बाल्य काल में ही इन्होंने गृह त्याग कर दिया था तथा तीर्थों में भ्रमण करते रहे, हरिद्वार में 'ब्रह्मानंद' भारती के सान्निध्य में इन्होंने हठ योग की शिक्षा ग्रहण की। एक बार इन्होंने स्वप्न आदेश के कारण हिमालय के महा-तीर्थ अमरनाथ की यात्रा की, इनकी यात्रा की सारी व्यवस्था महेशचंद्र ने की थी; महेशचंद्र कश्मीर राज के कर्मचारी थे तथा अमरनाथ यात्रियों की सेवा का कार्य करते थे। यात्रा की अवधि में तारानाथ अस्वस्थ हो गए थे, उन्हें तीव्र ज्वर हो गया तथा उनके सभी साथी उन्हें छोड़कर आगे चेले गए थे, परन्तु माँ ने उन्हें स्वप्न में आदेश दिया कि! वे निर्भय होकर यात्रा करते रहें। माँ के आदेशानुसार, तारानाथ यात्रा करते रहें तथा अपने सभी साथियों से पहले, पवित्र गुफा में पहुँचें। अमरनाथ गुफा पर बूंद-बूंद जल टपकने से हिम-शिवलिंग का निर्माण होता हैं, ऐसे मान्यता हैं कि जो जातक एक ही श्वास में ३२ जल की बूंदों का पान कर पाता हैं वे सिद्ध साधक होता हैं तथा तारानाथ ने ऐसा किया था। जैसे ही तारानाथ, अमरनाथ गुफा से बहार आयें, उन्होंने देखा की पर्वत में कंपन हो रही हैं तथा एक विकराल पुरुष "बामदेव वीरभूम" कह कर अंतर्ध्यान हो गया। तारानाथ ने बामदेव का नाम तो सुना था पर वे कुछ समझ नहीं पाए। जब वे इन दोनों शब्द "बामदेव वीरभूम" समझें, वे अमरनाथ से कश्मीर, कश्मीर से पंजाब, पंजाब से दिल्ली, दिल्ली से पुरी, पुरी से हावड़ा तथा अंत में हावड़ा से मल्लारपुर आये। बामा खेपा बाबा पहले से ही जानते थे की तारानाथ उनसे मिलने आने वाले हैं, बाबा ने अपने सभी भक्तों को कह रखा था की आज कोई बहुत दूर से मिलने आने वाला हैं।
बाबा से मिलने की उत्कंठता लिए तारानाथ द्रुत गतिमान हो तारापीठ आयें, सर्वप्रथम उन्होंने माँ तारा के दर्शन किये तथा मंदिर में उपस्थित पण्डाओं से बामा बाबा के बारे में पूछा। काली नाम का पंडा तारानाथ को बाबा के पास लेकर आया तथा बाबा को देखकर तारानाथ को लगा कि! वे साक्षात् शिव हैं तथा इस संसार का समस्त सुख उन्हें प्राप्त हो गया हैं। तारानाथ ने बाबा से सर्वप्रथम पूछा! "मुझे क्यों बुलाया हैं?" बाबा ने कहा! तुम्हारा जन्म कार्तिक मास के द्वितीय, शुक्रवार को हुआ था, २ दिन बार तुम्हारा जन्म-दिन हैं, उन दिन में तुम्हें सब बताऊंगा, तुम अभी यात्रा से थक गए होंगे कुछ खा कर विश्राम करो। तदनंतर, कुछ काल तक तारानाथ बाबा के सान्निध्य में रहे तथा नाना प्रकार के तंत्र क्रियाओं का अवलोकन किया तथा अन्य साधकों से साथ मिले। तारानाथ हठ योगी साधक थे, सूर्य-ग्रहण काल में वे ग्रहण आरंभ से अंत तक जप करते थे। बामा खेपा बाबा किसी भी रीति को नहीं मानते थे, उन्होंने ही तारा खेपा को सूर्य ग्रहण अवधि में जप करने से रोका था तथा मांस एवं खीर खाने की इच्छा प्रकट की थी। अमावस्या के दूसरे दिन, द्वितीया जिस दिन तारानाथ का जन्मदिन था, प्रातः बाबा ने तारानाथ को प्रथम द्वारका नदी में स्नान कर, सूर्य देव की पूजा अर्चना करने हेतु कहा। तत्पश्चात श्वेत सेमल तला में चिता से बची हुई लकड़ियों को लेकर होम इत्यादि की तथा तारानाथ के कान में मंत्र प्रदान किया, उनकी गुरु-दीक्षा प्रक्रिया पूर्ण की।
