कश्यप जी ने कहा! तुम अत्यंत काम वासना से दग्ध थीं, वह समय उपयुक्त नहीं था और तुमने मेरे कैसी भी बात पर ध्यान नहीं दिया, देवताओं की अवहेलना की। अमंगल चंडी तुम्हारे कोख से दो बड़े भीषण अमंगल तथा अधम पुत्र उत्पन्न करेगी। उनके अत्याचारों से कुपित हो जगदीश्वर श्री विष्णु उनपर कुपित होकर अवतार धारण कर, इनका वध करेंगे। इस पर दिति ने कहा! यह तो मैं भी चाहती हूँ! अगर मेरे पुत्रों का कोई वध करें तो वह साक्षात् श्री हरि विष्णु ही हो। इस पर कश्यप जी ने कहा! तुम्हें अपने किये पर पश्चाताप हैं! तथा शीघ्र ही उचित तथा अनुचित का ज्ञान भी हो गया हैं। तुम्हारा शिव, ब्रह्मा, विष्णु तथा मुझ पर आदर भाव हैं, तुम्हारे पुत्रों में एक ऐसा भी होगा जिसका सत्पुरुष भी मान करेंगे तथा जिसके यश को भगवान के गुणों के समान माना जायेगा।
दिति आशंकित थीं! कही देवता उनके गर्भ को कोई हानि न पहुँचाए, इस कारण उन्होंने कश्यप जी के तेज को अपने गर्भ में १०० वर्षों तक रखा। गर्भ में पल रहें बालकों से सूर्य का प्रकाश क्षीण हो रहा था तथा इंद्र आदि लोकपाल भी तेजहीन हो गए थे। सूर्य के तेज के क्षीण होने के कारण चारों ओर अन्धकार व्याप्त हो रहा था तथा अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थीं, समस्त देवता ब्रह्मा जी के पास गए तथा उन्हें अपने भय से अवगत करवाया। अन्धकार के कारण दिन-रात का विभाग अस्पष्ट होने से लोकों से सारे कर्म लुप्त होकर, सभी को दुःखी कर रहें थे, इस समस्या के निवारण हेतु ब्रह्मा जी से सभी ने कोई उपाय करने की प्रार्थना की।
ब्रह्मा जी ने समस्त देवताओं को एक घटना से अवगत करवाया!
"तुम्हारे पूर्वज तथा मेरे प्रथम मानस पुत्र सनकादि ऋषि, आसक्ति का त्याग कर समस्त लोकों में आकाश मार्ग से विचरण किया करते थे। एक बार वे सभी लोकों के शिरों भाग में स्थित! वैकुण्ठ में गए, वहां पर सभी साक्षात् विष्णु स्वरूप ही होते हैं। क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि इन्द्रियों को भ्रमित तथा पथ भ्रष्ट करने वाली सभी प्रकार की कामनाओं का त्याग कर केवल भगवत शरण युक्त रहते हैं। वहां सर्वदा भगवान नारायण भक्तों को सुख प्रदान करने हेतु शुद्ध सत्व-मय रूप धारण कर रहते हैं। परम सौन्दर्य शालिनी देवी लक्ष्मी जी, जिनकी कृपा प्राप्त करने हेतु देव-गण भी आतुर रहते हैं, श्री हरि के धाम में अपनी चंचलता त्याग कर स्थित रहती हैं।
जब सनकादि ऋषि वैकुण्ठ में पहुंचे तो वहां के मनोरम नैःश्रेयस वन, सरोवरों में खिली हुई वासंतिक माधवी लता की सुमधुर गंध, मंदर, मुकुंद, तिलक वृक्ष, उत्पल (रात्रि में खिलने वाले कमल), चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नागकेसर, बकुल, अम्बुज (दिन में खिलने वाले कमल), पारिजात आदि पुष्पों की सुगंध से उन्हें बड़ा ही आनंद हुआ। भगवान दर्शन की इच्छा से वहां के मनोरम, रमणीय स्थलों को देखकर ६वी ड्यौढि पार कर जब वे सातवीं पर पहुँचें, उन्हें हाथ में गदा लिए दो पुरुष दिखें। सनकादि ऋषि बिना कैसी रोक-टोक के सर्वत्र विचरण करते थे, उनकी सभी के प्रति समान दृष्टि थीं, सर्वदा वे दिगंबर वेश धारण करते थे। वे चारों कुमार पूर्ण तत्व ज्ञानी थे, ब्रह्मा जी के सर्वप्रथम संतान होते हुए भी वे सर्वदा पाँच वर्ष के बालक की आयु वाले थे। इस प्रकार निःसंकोच हो भीतर जाते हुए कुमारों को जब द्वारपालों ने देखा, उन्होंने शील-स्वभाव के विपरीत सनकादि के तेज की हंसी उड़ाते हुए उन्हें रोक दिया। भगवान दर्शन पर जाते हुए कुमारों को द्वारपाल के इस कृत्य पर क्रोध आ गया।
