मनुष्यों के सामान ही अन्य देहधारी, सूक्ष्म तथा परा जीव और अलौकिक शक्तियां।

भिन्न-भिन्न प्रकार की अलौकिक शक्तियां।

हिन्दू धर्म में कई प्रकार की अलौकिक शक्तिओं का वर्णन प्राप्त होता हैं, जिसके प्रभाव से मनुष्य अपने नाना प्रकार की कामनाओं तथा भोगो को प्राप्त करने में सक्षम होता हैं। इंद्रजाल के तहत कई प्रकार की अचंभित कर देने वाली शक्तियां विद्यमान हैं, जिन्हें जादू या चमत्कार कहा जाता हैं। मारन, वशीकरण, स्तंभन, उच्चाटन, मोहन! काला जादू की श्रेणी में आते हैं तथा मनुष्यों के हितार्थ तथा अहितार्थ दोनों कर्मों में प्रयोग किये जा सकते हैं। तंत्रों में व्याप्त कई प्रकार की साधनायें जातक को इच्छित भोग प्रदान करने में समर्थ हैं। मनुष्यों की तरह ही देह-धरी तथा विवेक-शील! देवता, यक्ष, नाग, किन्नर, राक्षस, नायिका, पिसाच, डाकिनी, भूत, प्रेत होते हैं; परन्तु यह अधिकतर सूक्ष्म तथा परा रूप धारी होते हैं। परन्तु यह सभी अपने स्वाभाविक या प्राकृतिक गुणों के अनुसार मनुष्यों से पृथक तथा भिन्न हैं तथा अपने अंदर विशेष प्रकार की भिन्न-भिन्न अलौकिक शक्तिओं को समाहित किया हुए हैं। इनके निवास स्थान भी अलग-अलग ब्रह्माण्ड के नाना सूक्ष्म, स्थूल तथा परा स्थलों में विद्यमान हैं; मनुष्य जैसे भूमि या पृथ्वी के वासी हैं, वैसे ही देवता! स्वर्ग-लोक के वासी हैं; गन्धर्व! गन्धर्व-लोक के, नाग! नाग-लोक के जो पाताल या पृथ्वी के अंदर हैं वासी हैं। सभी सूक्ष्म, परा तथा स्थूल जीवों के निवास स्थान! भिन्न-भिन्न लोक हैं, जो पाताल, आकाश, वायु तथा पृथ्वी में स्थित हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार यह सभी प्राणी भिन्न-भिन्न कार्यों का निर्वाह करते हैं तथा मनुष्यों को इच्छित भोग भी प्रदान करते हैं। भूत-प्रेत, पिसाच, डाकिनी, योगिनियों का सम्बन्ध भोग, जादुई तथा अलौकिक शक्तिओं से हैं एवं यह सभी अचंभित कर देने वाले कृत्यों के संचालक हैं।

प्राचीन यक्ष तथा यक्षिणी की शिला मूर्ति।

प्राचीन यक्ष तथा यक्षिणी की शिला मूर्ति

निधिपति यक्ष तथा यक्षिणी।

यक्ष-यक्षिणी, यह एक प्रकार के प्रेत हैं जो भूमि में गड़े हुऐ गुप्त निधि (खजाना) के रक्षक हैं, इन्हें निधि-पति भी कहा जाता हैं। इनके सर्वोच्च स्थान पर निधि-पति कुबेर विराजित हैं तथा देवताओं के निधि रक्षक हैं, जैन और बौद्ध धर्म में भी निधिपति कुबेर का वर्णन हैं। यह देहधारी होते हुए भी शूक्ष्म रूप धारण कर या प्रेत रूप युक्त हो, जहाँ-तहाँ विचरण करने में समर्थ हैं। इनका प्रमुख कर्म धन से सम्बंधित हैं, यक्ष गुप्त धन या निधियों की रक्षा करते हैं तथा समृद्धि, वैभव, राज पाट के स्वामी हैं। आदि काल से मनुष्य धन से सम्पन्न होने हेतु एवं अपने धन की रक्षा हेतु, यक्षों की आराधना करते हैं; भिन्न-भिन्न यक्षों की प्राचीन पाषाण प्रतिमा भारत के विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं, जो खुदाई से प्राप्त हुए हैं।
तंत्रो के अनुसार मुख्यतः रतिप्रिया, सुसुन्दरी, अनुरागिनी, जलवासिनी, वटवासिनी यक्षिणियों का वर्णन प्राप्त हैं। तंत्र-ग्रंथों में यक्षिणी तथा यक्ष साधना के विस्तृत विवरण प्राप्त होता हैं।

