सत्य युग में ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र वशिष्ठ को तारा मन्त्र की दीक्षा दी तथा मंत्र सिद्ध कर, तारा कृपा लाभ प्राप्त करने की आज्ञा दी; जिससे तारा साधना पद्धति का उद्भव हो सकें। पिता के आज्ञा अनुसार वशिष्ठ मुनि सर्वप्रथम नीलांचलपर्वत पर गए और देवी तारा की साधना करने लगे, सर्वप्रथम महर्षि वशिष्ठ ने देवी की वैदिक रीति से चिर काल तक आराधना की परन्तु, उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हुई। बार-बार उन्हें असफलता प्राप्त हो रहीं थीं, जिस कारण विरक्त होकर उन्होंने तारा मंत्र को शापित कर दिया। तदनंतर आकाश-वाणी हुई कि! “वशिष्ठ तुम मेरे साधना के स्वरूप को नहीं जानते हो, चीन देश जाओ! वहाँ बुद्ध मुनि होंगे, उनसे मेरे सधना का सही और उपयुक्त क्रम जान कर, मेरी आराधना करो”। उस समय केवल भगवान बुद्ध ही इस विद्या के आचार्य माने जाते थे। तत्पश्चात, वशिष्ठ मुनि ने चीन देश कि यात्रा की, वहाँ जाकर मुनि ने देखा कि! बुद्ध मुनि मदिरा, माँस, मतस्य, नृत्य करती हुई नर्तकियों में आसक्त हैं, यह सब देख वे खिन्न हो वहाँ से वापस लौटने लगे। लौटते हुए मुनि को देखकर भगवान बुद्ध ने उन्हें रुकने के लिये कहा तथा पीछे मुड़ जब वशिष्ठ मुनि ने देखा तो वे चकित रह गये। बुद्ध मुनि शान्त ध्यान योग में, आसन लगाकर बैठे थे, उसी तरह नर्तकियां भी योग आसन लगा कर बैठी थीं, मदिरा, माँस, मतस्य आदी सभी सामग्री पूजन सामग्री में परिवर्तित हो गयी थी।
बुद्ध मुनि अन्तर्यामि थे तथा उन्होंने वशिष्ठ मुनि को उपदेश दिया कि! "बैधनाथ धाम के १० जोजन पूर्व, वक्रेश्वर के ४ जोजन ईशान, जहन्वी के ४ जोजन पश्चिम, उत्तर वाहिनी द्वारका नदी के पूर्व में सती की उर्ध नयन तारा (ज्ञान रूपी नेत्र) स्थापित हैं, उस स्थान पर वे सर्वप्रथम पन्च-मुण्डी आसन (अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए मनुष्य, कृष्ण सर्प, लंगुर, हाथी और उल्लू की खोपड़ी से बना हुआ आसन) बनाकर, उस स्थान पर तारा मन्त्र का ३ लाख जप करें, साथ ही पन्च-माकार विधि (मदिरा, मांस, मतस्य, मुद्रा तथा मैथुन) से पूजा करने पर, तुम मां कि कृपा प्राप्त कर उनके साक्षात् दर्शन कर सकते हो।"
वशिष्ठ ने बुद्ध मुनि के मार्गदर्शन अनुसार सर्वप्रथम उत्तर वाहिनी द्वारका नदी का संधान किया, तदनंतर उन्होंने वहां श्वेत शेमल वृक्ष के निचे पञ्च-मुंडी आसन निर्माण किया तथा क्रम अनुसार मां कि पूजा, आराधना, साधना की एवं ३ लाख तारा मन्त्र का जाप किया। फलस्वरूप, देवी तारा ने उन्हें सर्वप्रथम एक उज्ज्वल ज्योति बिंदु के रुप में दर्शन दिया तथा उनसे पूछा! तुम किस रुप में मेरे दर्शन करना चाहते हो? वशिष्ठ मुनि ने कहा! आप जगत जननी हैं, मैं आपके जगत-जननी रुप में ही दर्शन चाहता हूँ।