सनकादि कुमारों ने द्वारपालों से कहा! तुम तो भगवान समान ही समदर्शी हो, परन्तु तुम्हारे स्वभाव में यह विषमता कैसी? भगवान तो परम शांत स्वभाव के हैं, उनका कैसी से विरोध भी नहीं हैं, तुम स्वयं कपटी हो! परिणामस्वरूप दूसरों पर शंका करते हो। भगवान के उदर में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड स्थित हैं, यहाँ रहने वाले ज्ञानीजन सर्वात्मा श्री हरि विष्णु से कोई भेद नहीं देखते हैं। तुम दोनों हो तो भगवान के पार्षद, परन्तु तुम्हारी बुद्धि बहुत ही मंद हैं, तुम काम, क्रोध, लोभ युक्त प्राणियों के पाप योनि में जन्म धारण करो। सनकादि की इस प्रकार कठोर वचनों को सुनकर, अत्यंत दीन भाव से युक्त हो पृथ्वी पर पड़ कर उन दोनों ने कुमारों की चरण पकड़ ली। वे जानते थे कि ब्राह्मण के श्राप का उनके स्वामी! श्री हरि विष्णु भी खंडन नहीं कर सकते हैं, वे भी ब्राह्मणों से बहुत डरते हैं। इधर जब भगवान को ज्ञात हुआ कि उनके द्वारपाल एवं पार्षद जय तथा विजय ने सनकादि साधुओं का अनादर किया हैं, वे स्वयं लक्ष्मी जी सहित उस स्थान पर आयें। परम दिव्य विग्रह वाले श्री हरि विष्णु तथा लक्ष्मी जी को देखकर सनकादि कुमारों ने उन्हें प्रणाम किया, उनकी दिव्य, मनोहर, अद्भुत छवि को निहारते हुए कुमारों के नेत्र तृप्त नहीं हो रहें थे।
भगवान श्री हरि विष्णु ने उन कुमारों से कहा! यह जय तथा विजय मेरे पार्षद हैं, इन्होंने बड़ा अपराध किया हैं, आप मेरे अनुगत भक्त हैं; इस प्रकार मेरे ही अवज्ञा करने के कारण आपने जो दंड इन्हें दिया हैं, वह उचित ही हैं। मेरी निर्मल सुयश-सुधा में गोता लगाने वाला चाण्डाल भी क्यों न हो तुरंत पवित्र हो जाता हैं; तत्काल समस्त पापों को नष्ट कर देती हैं, मेरे उदासीन रहने पर भी लक्ष्मी जी मुझे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ती हैं। ब्राह्मण, दूध देने वाली गायें तथा अनाथ प्राणी मेरे ही शरीर हैं।
भगवान श्री हरि ने आपने द्वारपाल जय तथा विजय से कहा! तुम्हें यह श्राप मेरे इच्छा के अनुसार प्राप्त हुआ हैं, यही तुम्हारी परीक्षा हैं। तीन जन्मो तक तुम्हारा जन्म दैत्य योनि में होगा तथा मैं तुम्हारा प्रत्येक जन्म में उद्धार करूँगा, उस योनि से मुक्ति प्रदान करूँगा। श्राप के कारण तुम दोनों प्रथम जन्म में हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यपु बनोगे, द्वितीय में रावण तथा कुम्भकर्ण तथा तृतीय जन्म में शिशुपाल तथा दन्तवक्र बनोगे।
इसपर सनकादि कुमारों ने भगवान श्री हरि से कहा! आपने हम पर बड़ा ही अनुग्रह किया हैं, इसका कारण क्या हैं? इसे तो आप ही समझ सकते हैं। सनातन धर्म आपसे ही उत्पन्न हुआ हैं, ब्राह्मण तथा देवताओं के आप ही आराध्य देव हैं, आपके अवतारों द्वारा ही समय-समय पर त्रिलोक की रक्षा होती हैं। निर्विकार आप धर्म के परम गुह्य रहस्य हैं, आपके कृपा से निवृत्ति परायण योगी बड़ी सुगमता से शरीर का त्याग कर मृत्यु रूप संसार चक्र से पार हो जाता हैं, मोक्ष को प्राप्त कर लेता हैं। आप साक्षात् धर्म स्वरूप हैं, आप सत्य इत्यादि समस्त युगों में प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहते हैं तथा जगत की रक्षा करते हैं। आप सत्व गुण की खान हैं, जो समस्त जीवों के कल्याण हेतु सर्वदा तत्पर रहती हैं, आप