञ्च-तत्व में विलीन करने हेतु किया जाता हैं।
दुर्गा सप्तशती के अनुसार देवी त्रिपुर-भैरवी, महिषासुर नामक दैत्य के वध काल से सम्बंधित हैं। देवी लाल वस्त्र तथा गले में मुंड-माला धारण करती हैं समस्त शरीर एवं स्तनों में रक्त चन्दन का लेपन करती हैं। देवी, अपने दाहिने हाथों में जप माला तथा पुस्तक धारण करती हैं, बायें हाथों से वर एवं अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं एवं कमल के आसन पर विराजमान हैं। यह स्वरूप देवी का सौम्य स्वभाव युक्त होने पर हैं; भगवती त्रिपुर-भैरवी ने ही, अठारह भुजा युक्त दुर्गा रूप में उत्तम मधु का पान कर महिषासुर नामक दैत्य का वध किया था।
अत्यंत उग्र स्वरूप वाली देवी त्रिपुर-भैरवी ने ही भगवान शिव से उनकी पत्नी सती को अपने पिता के यज्ञ में जाने की अनुमति देने हेतु कहा था। भगवान शिव की पहली पत्नी सती के पिता, प्रजापति दक्ष (जो ब्रह्मा जी के पुत्र थे) ने एक यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने तीनों लोकों से समस्त प्राणियों को निमंत्रित किया। परन्तु दक्ष, भगवान शिव से द्वेष करते थें, उन्होंने शिव से सम्बंधित किसी को भी अपने यज्ञ आयोजन में आमंत्रित नहीं किया था। देवी सती ने देखा की तीनों लोकों से समस्त प्राणी उनके पिता जी द्वारा आयोजित यज्ञ आयोजन में जा रहे हैं, उन्होंने अपने पति भगवान शिव से अपने पिता के घर जाने कि अनुमति मांगी। भगवान शिव, दक्ष के व्यवहार से भली प्रकार परिचित थे, उन्होंने सती को अपने पिता के घर जाने की अनुमति नहीं दी तथा नाना प्रकार से उन्हें समझने की चेष्टा की। परन्तु देवी सती नहीं मानी और अत्यंत क्रोधित हो गई, देवी के क्रोध से दस महा शक्तियां वहां प्रकट हुई, जो देवी को एक घेरे में लिए खड़ी हुई थीं। उनमें से एक घोर काले वर्ण की देवी भी थीं, जिन्होंने अपने तथा अन्य उपस्थित शक्तिओं के प्रभाव एवं गुणो का भगवान शिव को परिचय दिया तथा उनसे निश्चिंत रहने हेतु प्रार्थना की, वह देवी काल स्वरूपीणी भैरवी ही थीं। परिणामस्वरूप, भगवान शिव ने अंततः अपनी पत्नी दक्ष-कन्या सती को अपने पिता के यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी।
देवी विनाश या विध्वंस के रूप में ही अपने पिता के यज्ञ अनुष्ठान में गई थीं, जहाँ पति निंदा सुनकर देवी ने अपने आप को यज्ञ में भस्म कर दिया था तथा दक्ष के यज्ञ के महा-विनाश की कारक बनी।
महाकाली-उग्र तारा इत्यादि महाविद्याओं के समान देवी भैरवी, श्मशान भूमि तथा समस्त विध्वंसक तत्त्वों से हैं, देवी श्मशान वासिनी हैं। शव या मृत देह, देवी का आसन हैं एवं शव से ही देवी प्रादुर्भूत होती हैं। देवी मांस तथा रक्त प्रिया हैं तथा शव पर ही आरूढ़ होती हैं। भगवती त्रिपुर-भैरवी, ललित या महा त्रिपुरसुंदरी देवी की रथ वाहिनी या सारथी हैं तथा योगिनियों की अधिष्ठात्री या स्वामिनी के रूप में विराजमान हैं।
आगम ग्रंथों के अनुसार! एक दिन यह समस्त चराचर जगत देवी में ही विलय हो जायेगा। देवी भैरवी दृढ़ निश्चय का भी प्रतीक हैं, इन्होंने ही पार्वती के स्वरूप में भगवान शिव को पति रूप में पाने का दृढ़ निश्चय किया था तथा जिनकी तपस्या को देख सम्पूर्ण जगत दंग एवं स्तब्ध रहा गया था। देवी के भैरव, बटुक हैं तथा भगवान नृसिंह शक्ति हैं, देवी की शक्ति का नाम काल रात्रि तथा भैरव काल भैरव हैं।
देवी, अपने अन्य नमो से भी प्रसिद्ध हैं और सभी सिद्ध योगिनियाँ हैं; १. त्रिपुर-भैरवी २. कौलेश भैरवी 3. रुद्र भैरवी ४. चैतन्य भैरवी ५. नित्य भैरवी ६. भद्र भैरवी ७. श्मशान भैरवी ८. सकल सिद्धि भैरवी ९. संपत-प्रदा भैरवी १०. कामेश्वरी भैरवी इत्यादि।
देवी, कि साधना घोर कर्मों से सम्बंधित कार्यों में की जाती हैं। देवी, मनुष्य के स्वभाव या दिनचर्या से वासना, लालच, क्रोध, ईर्ष्या, नशा तथा भ्रम को मुक्त कर योग साधना में सफलता हेतु सहायता करती हैं। समस्त प्रकार के विकारों या दोषों को दूर कर ही मनुष्य योग साधना के उच्चतम स्तर तक पहुँच सकता हैं अन्यथा नहीं। कुण्डलिनी शक्ति जाग्रति हेतु, समस्त प्रकार के मानव दोषों या अष्ट पाशों का विनाश आवश्यक हैं तथा यह शक्ति देवी त्रिपुर-भैरवी द्वारा ही प्राप्त होती हैं।