इस निवेदन पर! भगवान शिव को बालक रुप में अपना दुग्ध स्तन पान करते हुए देवी तारा ने वशिष्ठ मुनि को दर्शन दिये। समुद्र मंथन के समय जब कालकूट विष निकला, बिना किसी क्षोभ के उस हलाहल विष का पान भगवान शिव ने किया, परिणामस्वरूप उनके पूरे शरीर में असहनीय जलन पीड़ा होने लगी। तदनंतर, इन्हीं देवी तारा ने जगत जननी का परिचय देते हुए, भगवान शिव को बालक बना दिया और अपना अमृतमय स्तन दुग्ध स्तन पान कराया; जिससे शिव के शरीर की जलन पीड़ा शांत हुई। देवी तारा ने वशिष्ठ मुनि से वर प्राप्त करने हेतु कहा! जिसपर मुनि ने उत्तर दिया! आप के दर्शन ही मेरे लिये सर्वोपरि हैं, आप अगर कुछ देना ही चाहती हैं, तो यह वर प्रदान करें की आज के बाद इस आसन पर कोई भी साधक, आप के मन्त्रों का ३ लाख जप कर सिद्धि प्राप्त कर सकेगा। यह निवेदन सुन देवी मां ने वशिष्ठ को इच्छानुसार वर प्रदान किया तथा जिस रूप में देवी तारा ने वशिष्ठ मुनि को दर्शन दिया, उनका वह स्वरूप शिला या पाषाण में परिवर्तित हो गया। देवी माँ को वशिष्ठ आराधिता के नाम से भी जाना जाता हैं, क्योंकि सर्वप्रथम उन्होंने ही उनकी आराधना की थीं। आज भी तारापीठ महा-श्मशान में स्थित पञ्च-मुंडी आसन पर बैठ जो साधक ३ लाख तारा मंत्र का जप करता हैं, देवी माँ उसे दर्शन देने में बाध्य हैं।
देवी तारा से सम्बद्ध अलौकिक शक्तिओं से युक्त सिद्ध पीठ तारा-पीठ हैं, जहाँ एक और महा-श्मशान हैं तो दूसरी और देवी का भव्य मंदिर। देवी तारा श्मशान वासिनी हैं, श्मशान ही उनका निवास स्थल हैं, आदि काल से ही द्वारका नदी के पूर्वी तट के महा-श्मशान में देवी वास करती हैं। तारापीठ महा-श्मशान तथा जीवित कुंड अनेक प्रकार के अलौकिक शक्तिओं से युक्त हैं, यहाँ पर हर प्रकार के तांत्रिक प्रयोग सफल एवं सिद्ध होते हैं। (माना जाता हैं, उस स्थान से सम्बंधित समस्त शक्ति स्वयं माँ ने अपने पागल पुत्र बामा को प्रदान किया था)। श्वेत सेमल का वृक्ष, जिसके नीचे पञ्च-मुंडी आसन बना कर वशिष्ठ मुनि ने तपस्या कि थी, वह स्थान आज विद्यमान नहीं हैं; मना जाता हैं कि वह स्थान या पञ्च-मुंडी आसन कल युग के महान अवतारी महा-संत बामा खेपा कि समाधि हैं, उन्होंने उसी आसन पर बैठ कर समाधि ली थीं। बामा खेपा इसी पञ्च-मुंडी आसन पर बैठ कर ही नाना प्रकार की साधनाएँ किया करते थे, ध्यान-योग लगते थे, अंततः उन्होंने इसी आसन पर ध्यान लगाकर अपनी आत्मा को ब्रह्मरंध से बहार निकला या कहें तो मोक्ष को प्राप्त हुए; आज वहाँ बामा खेपा की समाधि मंदिर व्याप्त हैं।
वशिष्ठ मुनि के आराधना काल में देवी माँ अकसर ही अदृश्य होकर नृत्य करती थीं, जिससे वशिष्ठ मुनि की साधना में भ्रमित हो जाते थे। एक बार मुनि ने संदेह निवारण हेतु मन में सोचा! इस स्थान पर यदि कोई शक्ति हैं और वे मेरी परीक्षा हेतु बार-बार मरे सामने नृत्य कर रहीं हैं तो वह पैर शिला रूप में परिणति हो जाये।" देवी के कथनानुसार, नृत्य करती हुए देवी माँ के पैर शिला रुप में परिवर्तित हो गई, आज भी इस महा-श्मशान पर बामा खेपा समाधि मंदिर के दाहिने ओर विद्यमान है। वशिष्ठ मुनि द्वारा प्राप्त आशीर्वाद के कारण