पशु भाव आदि भाव हैं, मनुष्य पशुओं में सर्वश्रेष्ठ तथा सोचने-समझने या बुद्धि युक्त हैं। जब तक मनुष्य के बुद्धि का पूर्ण रूप से विकास ना हो, वह पशु के ही श्रेणी में आता हैं। जिसकी जितनी बुद्धि होगी उसका ज्ञान भी उतना ही श्रेष्ठ होगा। पशु भाव से ही साधन प्रारंभ करने का विधान हैं, यह प्रारंभिक साधन का क्रम हैं, आत्म तथा सर्व समर्पण भाव उदय का प्रथम कारक पशु भाव क्रम से साधना करना हैं। यहाँ भाव निम्न कोटि का माना गया हैं, स्वयं त्रिपुर-सुंदरी, श्री देवी ने अपने मुखारविंद से भाव चूड़ामणि तंत्र में पशु भाव को सर्व-निन्दित तथा सर्व-निम्न श्रेणी का बताया हैं। अपनी साधना द्वारा प्राप्त ज्ञान द्वारा जब अज्ञान का अन्धकार समाप्त हो जाता हैं, पशु भाव स्वतः ही लुप्त हो जाता हैं। शास्त्रों के अनुसार पशुत्व लक्षण आठ प्रकार युक्त मानव स्वभाव लक्षणों या पाशों से हैं; १. घृणा, २. शंका, ३. भय, ४. लज्जा, ५. जुगुप्सा, ६. कुल, ७. शील तथा ८. जाती।
यह अष्ट मानव लक्षण सर्वदा ही मनुष्य के आध्यात्मिक उन्नति हेतु बाधक माने गए हैं तथा साधन पथ में तज्य हैं। पशु भाव साधन क्रम के अनुसार साधक इन्हीं लक्षणों या पाशों पर विजय पाने का प्रयास करता हैं।
१. घृणा : व्यक्ति-विशेष के शरीर, इन्द्रियां तथा मन को न भाने वाली तथा तिरस्कृत करने वाला लक्षण घृणा कहलाती हैं। संसार के समस्त तत्व या पञ्च तत्व से निर्मित प्रत्येक वस्तुओं में किसी भी प्रकार का विकार अनुभव करना ही घृणा हैं, जो अभिमान, अहंकार इत्यादि विकारों को जन्म देता हैं। मनुष्य के हृदय पर किसी वस्तु या तत्व के प्रति प्रेम तथा किसी के प्रति तिरस्कार हैं तथा प्रत्येक तत्व में परमात्मा के अस्तित्व से अनभिज्ञ हैं।
२. शंका : किसी व्यक्ति के प्रति संदेह की भावना शंका हैं। विषय-आसक्त, माया-मोह में पड़ा हुआ मनुष्य, अपने विकास के लिये नाना प्रकार के छल-प्रपंच में लिप्त रहता हैं, कपट व्यवहार करता हैं, झूठ बोलता हैं, देहाभिमानी हैं, परिणामस्वरूप वह दूसरे को भी ऐसा ही समझ कर उस पर संदेह करता हैं।
३. भय : मनुष्य को अपने शरीर, प्रिय-जन, संपत्ति, अभिलषित वस्तुओं से प्रेम रहता हैं तथा इसके नष्ट होने का सर्वदा भय रहता हैं। भौतिक वस्तुओं के नाश का उसे सर्वदा भय रहता हैं परन्तु आत्म के नाश का नहीं तथा आत्म तत्व को जानने की कोई आवश्यकता नहीं होती हैं। अन्य कई कारण हैं जो भय को उत्पन्न करती हैं; जैसे अपने सनमुख होने वाली कोई अप्रिय घटना इत्यादि।
४. लज्जा : सामान्यतः मनुष्य के हृदय में मान-अपमान भावना का उदय होना लज्जा कहलाता हैं। मनुष्य का शरीर नश्वर हैं, फिर शरीर के मान-अपमान का कितना महत्व हो सकता हैं? तथा शरीर को जीवन देने वाली आत्म साक्षात् परमात्मा ही हैं तथा मान-अपमान से परे हैं।