योगिनियाँ, देवी पार्वती के संग सर्वदा रहने वाली सखियाँ।

योगिनियाँ! साक्षात् आदि शक्ति के ही अवतार हैं तथा सर्वदा ही शिव अर्धाग्ङिनी या पत्नी सती-पार्वती के संग रहते हुए इनकी सेवा करती हैं। घोर नामक दैत्य से साथ युद्ध करते हुए आदि शक्ति ने ही समस्त योगिनियों के रूप में अवतार लिया। योगिनियां! देवी पार्वती की घनिष्ठ तथा अनुसरण करने वाली सखियाँ हैं, देवी द्वारा लड़े गए प्रत्येक युद्ध में समस्त योगिनियों ने भाग लिया तथा असादाहरण वीरता तथा योग्यता का परिचय दिया। महा विद्याएं, सिद्ध विद्याएं भी योगिनियों की श्रेणी में आते हैं तथा सभी आद्या शक्ति के ही भिन्न-भिन्न अवतारी अंश हैं। समस्त योगिनियाँ, अपने अंदर नाना प्रकार के अलौकिक शक्तिओं से सम्पन्न हैं तथा इंद्रजाल, जादू, वशीकरण, मारण, स्तंभन कर्म इन्हीं के कृपा द्वारा ही सफल हो पाते हैं। मुख्य रूप से योगिनियाँ! अष्ट तथा चौंसठ रूपों में विख्यात हैं, जो अपने गुणों तथा स्वभाव से भिन्न-भिन्न रूप धारण करती हैं।

अष्ट योगिनियाँ: १. सुर-सुंदरी योगिनी, २. मनोहरा योगिनी ३. कनकवती योगिनी ४. कामेश्वरी योगिनी, ५. रति सुंदरी योगिनी ६. पद्मिनी योगिनी ७. नतिनी योगिनी ८. मधुमती योगिनी, नाम से जानी जाती हैं।

चौसठ योगिनी: १. बहुरुप २. तारा ३. नर्मदा ४. यमुना ५. शांति ६. वारुणी ७. क्षेमंकरी ८. ऐन्द्री ९. वाराही १०. रणवीरा ११. वानर-मुखी १२. वैष्णवी १३. कालरात्रि १४. वैद्यरूपा १५. चर्चिका १६. बेतली १७. छिन्नमस्तिका १८. वृषवाहन १९. ज्वाला कामिनी २०. घटवार २१. कराकाली २२. सरस्वती २३. बिरूपा २४. कौवेरी २५. भलुका २६. नारसिंही २७. बिरजा २८. विकतांना २९. महा लक्ष्मी ३०. कौमारी ३१. महा माया ३२. रति ३३. करकरी ३४. सर्पश्या ३५. यक्षिणी ३६. विनायकी ३७. विंद्या वालिनी ३८. वीर कुमारी ३९. माहेश्वरी ४०. अम्बिका ४१ कामिनी ४२. घटाबरी ४३. स्तुती ४४. काली ४५. उमा ४६. नारायणी ४७. समुद्र ४८. ब्रह्मिनी ४९. ज्वाला मुखी ५०. आग्नेयी ५१. अदिति ५२. चन्द्रकान्ति ५३. वायुवेगा ५४. चामुण्डा ५५. मूरति ५६. गंगा ५७. धूमावती ५८. गांधार ५९. सर्व मंगला ६०. अजिता ६१. सूर्य पुत्री ६२. वायु वीणा ६३. अघोर ६४. भद्रकाली, नाम से जानी जाती हैं।

