एक समय, स्वर्गाधिपति देवराज इंद्र! मधु पान से मत्त तथा कामासक्त हो, अप्सरा रम्भा के साथ एकांत में विहार कर रहे थे। उस पथ से महर्षि दुर्वासा अपने शिष्यों सहित, वैकुण्ठ से कैलाश पर्वत की ओर जा रहे थे, उन्हें देख इंद्र ने सर झुकाकर मुनिराज दुर्वासा तथा उनके शिष्यों को प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति-वंदना की। तत्पश्चात् शिष्यों सहित मुनिराज दुर्वासा ने, इंद्र को शुभ आशीर्वाद प्रदान किया साथ ही भगवान विष्णु द्वारा प्रदत्त परम मनोहर पारिजात पुष्प आशीर्वाद स्वरूप में प्रदान किया। मदोन्मत्त इंद्र ने आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त हुए पारिजात पुष्प को अपने श्रेष्ठ हाथी ऐरावत के मस्तक पर फेंक दिया। भगवान विष्णु के परम दिव्य पारिजात पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत हाथी, भगवान विष्णु के समान तेज, गुण सम्पन्न तथा रूप से सम्पन्न हो! उन्हीं की तरह हो गया तथा स्वर्ग को छोड़कर घने वन में चला गया। इंद्र के इस कृत्य को मुनिराज दुर्वासा! भगवान विष्णु के पुष्प का तिरस्कार मान बैठे और बड़े ही क्रुद्ध हुए।
दुर्वासा ने इंद्र से कहा! राज्य, सुख-वैभव तथा श्री के अभिमान से प्रमत्त होकर तुमनें मेरा अपमान किया हैं। श्री विष्णु को समर्पित किये हुए वस्तुओं को सहर्ष ग्रहण कर लेना चाहिये, अन्यथा वह ब्रह्म हत्या का भागी होता हैं। जो मनुष्य सौभाग्य से प्राप्त हुए, भगवान विष्णु के नवैद्ध का त्याग करता हैं, वह श्री एवं बुद्धि तथा राज्य से वंचित हो जाता हैं। हे इंद्र! तुमने अहंकार से मद होकर इस पारिजात पुष्प को हाथी के मस्तक पर फेंक दिया हैं, यहाँ पारिजात पुष्प जिस के सर पर रहता हैं, उसकी पूजा भी श्रेष्ठ मानी जाती हैं, इस अपराध के कारण लक्ष्मी जी तुम्हारा त्याग कर भगवान श्री हरि के पास चली जाये।
तत्पश्चात्, अमरावती पुरी पहुँच कर इंद्र ने देखा कि स्वर्ग दैत्यों तथा असुरों से भरा पड़ा हैं, महान उपद्रव की स्थिति हैं, सर्वत्र भय व्याप्त हैं तथा स्वर्ग के समस्त रत्न तथा वैभव लुप्त हो गए हैं। इस प्रकार दयनीय स्थिति को देख, देवराज इंद्र गुरु बृहस्पति के पास गए, उन्हें प्रणाम करने के पश्चात वे अपने गुरु-देव के चरणों पर पड़ कर, उच्च स्वर से विलाप करने लगे तथा उन्हें समस्त परिस्थिति से अवगत करवाया। गुरु बृहस्पति ने इंद्र को सांत्वना दी तथा उपदेश दिया की कर्म का फल भोगना ही पड़ता हैं, फलस्वरूप उन्हें पुनः अपने पद तथा राज्य की प्राप्ति हेतु जनार्दन श्री विष्णु की आराधना करनी चाहिये। जो मनुष्य इस संसार में घोर विपत्ति के समय भगवान श्री हरि का स्मरण करता हैं, उसके लिये विपत्ति में भी संपत्ति उत्पन्न हो जाती हैं, ऐसा भगवान शिव ने कहा हैं। श्री विष्णु का ध्यान कर, देवराज इंद्र समस्त देवताओं के साथ गुरु बृहस्पति को आगे करके ब्रह्मा जी के पास गए तथा उन्हें प्रणाम किया। देव-गुरु बृहस्पति ने ब्रह्मा जी से समस्त वृत्तांत सुनाया, जिसे सुनकर उन्होंने हंस कर इंद्र से कहा!