५. जुगुप्सा : दूसरों की निंदा-चर्चा करना जुगुप्सा कहलाती हैं, मनुष्य दूसरों के गुण तथा दोषों को देखता हैं तथा अपने दोषों का मनन नहीं कर पाता।
६. कुल : उच्च कुल या वंश में जन्म कुल-भाव से हैं, जैसे उच्च कुल में पैदा हुआ अपने आप को उच्च मानता हैं तथा दूसरे के कुल को छोटा। यह भाव मनुष्य के अन्दर छोटा या बड़ा होने के प्रवृति को उदित करता हैं तथा उसके विचार भेद-भाव युक्त हो जाते हैं।
७. शील : शिष्टाचार का अभिप्राय शील हैं, अन्य लोगों के प्रति मानव का व्यवहार, सेवा, उठने-बैठने का तरीका शिष्टाचार या शील कहलाती हैं। शीलता के बंधन को काट देने पर साधक विचार तथा कर्म में स्वतंत्र हो जाता हैं तथा उसे ये चिंता नहीं रहती हैं की कोई अन्य उसके बारे में क्या सोच रहा हैं।
८. जाती : मनुष्य का अपना जात्यभिमान, उसके हृदय में बड़े या छोटे भावना का प्रतिपादन करता हैं। जाती भेद को समदर्शी न मानने वाला पशु भाव से ग्रस्त हैं, चारों जातियां क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य तथा शूद्र सभी परम-पिता ब्रह्मा जी के संतान हैं।
साधक को शिवत्व प्राप्त करने हेतु इन सभी पाशों या लक्षणों से मुक्ति होना अत्यंत आवश्यक हैं। जो इन अष्ट-पाशों में से किसी एक से भी ग्रस्त हैं, मनोविकार युक्त हैं, वह सर्वदा, सर्व-काल तथा सर्व-व्यवस्था में साधना करने में समर्थ नहीं हो सकता। चित निर्मल हुए बिना, समदर्शिता तथा त्याग की भावना का उदय होना अत्यंत कठिन हैं, चित को निर्मल निर्विकार करने हेतु पशु भाव का त्याग अत्यंत आवश्यक हैं। पशु भाव से साधना प्रारंभ कर अष्ट पाशों, मनोविकारों पर विजय पाकर ही साधक वीर-भाव में गमन का अधिकारी हैं। वस्तुतः पशु भाव युक्त साधना कर साधक इन अष्ट-पाशों या विकारों से मुक्त होने का प्रयास करता हैं।
वीर भाव : इस भाव तक आते-आते साधक! अष्ट-पाशों के कारण होने वाले दुष्परिणामों को साधक समझने लगता हैं, परन्तु उनका पूर्ण रूप से वह त्याग नहीं कर पाता हैं, परन्तु करना चाहता हैं। इसी प्रकार पशु भाव से अपने देह तथा मन की शुद्धि करने के प्रयासरत साधक, वीर-भाव से साधन कर पाता हैं। वीर-भाव का मुख्य आधार केवल यह हैं कि! साधक अपने आप में तथा अपने इष्ट देवता में कोई अंतर न समझें तथा साधना में रत रहा कर अपने इष्ट देव के समान ही गुण-स्वभाव वाला बने। वीर-भाव बहुत ही कठिन मार्ग हैं, बिना गुरु आज्ञा तथा मार्गदर्शन के यह साधन हानिकारक ही होती हैं, इस मार्ग को कुल, वाम, कौल, वीरा-चार नाम से भी जाना जाता हैं। साथ ही साधक का दृढ़ निश्चयी भी होना अत्यंत आवश्यक हैं, किसी भी कारण इस मार्ग का मध्य में त्याग करना उचित नहीं हैं, अन्यथा दुष्परिणाम अवश्य हैं। जिस साधक में किसी भी प्रकार से कोई शंका नहीं हैं, वह भय मुक्त हैं, निर्भीक हैं, निर्भय हो किसी भी समय कही पर भी चला जाये, लज्जा व कुतूहल से रहित हैं, वेद तथा शास्त्रों के अध्ययन में सर्वदा रत रहता हैं, वहवीर साधन करने का अधिकारी हैं। साधन के इस क्रम में मूल पञ्च-तत्व के प्रतीक पञ्च-तत्वों से साधना करने का विधान हैं, जिसे पञ्च-मकार नाम से जाना जाता हैं।