समस्त योगनियों का सम्बन्ध मुख्यतः काली कुल से हैं तथा यह सभी तंत्र तथा योग विद्या से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं। ये, सभी तंत्र विद्या में पारंगत तथा योग साधना में निपुण हैं तथा अपने साधकों के समस्त प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं। देवी पार्वती कि सर्वदा निःस्वार्थ भाव से सेवा जतन करती रहती हैं तथा देवी भी उन पर अपना आघात स्नेह उजागर करती हैं। देवी ने अपने इन्हीं सहचरी योगिनियों के क्षुधा निवारण करने हेतु, अपने मस्तक को काट कर रक्त पान करवाया था तथा छिन्नमस्ता नाम से प्रसिद्ध हुई, देवी पार्वती इन्हें अपनी संतानों के तरह स्नेह करती हैं तथा पालन पोषण भी।

नायिकायें

नायिकायें! यक्षिणियों तथा अप्सराओं की उप-जाति में आते हैं तथा मन मुग्ध करने वाली अति सुन्दर स्वरूप वाली होते हैं। इनकी साधना विशेषतः वशीकरण तथा सुंदरता प्राप्ति हेतु की जाती हैं, नारियों को आकर्षित करने का हर एक उपाय इनके पास हैं। यह मुख्यतः आठ हैं! १. जया २. विजया ३. रतिप्रिया ४. कंचन कुंडली ५. स्वर्ण माला ६. जयवती ७. सुरंगिनी ८. विद्यावती, इनका कार्य मुख्यतः ऋषि मुनियों के कठिन तपस्या को भंग करने हेतु, देवताओं द्वारा प्रयोग में लाया जाता था।

किन्नरियाँ

किन्नरियाँ, अपने अनुपम तथा मन-मुग्ध कर देने वाले सौन्दर्य के लिए प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध हैं; यह मृदु भाषी तथा गायन में निपुण होती हैं, हिन्दू तंत्र ग्रंथों में किन्नरियों को विशेष स्थान प्राप्त है। किन्नरियों में रूप परिवर्तन की अद्भुत काला होते हैं, परिणामस्वरूप प्राचीन काल से इनकी साधना ऋषि मुनियों द्वारा की जाती हैं। किन्नरियों का वरदान अति शीघ्र तथा सरलता से प्राप्त हो जाता हैं। यह मुखतः षट किन्नरियों समूह नाम से जानी जाती हैं; १. मनोहारिणी किन्नरी २. शुभग किन्नरी ३. विशाल नेत्र किन्नरी ४. सुरत प्रिय किन्नरी ५. सुमुखी किन्नरी ६. दिवाकर मुखी किन्नरी। गायन तथा सौंदर्यता हेतु इनकी साधना विशेष लाभप्रद हैं।