तुम मेरे वंश में उत्पन्न हुए हो, परम प्रतापी दक्ष प्रजापति तुम्हारे नाना हैं, तुम बृहस्पति जी के शिष्य हो, जिसके तीन कुल पवित्र हो, वह पुरुष अहंकारी कैसे हो सकता हैं? भगवान विष्णु समस्त प्राणियों में आत्मा रूप से विराजमान हैं, उनके शरीर का त्याग करने पर जीवित प्राणी शव हो जाता हैं। मैं! शरीर में इन्द्रियों का स्वामी मन हूँ, शंकर ज्ञान रूप रूप धारण कर देह में रहते हैं, भगवान विष्णु की प्राण स्वरूपा श्री राधा मूल प्रकृति के रूप में तथा भगवती दुर्गा बुद्धि रूप में स्थित रहती हैं। मैं, शिव, विष्णु, शेष-नाग, धर्म! इत्यादि जिनके अंश से उत्पन्न हुए हो, उन्हीं भगवान श्री हरि के पवित्र पुष्प का तुमने अपमान किया हैं। भगवान शिव ने जिस पुष्प से श्री हरि की पूजा की थीं, उसी पुष्प को दुर्वासा ने तुम्हें दिया था, परन्तु तुमने उसका तिरस्कार किया। भगवान जनार्दन के चरणकमल से च्युत, वह पुष्प जिसके भी पास रहता हैं, उसकी पूजा देवता भी करते हैं। भगवान श्री हरि के पुष्प का त्याग करने के कारण ही, श्री देवी ने रुष्ट होकर तुम्हारा त्याग कर दिया। अतः तुम इसी समय मेरे और गुरु बृहस्पति के साथ वैकुण्ठ चलो।
समस्त देवताओं के साथ ब्रह्मा जी वैकुंठ लोक गए, वहाँ उन्होंने शांतभाव से विराजित भगवान श्री विष्णु को देखा तथा सभी ने उन्हें प्रणाम किया। तदनंतर, ब्रह्मा जी ने उन्हें देवताओं की परिस्थिति से अवगत करवाया, श्री हरि ने देखा कि समस्त देवता रो रहे हैं तथा भय ग्रस्त, रत्न तथा आभूषण से रहित, शोभा शून्य, श्री हीन एवं निस्तेज हैं। देवताओं की ऐसे अवस्था देखकर भगवान हरि ने समस्त देवताओं को आश्वासन दिया की उनके रहते उन्हें डरने की आवश्यकता नहीं हैं, वे उन्हें परम तथा स्थिर रहने वाले एश्वर्य की वृद्धि करने वाली स्थिर लक्ष्मी प्रदान करेंगे। उस समय उन्होंने समस्त देवताओं से ध्यान-पूर्वक कुछ समयोचित बातें जो परम हितकारी थीं, सभी से सुनने के लिये कहा। मेरे प्रति समर्पित मेरा निरंकुश भक्त जिसके ऊपर रुष्ट हो जाता हैं, उसके घर में मैं कभी लक्ष्मी सहित नहीं रहता हूँ। महर्षि दुर्वासा, भगवान शंकर के अंश से उत्पन्न परम वैष्णव हैं, उन्होंने तुम्हें शाप दे दिया हैं, परिणामस्वरूप मैंने लक्ष्मी सहित तुम्हारे घर का त्याग किया हैं।
समस्त देवतों से ऐसा कहकर श्री हरि विष्णु ने लक्ष्मी जी से कहा! सागर के यहाँ तुम अपनी एक कला से जन्म धारण करो। लक्ष्मी जी से ऐसा कहकर, उन्होंने कमलोद्भव ब्रह्मा जी से समुद्र का मंथन करने के लिये कहा तथा समुद्र मंथन से प्राप्त होने वाली लक्ष्मी, रत्न इत्यादि देवताओं को सौंप देने की आज्ञा दी। परन्तु अकेले देवताओं में वह बल नहीं था जिससे वे समुद्र का मंथन कर सकें, परिणामस्वरूप श्री हरि ने देवताओं को दानवों से मिलकर, समुद्र मंथन करने की सलाह दी।