कोई भी साधक इस पञ्च-मुंडी आसन पर ३ लाख तारा मंत्र जप कर सिद्धि को प्राप्त कर सकता हैं, देवी तारा अपने दर्शन से अपने साधक को कृतार्थ करती हैं। परन्तु यह सरल नहीं हैं, देवी दर्शन का अभिप्राय हैं मोक्ष! तथा इसकी प्राप्ति हेतु अष्ट पाशों पर विजय आवश्यक हैं; साथ ही हिन्दू धर्म के अनुसार पाप-पुण्य का विचार भी! मनुष्य को अपने कु-कर्मों का भोग जन्म-जन्मान्तर में करना पड़ता हैं। पाप मुक्ति के पश्चात ही देवी दर्शन या मोक्ष संभव हैं! ३ लाख मन्त्र जप इस आसन पर बैठ कर करना सरल नहीं हैं, जब तक जातक अपने समस्त पाशों से मुक्त नहीं हो जाता हैं तथा समस्त पाप कर्मों का भोग नहीं कर लेता, उसके साधना पथ में कई प्रकार की बाधाएं आती हैं। तंत्र का अनुसरण करने वाले नाना साधकों इस महा-श्मशान में आकर, नाना तंत्र क्रियाएँ कर सिद्धि प्राप्त करते हैं; विशेषतः अमावस्या तिथि में यहाँ साधक गणो का ताता लगा रहता हैं। तंत्र साधनाओं हेतु जिस प्रकार के स्थान की आवश्यकता होती हैं वह इस महा-श्मशान में व्याप्त हैं। आज भी सामान्य भक्त गण, संन्यासी और पुरोहित समाज विभिन्न प्रकार कि कामनाओं हेतु तांत्रिक क्रिया कर्म, यज्ञ, अनुष्ठान यहाँ करते रहते हैं तथा माँ के कृपा से सफल भी होते हैं, उनकी हर प्रकार की मनोकामनायें पूरी होती हैं।
देवी! श्मशान वासिनी हैं, शव दाह हो रहे देह के ऊपर देवी तारा प्रत्यालीढ़ मुद्रा धारण किये हुए खड़ी हैं; देवी की उपस्थिति ज्वलंत चिता से ही हैं अन्यथा नहीं। इस कारण द्वारका नदी के तट पर शव दाह का कार्य प्रारंभ हुआ। एक समय बंगाल के लोग बहुत दरिद्र थे, अपने प्रिय जनो के मृत्यु के पश्चात वे उनके दाह संस्कार हेतु उपयुक्त धन एकत्रित नहीं कर पाते थे, केवल मुखाग्नि क्रिया के पश्चात शव को माटी में दबा देते थे। इस कारण श्मशान बहुत फैल गया था, साथ ही डरावना तथा भयंकर हो गया था। यत्र-तत्र माटी में दबाये हुए शवों से कुत्ते, सियारों द्वारा निकाल कर खाये हुए क्षत-विक्षत मृत देह के अंश, हड्डियाँ तथा खोपड़ियाँ पड़ी रहती थी; साथ ही भूत-प्रेत जैसे नकारात्मक शक्तियों का भी यह वास स्थान हैं। सामान्य जन साधारण यहाँ दिन में आने से भय खाता था, परन्तु तान्त्रिको, तपस्वियों हेतु यह स्थल महान सिद्धि दायक थी तथा आज भी हैं। आदि काल से ही यह स्थान शैव और वैष्णव संप्रदाय का अनुसरण करने वाले साधु-संन्यासियों कि समाधि स्थली हैं, यहाँ शैव और वैष्णव संप्रदाय के समाधि स्थल अलग-अलग हैं। कल युग के तारापीठ भैरव बाबा बामा खेपा कि समाधि भी इसी श्मशान में हैं, उन्होंने पञ्च-मुंडी आसन में मोक्ष प्राप्त किया था; माँ तारा कि शिला रूपी चरण पद्म के बाई ओर उन कि समाधि हैं। साथ ही उनके गुरु मोक्षदानंद और मानस पुत्र कि भी समाधि वही हैं। द्वारका नदी के उत्तर की ओर एक स्थान हैं, जहाँ देवी तारा अपनी मुंड माला रख कर स्नान करने हेतु नदी में जाती थी, उस स्थान पर भी आज एक भव्य मंदिर तथा श्मशान हैं।