इसी मार्ग का अनुसरण कर महर्षि वशिष्ठ ने, नील वर्णा महा-विद्या तारा की सिद्धि प्राप्त की थी। सर्वप्रथम, अपने पिता ब्रह्मा जी की आज्ञा से महर्षि वशिष्ठ ने देवी तारा की वैदिक रीति से साधन प्रारंभ की परन्तु सहस्त्र वर्षों तक कठोर साधना करने पर भी मुनि-राज सफल न हो सके। परिणामस्वरूप क्रोध-वश उन्होंने तारा मंत्र को श्राप दे दिया। तदनंतर दैवीय आकाशवाणी के अनुसार, मुनि राज चीन देश गए, जहाँ उन्होंने भगवान बुद्ध से कौल या कुलागम मार्ग का ज्ञान प्राप्त किया तथा देवी के प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त कर, सिद्धि प्राप्त की। साधना के इस क्रम में साधन पञ्च-मकार विधि से की जाती हैं! यह पञ्च या पांच तत्व हैं १. मद्य, २. मांस ३. मतस्य ४. मुद्रा तथा ५. मैथुन, इन समस्त द्रव्यों को कुल-द्रव्य भी कहा जाता हैं। सामान्यतः इनमें से केवल मुद्रा (चवर्ण अन्न तथा हस्त मुद्रायें) को छोड़ कर सभी को निन्दित वस्तु माना जाता हैं, वैष्णव सम्प्रदाय तो इन समस्त वस्तुओं को महा-पाप का कारण मानता हैं, मद्य या सुरा पान पञ्च-महा पापों में से एक हैं। परन्तु आदि काल से ही वीर-साधना में इन सब वस्तुओं के प्रयोग किये जाने का विधान हैं। कुला-चार केवल साधन का एक मार्ग हैं तथा इस मार्ग में प्रयोग किये जाने वाले इन पञ्च-तत्वों को केवल अष्ट-पाशों का भेदन कर, साधक को स्वतंत्र-उन्मुक्त बनाने हेतु प्रयोग किया जाता हैं। साधक इन समस्त तत्वों का प्रयोग अपनी आत्म-तृप्ति हेतु नहीं कर सकता, इनका कदापि आदि नहीं हो सकता, साधक केवल अपने इष्ट देवता को समर्पित कर ग्रहण करने का अधिकारी हैं, यह केवल उपासना की सामग्री हैं, उपभोग की नहीं। अति-प्रिय होने पर भी, इन तत्वों से साधक किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रख सकता हैं, यह ही साधक के साधना की चरम पराकाष्ठा हैं।
देखा जाये तो आदि काल से ही शैव तथा विशेषकर शक्ति संप्रदाय से सम्बंधित पूजा-साधना तथा पितृ यज्ञ कर्मों में मद्य, मांस, मीन इत्यादि का प्रयोग किया जाता रहा हैं। ऋग्-वेद! देव तथा पितृ कार्यों हेतु हिंसा को पाप नहीं मानता। कुलार्णव तंत्र (कौल या कुल धर्म के विवरण सम्बन्धी तंत्र) के अनुसार, शास्त्रोक्त विधि से देवता तथा पितरों का पूजन कर मांस खानेवाला तथा मद्य पीने वाला किसी भी प्रकार के दोष का भागी नहीं होता। बिना