अपनी शक्ति द्वारा धर्म के शत्रुओं का संहार करते हैं, वेद मार्ग का उच्छेद आपको अभीष्ट नहीं है। आप तीनों लोकों के नाथ, जगत पालक होते हुए भी ब्राह्मणों के प्रति नम्र हैं, इन द्वारपालों को आप जैसा समझे दंड दे अथवा पुरस्कार दे। आप अगर ऐसा समझे! कि हमने आपके इन निरपराध अनुचरों को श्राप दिया हैं, तो आप हमें उचित दंड दे, वह भी हमें स्वीकार हैं। इस पर श्री भगवान ने कहा! आपने इन्हें जो श्राप दिया हैं, वह मेरी ही प्रेरणा से इन्हें प्राप्त हुआ हैं, आब वे शीघ्र ही दैत्य योनि को प्राप्त करेंगे। तदनंतर, भगवान श्री हरि की परिक्रमा कर वे कुमार वहां से चेले गए। तदनंतर, भगवान श्री हरि ने जय तथा विजय से कहा! भय मत करना! तुम्हारा कल्याण होगा! मैं सब कुछ करने में समर्थ होकर भी ब्रह्म तेज को नहीं मिटाना चाहता हूँ।
एक बार मैं योगनिद्रा मग्न था, तब तुमने द्वार पर प्रवेश करते हुए लक्ष्मी जी को भी रोक दिया था, उस समय क्रुद्ध हो उन्होंने पहले ही तुम्हें श्राप दिया, जिसके कारण आज यह घटना घटी। ब्रह्म-श्राप के कारण उसी क्षण जय तथा विजय! श्री हीन हो गए तथा वैकुण्ठ से गिरने लगे। तदनंतर, दिति के गर्भ में स्थित कश्यप जी के उग्र तेज में जय तथा विजय ने प्रवेश किया।"
उन दोनों के तेज ने ही! तुम सभी तथा सूर्य के तेज को कम कर दिया हैं। संसार की उत्पत्ति, स्थित तथा संहार के कारण श्री हरि विष्णु जिनकी योग-माया को बड़े-बड़े योगीजन भी नहीं जान पाते हैं, वे तीनों गुणों के नियंता ही हमारा कल्याण करें। ब्रह्मा जी के इस प्रकार कहने पर सभी देवताओं की शंका दूर हो गई तथा सभी अपने-अपने लोकों को चले गए।
कश्यप मुनि के कथनानुसार, दिति को सर्वदा अपने पुत्रों के अहित की चिंता रहती थीं परिणामस्वरूप सौ वर्ष पूर्ण होने पर दिति ने दो जुड़वा पुत्रों को जन्म दिया। उनके जन्म लेने के समय तीनों लोकों पर भारी उत्पात होने लगे, जिनसे सभी अत्यंत भयभीत हुए। जगह-जगह उल्कापात तथा पृथ्वी में कंपन होने लगे, बिजली गिरी, आकाश में धूमकेतु दिखने लगे, बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़ने वाली तीव्र तथा असह्य वायु चलने लगी, आकाश में अँधेरा सा छा गया, समुद्र तथा नदियों में ऊँची-ऊँची लहरे उठने के कारण खलबली मच गई थीं, गिदड़ तथा उल्लुओं के भयानक शब्द सुनाई दे रहा था, कुत्ते रो रहें थे, पृथ्वी पर समस्त जीव इधर उधर भागने लगे थे, क्रूर ग्रह वक्री हो कर चलने लगे थे, इस प्रकार के अनेको भयंकर उपद्रव उस समय उपस्थित होने लगे। सौ वर्षों तक अपनी माता के गर्भ में रहे के कारण! वे शरीर से अत्यंत कठोर तथा महान पर्वत के समान आकृति वाले थे। जब वे पृथ्वी पर चलते थे तो ऐसा लगता था मानो भूकंप आ रहा हैं। तीनों लोकों में समस्त प्रकार के अमंगल कारक चिन्ह प्रतीत हो रहे थे, सभी यह मान रहे थे मानो प्रलय आने वाला हैं।
दैत्य-माता दिति से दो पुत्रों का जन्म हुआ, १०० वर्ष गर्भ में रहने के कारण वे बड़े ही कठोर देह-धारी थें; कश्यप जी ने एक पुत्र का नाम हिरण्यकशिपु (प्रथम पुत्र) तथा दूसरे का नाम हिरण्याक्ष रखा गया। दोनों भाइयों का आपस में बहुत अधिक स्नेह था, हिरण्याक्ष श्री हरि विष्णु के वराह अवतार के हाथों मारा गया तथा हिरण्यकशिपु नरसिंह अवतार के हाथों। हिरण्यकशिपु पुत्र प्रह्लाद हुए, जिन्होंने दैत्य योनि प्राप्त कर भी भगवत भक्ति का प्रचार किया तथा जिनकी वन्दना समस्त देवताओं द्वारा की जाती हैं।