आज महा-श्मशान का स्वरूप विकराल और भयानक नहीं है और ना ही निर्जनता! जैसा कि आदि कल में हुआ करता था। प्रायः २४ घंटे यहाँ यत्र-तत्र भ्रमण करते हुए आगंतुक देखे जा सकते हैं, जो कि यहाँ माँ तारा के दर्शन तथा पूजा हेतु आते हैं। अब यहाँ भयानक और डरावना कुछ भी विद्यमान नहीं हैं जैसा कि आदि कल में था, न ही भयानक जंगल हैं और न ही डरावने पशु इत्यादि।
लगभग ४०० साल पूर्व देवी तारा के इस पवित्र पीठ या स्थल की पहचान जय-दत्त नाम के एक वणिक ने कि थी। जय-दत्त अपने पुत्र और साथियों के साथ द्वारका नदी के जल पथ से वाणिज्य कर लौट रहे थे। खाने-पीने का सामान लेने तथा विश्राम हेतु, उन्होंने द्वारका नदी किनारे पड़ाव डाला। जिस स्थान पर उन्होंने पड़ाव डाला वह कोई ओर स्थान नहीं! बल्कि वह स्थान था जहाँ देवी उग्र तारा निवास करती थी, उत्तर वाहिनी द्वारका नदी का तट था।
वहां जय-दत्त के साथ एक अचंभित कर देने वाली घटना घटी, नदी किनारे वन में एक वृद्ध महिला ने जय-दत्त से पूछा! तुम्हारे नाव में क्या भरा हैं? इस संदेह के कारण की वह कुछ मांग न ले! जय-दत्त ने कहा! मेरी नाव में भस्म भरा हुआ हैं; और ऐसा ही हुआ, जय-दत्त ने नाव में देखा की क्रय-विक्रय से अर्जित समस्त धन तथा सामग्री भस्म में परिवर्तित हो गई थी। अन्य ओर! खाने-पीने का सामान लेकर आते हुए, जय-दत्त के पुत्र को साँप ने काट लिया और उसकी मृत्यु हो गई; जय-दत्त, पुत्र के शव को नाव पर रखकर शोक ग्रस्त हो गया। वणिक के कर्मचारियों ने मछली पकड़ने के लिये पास के ही एक तालाब में जाल फेंका, जिसमें एक शोल या शाल मछली आई; उन्होंने मछली काट कर साफ किया तथा कटी हुई मछली लेकर तालाब किनारे धोने गए। जैसे ही उन्होंने कटी हुई मछली के टुकड़ों को टोकरी में रखकर तालाब में धोने हेतु डुबोया, मरी-कटी हुई मछली, आपस में जुड़ी तथा जीवित होकर छलाँग लगाकर पानी में चली गई; यह देख सभी चकित हो गये।
सभी अपने मालिक जय-दत्त पास गए और उन्हें इस आश्चर्य चकित कर देने वाली घटना से अवगत करवाया; सभी ने सोचा कि! क्यों ना हम अपने राजकुमार को भी इसी तालाब में डूबा कर देखें? संभावित वे जीवित हो जाये? और ऐसा ही हुआ, राजकुमार को तालाब में डुबोते ही राजकुमार जीवित हो गये। इस पर वहां उपस्थित सभी बहुत प्रसन्न हुए, उन्हें ऐसा लगा की अवश्य ही उस स्थान पर कोई अलौकिक शक्ति हैं; इस कारण तलब जीवित कुंड के नाम से जाना जाता हैं।
उसी रात जय-दत्त को स्वप्न आदेश प्राप्त हुआ! उस स्थान पर उपस्थित शक्ति ने उन्हें सपने में दर्शन दिए और कहा! "मैं तारिणी तारा हूँ तथा इस स्थान पर आदि काल से निवास कर रही हूँ। मैंने ही तुम्हारे पुत्र को जीवनदान दिया हैं, मैं ही तुम्हें वृद्ध महिला के रूप में मिली थी तथा मैंने ही तुम्हारे नाव की सभी वस्तुओं को भस्म कर दिया था। वन में जहाँ श्वेत सेमल का वृक्ष हैं, वहाँ मृत्तिका गर्भ में हूँ, तुम मेरा वहाँ से उद्धार करो।" तदनंतर, प्रातः नींद से उठने पर उन्होंने अपने नाव पर रखे समस्त भस्म हुई सामग्रियों को जैसे वे पहले थीं वैसे ही देखा। जय-दत्त ने उस स्थान पर रुक कर वहां उपस्थित शक्ति का ज्ञात करने का निश्चय किया और अपने पुत्र सहित अन्य कर्मियों को अपने देश वापस भेज दिया।