यज्ञ कर्मों के मांस-मदिरा सेवन दोष युक्त माना गया हैं तथा पाप की श्रेणी में आता हैं। मंत्रों द्वारा पवित्र किया गया या शास्त्रोक्त विधि से कुल द्रव्य या तत्व, गुरु तथा देवता को अर्पण कर पान करने वाला भव सागर के बंधन से मुक्त हो जाता हैं, तथा किसी भी प्रकार के दोष का भागी नहीं हैं। मतस्य-मांस, सुरा इत्यादि मादक द्रव्यों का कौल मार्ग में दीक्षा संस्कार के पश्चात, देव कार्य पूजन के अतिरिक्त सेवन दोष युक्त माना गया हैं।
मद्य, मांस, मतस्य, मुद्रा के सेवन का मुख्य कारण! सामान्यतः मद्य निन्दित वस्तुओं से माना जाता हैं, परन्तु मादक द्रव्यों में मद्य या सुरा सर्वोत्तम द्रव्य माना जाता हैं, इसके सेवन से मनुष्य नशे में लिप्त हो, आत्म विस्मृत की अवस्था को प्राप्त कर उन्मत हो जाता हैं। अन्य मादक द्रव्यों के समान मद्य मनुष्य में आलस्य नहीं लाता हैं, आलसी मनुष्य को क्रिया-शील करने में मद्य विशेष प्रभाव दिखता हैं। अष्ट-पाशों का जो सादाहरण या मानसिक बल से परित्याग कर विमुक्त होने में समर्थ नहीं हैं, वह सुरा पान रूपी ओषधि का प्रयोग कर, इन पाशों का त्याग करने या नियंत्रण करने में सफल होता हैं। मद्य पान ध्यान केन्द्रित करने में पूर्णतः सक्षम हैं तथा इसी करण वश शक्ति साधनाओं में प्रयुक्त होता हैं। साधक जिस किसी ओर चाहे, अपना ध्यान पूर्ण केन्द्रित कर सकता हैं, वास्तव में मद्य पान कर साधक आत्म-विस्मृत की अवस्था को प्राप्त करता हैं तथा सर्व प्रकार से चिंता रहित हो, ध्यान केन्द्रित कर पाता हैं। मद्य उत्कट उत्तेजक पदार्थ हैं, तथा इसका प्रयोग मांस, मतस्य, चर्वण अन्न के साथ प्रयोग किया जाता हैं। मदिरा के साथ, मांस-मत्स्य इत्यादि का प्रयोग, मदिरा में व्याप्त विष को शांत करने हेतु किया जाता हैं साथ ही पौष्टिक भोजन के अलावा मदिरा का सेवन मनुष्य को मृत्यु की ओर ले जाता हैं। मदिरा के साथ या अन्य मादक द्रव्यों के साथ मांस इत्यादि का सेवन मनुष्य को बलवान एवं तेजस्वी बनता हैं।
स्त्री के प्रति मोह या प्रेम! काम वासना या कामुकता, किसी भी साधन पथ का सबसे बड़ा विघ्न हैं तथा विघ्न से दूर रह कर या कहें तो स्त्री से दूर रहकर इस विघ्न पर विजय नहीं पाया जा सकता हैं। प्रेम में लिप्त मनुष्य, सही और गलत भूल कर, मनमाने तरीके से कार्य करता हैं। स्त्री सेवन में रहते हुए, काम-वासना, प्रेम इत्यादि आसक्ति का आत्म त्याग सर्वश्रेष्ठ माना गया हैं।