तारानाथ जन साधारण के बीच तीव्र क्रोध करने वाले भयंकर रूप में जाने जाते थे, वे तारा खेपा नाम से विख्यात थे। उनके सनमुख आने का साहस बामा खेपा बाबा के अलावा किसी और में नहीं होता था, सभी उनसे बहुत डरते थे। तारा खेपा भी बामा खेपा बाबा को छोड़कर कुछ नहीं जानते थे, उनके लिये त्रि-भुवन में केवल मात्र गुरुदेव बाबा ही सब कुछ थे। बाबा भी तारा खेपा से अघात स्नेह करते थे, अपनी समस्त गूढ़ विद्या तथा भक्तों द्वारा दिया हुआ दान स्वरूप धन, वे तारा खेपा को दे देते थे; जिससे वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में धन तथा अन्य अलौकिक शक्तियों का उपयोग कर सके।
बाबा बामा खेपा ने जब महा-समाधि ली, तब तारा खेपा कामरूप में थे। बाबा ने उन्हें स्पर्श किया तथा कहा! मैं अब जा रहा हूँ, तुम क्या कर रहे हो? बाबा ने तारा खेपा को सादाहरण रूप में दर्शन दिये तथा कुछ क्षण पश्चात सूक्ष्म रूप में परिवर्तित हो गए। तदनंतर, वे कामरूप से तारापीठ के उद्देश्य से चल पड़े, बाबा को समाधिस्थ करने के समय तारा खेपा वहां उपस्थित थे।
बामा खेपा बाबा के अन्य अनेक शिष्य थे, ऐसा नहीं हैं की सभी ने सांसारिक जीवन का त्याग कर संन्यासी जीवन व्यतीत किया। बाबा के शिष्यों में बहुत से विवाहित थे तथा समाज में रह कर माँ तारा की सेवा करते थे। श्री ज्ञान बाबा, ओंकारनाथ ब्रह्मचारी, भवपगला, नागेन्द्रनाथ बागची (नगेन काका), कालिका नन्द अवधूत, मणिमोहन गोस्वामी, निगमानंद सरस्वती (नलिनीकांत) इत्यादि बामा खेपा बाबा के प्रमुख शिष्यों में थे। ऐसा नहीं हैं की बामा खेपा के शिष्यों में केवल संन्यासी ही थे। मणिमोहन गोस्वामी, बाबा के पास ही रहकर उनकी सेवा करते थे, विवाह तय होने पर बाबा ने उन्हें घर भेज दिया तथा तत्पश्चात उन्होंने विवाह किया, बच्चे हुए, परन्तु वे सांसारिक जीवन में न डूब सके, सर्वदा अध्यात्मिक मार्ग पर ही चेले, इनके बहुत से शिष्य हैं।
निगमानंद सरस्वती ब्रिटिश सरकार के कर्मचारी थे, एक दिन काम करते हुए अपने कार्यालय में उन्होंने अपनी पत्नी को देखा तथा वे अचंभित हो गए। घर जाने पर उन्होंने देखा की उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया था, मृत पत्नी के समस्त संस्कार पूर्ण होने पर, वे घर से अपनी पत्नी की आत्मा को खोजने हेतु निकल गए; जिसको उन्होंने अपने कार्यालय में देखा था। अंततः वे बाबा बामा खेपा के पास आये, जहाँ उनके जिज्ञासा का उन्हें समाधान मिला तथा वे संन्यासी हो गए। निगमानंद सरस्वती बंगाल के नामी संत तथा गुरुओं में आते हैं, इनके बहुत सारे शिष्य भारत वर्ष में फैले हुए हैं।