देवी के स्वप्न आदेश अनुसार, जय-दत्त श्वेत सेमल वृक्ष तले उस स्थान पर उपस्थित शक्ति की संधान में साधना करने लगा तथा अंततः देवी तारा ने उन्हें दर्शन दिए तथा मिट्टी में दबे हुए उनके ब्रह्म-मई शिला प्रतिमा (जिस रूप में उन्होंने वशिष्ठ को दर्शन दिया था) के बारे में अवगत करवाया। देवी माँ ने उन्हें, द्वारका नदी के पूर्व की ओर मंदिर बनवा कर प्रतिष्ठित कर उनकी नित्य पूजा-अर्चना करने का आदेश दिया। तदनंतर, जय-दत्त ने एक छोटे से मंदिर का निर्माण करवाया तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणों को देवी माँ की नित्य सेवा जैसे भोग-पूजा-बलिदान इत्यादि हेतु नियुक्त किया; उपयुक्त तिथि आने पर आस-पास के ग्राम वासियों के साथ, अपने परिवार सहित जय-दत्त ने मंदिर में देवी उग्र तारा की पूजा प्रारंभ की। माँ के आदेश अनुसार ही उनकी ब्रह्म-मई शिला मूर्ति रूप में वे सभी के लिए दर्शनीया नहीं हैं, इस कारण उनकी पाषाण प्रतिमा को ऊपर से अन्य आवरण से ढाका जाता हैं; जिसे उनका राज-भेष कहा जाता हैं।
वनिक जय-दत्त ने लगभग ४०० साल पूर्व द्वारका नदी के पूर्वी ओर माँ तारा के निमित्त एक छोटे से मंदिर का निर्माण करवाया तथा धूम धाम से उनकी वहां प्रतिष्ठा की गई। इस स्थान पर केवल एक समस्या थी, वर्षा ऋतु में द्वारका नदी के बाढ़ का जल मंदिर के अन्दर आ जाता था, कई बार मंदिर डूब जाता था। कालांतर में भक्तों का मंदिर में आना-जाना भी कम हो गया था, मुख्यतः वहां के डरावने वातावरण के कारण तंत्र साधक या श्मशान सन्यासी ही वहां सिद्धि प्राप्त करने जाते थे, इसके अतिरिक्त बाढ़ के कारण मंदिर जर-जर हो गया था।
लगभग १५० साल पहले, देवी तारा ने मल्लारपुर के जमींदार जगन्नाथ रॉय को स्वप्न में दर्शन दिए तथा आदेश दिया कि! उनकी सेवा पूजा मंदिर में नहीं हो पा रही हैं,उनका मंदिर भी जर-जर हो गया हैं, वे उनके निमित्त एक मंदिर का निर्माण करवाएं। जगन्नाथ ने माँ से निवेदन किया! उनका कोष अभी खली हैं, धन का अभाव हैं, वे कैसे मंदिर का निर्माण करें? देवी माँ ने जगन्नाथ से कहा! तुम्हारे घर के निकट श्मशान के ईशान कोण में एक बेल वृक्ष हैं तथा उस वृक्ष के नीचे स्वर्ण मुद्राओं से भरे हुए कलश हैं; वे उसे निकलवा कर मंदिर का निर्माण करवाए। जगन्नाथ रॉय को उस स्थान से ९ कलश स्वर्ण मुद्राएँ मिली तथा १८१२ में मंदिर बनवाने का कार्य प्रारंभ किया गया तथा १८१८ में मंदिर निर्माण कर कार्य सम्पूर्ण हुआ। नूतन मंदिर का निर्माण जीवित कुंड के पास ही ऊँचा स्थान देखकर किया गया, जिससे वहां तक बाढ़ का पानी न जा सकें; वर्तमान में स्थापित तारापीठ मंदिर वही हैं जिसे मल्लारपुर के जमींदार ने बनवाया था।