पूजन, केवल विभिन्न द्रव्यों को देवताओं पर अर्पित करना ही नहीं होता, अपितु देवता के पूर्ण रूप से संतुष्टि होने से भी सम्बंधित हैं। समस्त वस्तु या तत्व परमात्मा द्वारा ही बनायी गई हैं, पंच-मकार मार्ग! समस्त प्रकार के वैभव-भोगो में रत रहते हुए, धीरे-धीरे त्याग का मार्ग हैं। साधक का सदाचारी होना भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, संस्कार (दीक्षा) विहीन होने पर, गुरु आज्ञा का उलंघन करने पर तथा सदाचार विहीन होने पर साधक पाप का अधिकारी हो पतन की ओर अग्रसर होता हैं। शक्ति संगम तंत्र के अनुसार मैथुन हेतु सर्वोत्तम स्त्री संग, दीक्षिता तथा देवताओं पर भक्ति भाव रखने वाली, मंत्र-जप इत्यादि देव कर्म करने वाली होना आवश्यक हैं। किसी भी स्त्री को केवल देखकर मन में विकार जागृत होना, साधक के नाश का कारण बनता हैं। कुल-धर्म दीक्षा रहित स्त्री का संग, सर्व सिद्धियों की हानि करने वाला होता हैं। स्त्री संग से पूर्व स्त्री-पूजन अनिवार्य हैं तथा स्त्रियों से द्वेष निषेध हैं, स्त्री सेवन या सम-भोग आत्म सुख के लिये करने वाला पापी तथा नरक गामी होता हैं। पर-द्रव्य, पर-अन्य, प्रतिग्रह, पर-स्त्री, पर-निंदा, से सर्वदा दूर रहाकर! सदाचार पालन अत्यंत आवश्यक हैं।
पंच-मकार विधि से साधना करने का मुख्य उद्देश्य : पञ्च-मकार साधना केवल मात्र इष्ट देवता की पूजा हेतु विहित हैं न की स्व-तृप्ति या विषय-भोग के लिए, समस्त भौतिक सुखों से पंच-मकार विधि मुक्ति पाने हेतु केवल साधन मात्र हैं। सादाहरण मनुष्य विषय-भोगो में सर्वदा आसक्त रहता हैं और अधिक प्राप्त करने का प्रयास करता हैं तथा सर्वदा उनमें लिप्त रहता हैं, आदी हो जाता हैं। परन्तु वीराचारी आसक्त से सर्वदा दूर रहता हैं, किसी भी प्रकार से विषय-भोगो में आसक्ति, लिप्त रहने का उसे अधिकार नहीं हैं, सर्वदा ही उसे उन्मुक्त रहना पड़ता हैं, वह आदी नहीं हो सकता हैं। स्त्री संग करने पर साधक पर स्त्री का कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये, न मोह न प्रेम। इसी तरह मद्य, मांस तथा मतस्य के सेवन के पश्चात भी, शरीर पर इनका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये, मद्य पान करने पर साधक के शरीर में पूर्ण चेतना रहनी चाहिये।
वास्तव में देखा जाये तो, यह पंच-मकार मनुष्य के अष्ट पाशों के बंधन से मुक्त होने में सहायक हैं, सर्वश्रेष्ठ विषय भोगो को भोग करते हुए भी, विषय भोगो के प्रति अनासक्ति का भाव, इस मार्ग का चरम उद्देश्य हैं। जब तक मानव पाश-बद्ध, विषय-भोगो के प्रति आसक्त, देहाभिमानी हैं, वह केवल जीव कहलाता हैं, पाश-मुक्त होने पर वह स्वयं शिव के समान हो जाता हैं। वीर-साधना या शक्ति साधना का मुख्य उद्देश्य शिव तथा समस्त जीवों में ऐक्य प्राप्त करना हैं। यहाँ मानव देह देवालय हैं तथा आत्म स्वरूप में शिव इसी देवालय में विराजमान हैं, अष्ट पाशों से मुक्त हुए बिना देह में व्याप्त सदा-शिव का अनुभव संभव नहीं हैं। शक्ति साधना के अंतर्गत पशु भाव, वीर-भाव जैसे साधन कर्मों का पालन कर मनुष्य सफल योगी बन पता हैं।