भगवान विष्णु देव-गणो से बोलें! समस्त देव गण ! मेरी बात ध्यान पूर्वक सुनें, क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय हैं। दैत्यों पर इस समय महा-काल की विशेष कृपा हैं, इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तुम दैत्यों से संधि कर लो। क्षीर-सागर के गर्भ में अनेक दिव्य रत्नों के साथ-साथ अमृत भी छिपा हैं तथा उस अमृत का पान करने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती हैं, अमरत्व प्राप्त होता हैं। सभी रत्नों के साथ उस अमृत को प्राप्त करने के लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर हैं, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो, कूट-नीति भी यही कहती हैं कि! आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए। तत्पश्चात्, जब अमृत पान कर सभी अमर हो जाओगे, तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकेंगे। देवगण ! इस कार्य के हेतु दैत्य जो संधि रखें, उसे स्वीकार कर लें, यह बात याद रखें कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता। भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्रादि देवगण, दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया। उस समय दानवो के राजा! प्रतापी बलि थे, तीनों लोकों पर उनका अधिकार था, वे परम शिव तथा विष्णु भक्त थे। इंद्र द्वारा समझाने पर वे देवताओं के साथ मिलकर, समुद्र मंथन करने के लिये तैयार हो गए तथा मंथन से प्राप्त होने वाले रत्नों को आपस में बाँट लेने का निश्चय किया।
जब देवता बिना अस्त्र-शस्त्र के दैत्य पति की सभा में गए, दैत्य सेनापतियों को बड़ा क्षोभ हुआ, उन्होंने देवताओं को पकड़ लेना चाहा, परन्तु महाराज बलि का ह्रदय बड़ा ही उदार था, उन्होंने दैत्यों को ऐसा करने से रोका। दैत्यराज बलि तथा अन्य दैत्य सेनापतियों को देवताओं का प्रस्ताव उचित लगा, तदनंतर देवता तथा असुर दोनों ने मिल कर आपस में संधि कर ली। देवता तथा दानव दोनों ने मिल कर मंदराचल पर्वत को उखाड़ लिया तथा गरजते हुए समुद्र तट की ओर ले जाने लगे, परन्तु मंदराचल बहुत भारी था और उसे बहुत दूर ले जाना भी था। मन्दराचल पर्वत जो एक लाख योजन चौड़ा था, इतने विशाल पर्वत को ले जाते हुए देवता तथा दानव बिच में थक गये तथा उन्होंने पर्वत को धरती पर पटक दिया, वे सभी हताश हो गये। इस प्रकार उनका उत्साह भंग होता देख भगवान श्री हरि अपने वाहन गरुड़ पर आरूढ़ हुए और वहा आयें, उन्होंने पर्वत को उठा कर अपने वाहन गरुड़ पर रख तथा समुद्र तट पर उतार दिया। पीछे-पीछे अन्य देवता तथा दैत्य समुद्र तट पर आये।
देवताओं तथा दैत्यों ने नाग-राज वासुकि को अमृत में भाग देने का वचन देकर मंथन में सम्मिलित कर लिया, तदनंतर उन्होंने वासुकि नाग को नेती समान मंदराचल पर्वत पर लपेट कर, समुद्र में स्थिर किया तथा बड़े उत्साह के साथ मंथन का कार्य प्रारंभ किया।