पाताल वासी सर्प तथा नाग।

नाग देवता

प्राचीन काल से ही नाना प्रकार के कामनाओं की पूर्ति हेतु नाग जाती या सर्पो की हिन्दू, बौद्ध, सिख तथा जैन धर्म में पूजा-आराधना होती हैं। सर्पो तथा नागों की नाना प्रजातियों ने देवताओं के निमित्त कठिन साधना-तपस्या की तथा उनके निकट विशेष पद प्राप्त किया। जैसे भगवान शिव, देवी तारा, काली के आभूषण सर्प या नाग हैं, सर्वदा ही सर्प इन देवी-देवताओं के शरीर के संग रहते हैं। भगवान विष्णु, सर्वदा शेष-नाग की शय्या पर शयन करते हुए, सम्पूर्ण जगत का पालन-पोषण करते हैं। सर्प जाती भी कई प्रकार के अलौकिक शक्तिओं से सम्पन्न हैं तथा नाना प्रकार के कामनाओं की पूर्ति हेतु इनकी पूजा की जाती हैं। विशेषकर सर्प दंशन की चिकित्सा हेतु, सर्प भय से रक्षा हेतु, इनकी साधना करने का विधान हैं। कद्रु जो प्रजापति दक्ष की कन्या थी तथा कश्यप मुनि की पत्नी! उनसे सम्पूर्ण सर्प जाती का जन्म हुआ हैं, कारणवश वे नाग माता के नाम से जानी जाती हैं। देवी मनसा! जो भगवान शिव की मानसिक पुत्री हैं, उन्हें भी नाग माता कहा जाता हैं, जिनका विवाह जरत्कारु नाम के ऋषि के साथ हुआ था। एक समय राजा जनमेजय द्वारा अपने पिता के सर्प दंश से मृत्यु हो जाने पर, सर्पो को भस्म कर देने वाला सर्प-यज्ञ का आयोजन किया गया। परिणामस्वरूप सभी सर्प! सर्प-यज्ञ में गिर कर भस्म होने लगे, तदनंतर देवी मनसा के पुत्र आस्तिक द्वारा ऐसा उपाय किया गया, जिससे सर्प-यज्ञ बंद हुआ तथा सभी सर्पो की रक्षा हुई, तभी से देवी मनसा भी नाग माता के नाम से विख्यात हैं। सर्प प्रजाति के मुख्य १२ सर्प हैं जीने के नाम; १. अनंत २. कुलिक ३. वासुकि ४. शंकुफला ५. पद्म ६. महापद्म ७. तक्षक ८. कर्कोटक ९. शंखचूड़ १०. घातक ११. विषधान १२. शेष नाग हैं।

भूत, प्रेत, पिशाच, वैताल, डाकिनी इत्यादि जातियों का अस्तित्व प्राचीन काल से ही हैं, परन्तु यह सभी परा शक्तियां हैं। जिस प्रकार हवा को नहीं देखा जा सकता हैं, परन्तु हवा वास्तव में विद्यमान हैं, उसी प्रकार उपयुक्त मनुष्येतर जातियां भी आदि काल से अस्तित्व में हैं। इन सभी को समस्त भूतों के नाथ भगवान भूत-नाथ शिव का अनुचर माना जाता हैं तथा इनकी पत्नियाँ भुतिनी, प्रेतनी, पिसाचिनी, वैतालिनी आदि भगवान भूतनाथ के पत्नी शिवा के अनुचरी माने जाते हैं। भगवान शिव तथा भगवती शिवा के अनुचरी होने के परिणामस्वरूप यह सभी दिव्य तथा अलौकिक शक्तिओं से सम्पन्न हैं, अपने भक्तों की अभिलाषाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं। इन सभी की आराधना सहस्त्र वर्षों से हिन्दू धर्म में व्याप्त हैं तथा आज भी की जाती हैं।

भगवान शिव के अनन्य सेवक, भैरव

भैरव

भैरव शब्द चार अक्षरों के मेल से बना हैं; भा, ऐ, र और व; भा का अर्थ ‘प्रकाश’, क्रिया-शक्ति, रव विमर्श हैं। इस प्रकार जो अपनी क्रिया-शक्ति से मिल कर अपने स्वभाव से सम्पूर्ण जगत को विमर्श करता हैं वह भैरव हैं। जो समस्त विश्व को अपने ही समान तथा अभिन्न समझकर अपने भक्तों को सर्व प्रकार से भय मुक्त करते हैं वे भैरव कहलाते हैं।

भैरव! भगवान शिव के अनन्य सेवक के रूप में विख्यात हैं तथा स्वयं उनके ही प्रतिरूप माने जाते हैं। भगवान शिव के अन्य अनुचर जैसे भूत-प्रेत, पिशाच आदि के वे स्वामी या अधिपति हैं। इनकी उत्पत्ति भगवती महामाया की कृपा से हुई हैं परिणामस्वरूप वे स्वयं भी शिव तथा शक्ति के अनुसार ही शक्तिशाली तथा सामर्थ्य-वान हैं एवं भय-भाव स्वरूप में इनका अस्तित्व हैं। भैरव दो संप्रदाय! प्रथम काल भैरव तथा द्वितीय बटुक भैरव से सम्बंधित हैं, तथा क्रमशः काशी या वाराणसी और उज्जैन के द्वारपाल हैं। मुख्य रूप से भैरव आठ स्वरूप वाले जाने जाते हैं; १. असितांग भैरव, २. रुद्र भैरव, ३. चंद्र भैरव, ४. क्रोध भैरव, ५. उन्मत्त भैरव, ६. कपाली भैरव, ७. भीषण भैरव, ८. संहार भैरव, यह आठों मिलकर अष्ट-भैरव समूह का निर्माण करते हैं। मुख्यतः भैरव! श्मशान के द्वारपाल तथा रक्षक होते हैं। तंत्र ग्रंथो तथा नाथ संप्रदाय के अनुसार, भैरव तथा भैरवी इस चराचर जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय के कारक हैं। भिन्न-भिन्न भैरवो की आराधना कर, अपनी अभिलाषित दिव्य वस्तुओं तथा शक्तिओं को प्राप्त करने की प्रथा आदि काल से ही हिन्दू धर्म में प्रचलित हैं, विशेषकर किसी प्रकार के भय-निवारण हेतु। भैरव सामान्यतः घनघोर डरावने स्वरुप तथा उग्र स्वभाव वाले होते हैं, काले शारीरिक वर्ण एवं विशाल आकर के शरीर वाले, हाथ में भयानक दंड धारण किये हुए, काले कुत्ते की सवारी करते हुए दिखते हैं। दक्षिण भारत में भैरव! 'शास्ता' के नाम से तथा माहाराष्ट्र राज्य में 'खंडोबा' के नाम से जाने जाते हैं। तामसिक स्वभाव वाले सभी भैरव तथा भैरवी मृत्यु या विनाश के कारक देवता हैं, काल के प्रतीक स्वरूप, रोग-व्याधि इत्यादि के रूप में प्रकट होकर विनाश या मृत्यु की ओर ले जाते हैं।

शिव पुराण के अनुसार अंधकासुर नामक दैत्य के संहार हेतु भगवान शिव के रुधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई थी। अन्य एक कथा के अनुसार एक बार जगत के सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने शिव तथा उनके गाणो की रूप-सज्जा को देखकर अपमान-जनक वचन कहे थे। भगवान शिव ने उस वाचन पर कोई ध्यान नहीं दिया, परन्तु उस समय उनके शरीर से एक प्रचंड काया का प्राकट्य हुआ तथा वह ब्रह्मा जी को मरने हेतु उद्धत हो आगे बड़ा, जिसके कारण वे अत्यंत भयभीत हो गए। अंततः शिव जी द्वारा मध्यस्थता करने के कारण क्रोध तथा विकराल रूप वाला गण शांत हुआ। तदनंतर, भगवान शिव ने उस गण को अपने आराधना स्थल काशी का द्वारपाल नियुक्त कर दिया; काल भैरव जी का भव्य मंदिर काशी में विद्यमान हैं। मार्गशीर्ष मास की कृष्ण अष्टमी के दिन इनका प्राकट्य हुआ था, परिणामस्वरूप यह तिथि काल-भैरवाष्टमी के नाम से भी जानी जाती है। विशेषकर मृत्यु-भय से मुक्ति पाने हेतु इनकी आराधना की जाती हैं, परन्तु वे सर्व प्रकार के कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं। समस्त प्रकार के अभिलाषित भोग तथा अलौकिक शक्तियां प्रदान करने में समर्थ हैं। भारत के भैरव मंदिरों में काशी के काल-भैरव मंदिर तथा उज्जैन के बटुक-भैरव मंदिर मुख्य माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त कुमाऊ मंडल में नैनीताल के निकट घोडाखाल में बटुक-भैरव, जिन्हें गोलू देवता के नाम से जाना जाता हैं तथा विख्यात हैं।


मणिकर्णिका घाट श्मशान, वाराणसी या कशी।

मणिकर्णिका घाट, वाराणसी या कशी

ज्वलंत चिता में विराजमान भैरवी

ज्वलंत चिता में विराजमान भैरवी