नागराज वासुकि के सहस्त्रों मुँह से विषकी अग्नि सामान ज्वालाएँ निकलने लगी, जिसके धुएं से समस्त असुर निस्तेज हो गए, झुलस गए और देवताओं को भी इसका कुछ दुष्परिणाम भोगना पड़ा। देवता वासुकि नाग के पूछ की ओर थे तो दैत्य सहस्त्रों मुखों वाले मस्तक भाग में थे, उनकी ऐसे दशा देख कर श्री हरि विष्णु की प्रेरणा से वर्षा होने लगी तथा शीतल वायु चलने लगी। वास्तव में देवताओं ने पहले से ही योजना बना राखी थी कि वासुकि नाग के फन से निकलते हुए प्रज्वलित अग्नि से सभी झुलस जायेंगे। योजना के तहत देवताओं ने नारद जी को दैत्यों के पास भेजा, जहाँ पर उन्होंने यह बात छेड़ दी कि दैत्य बड़े हैं या देवता! जो बड़ा और महान हो वह वासुकि नाग के मस्तक के भाग की और रहेगा। दैत्य वीर थे परन्तु उनमें बुद्धि की कमी थीं, भगवान विष्णु ने समुद्र मंथन के पहले दैत्यों को मस्तक या पूछ के भाग को पकड़ने का न्योता दिया, दैत्यों ने मस्तक की ओर ही रहने में अपनी वीरता समझी। परन्तु यहाँ देवता अपने योजन में सफल हो गए थे, उन्हें वासुकि नाग के पूछ को पकड़ने का अवसर प्राप्त हुआ।
समुद्र-मंथन प्रारंभ होने पर सर्वप्रथम हलाहल विष समुद्र से निकला, जिसके दुष्प्रभाव से देवता तथा दानव को पीड़ा होने लगी, भगवान शिव ने सबकी पीड़ा निवारण हेतु स्वयं हलाहल विष का पान किया। तदनंतर, मंदराचल पर्वत धीरे धीरे समुद्र में डूबने लगा, यह देख भगवान विष्णु! कूर्म (कछुआ) रूप में अवतीर्ण हुए, एक विशाल कूर्म जो १,००,००० योजन विस्तृत था, मंदराचल पर्वत को अपने कठोर पीठ पर सम्पूर्ण मंथन काल में अपने ऊपर उठा कर रखा, जिसके परिणामस्वरूप समुद्र मंथन का कार्य सुचार रूप से चलता रहा तथा नाना रत्न प्राप्त हुए।
समुद्र मंथन से सबसे प्रथम रत्न! हलाहल विष प्राप्त हुआ, जिसका पान भगवान शिव द्वारा किया गया, द्वितीय रत्न! कामधेनु गाय, तृतीय रत्न! अश्वों में श्रेष्ठ उच्चैःश्रवा घोड़ा, चतुर्थ रत्न! ऐरावत हाथी, पंचम रत्न! कौस्तुभमणि, षष्ठम रत्न! अप्सरायें (मेनका, रम्भा, उर्वशी, ऋतम्भरा, तिलोतम्मा आदि), सातवाँ रत्न! चन्द्र, अष्टम! दक्षिणावर्ती शंख, नवम रत्न! ज्येष्ठा या अलक्ष्मी, दसवीं रत्न! वारुणि मदिरा, एकादश रत्न! कमला जी प्राप्त हुई, तत्पश्चात्, कमला जी की समस्त देवताओं, शिव तथा ब्रह्मा जी ने पूजा-स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर देवी ने पुनः देवताओं के घर पर अपनी कृपा दृष्टि डाली। द्वादश तथा अंतिम रत्न! धन्वंतरी जी प्रकट हुए, जो अपने हाथों में अमृत कलश लिए हुए थे, साक्षात् श्री हरि विष्णु ही धन्वंतरी अवतार में समुद्र मंथन से अवतरित हुए थे।
समुद्र मंथन के सबसे अंत में एक अत्यंत अलौकिक पुरुष प्रकट हुआ, जिनकी भुजाएँ लम्बी एवं मोटी, चौड़ी छाती, गला शंख के समान उतर-चड़ाव युक्त, ऑंखें लालिमा लिये हुए, शरीर साँवले वर्ण वाली थीं। उन दिव्य पुरुष ने गले में माला, अंगों में नाना प्रकार के आभूषण, शरीर पर पीताम्बर, कानों में मणि युक्त कुंडल धारण किये हुए थे, उनकी तरुण अवस्था थी, वे सिंह के समान पराक्रमी, अनुपम सौंदर्य, घुंगराले बाल युक्त थे। साक्षात् श्री हरि विष्णु ही अपने हाथों में अमृत का कलश लेकर समुद्र मंथन से अवतरित हुए थे। यही आयुर्वेद के प्रवर्तक तथा यज्ञ-भोक्ता धन्वंतरी नाम से विख्यात हुआ।
हिन्दू धर्म से संबंधित नाना तथ्यों-कथाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर, प्रचार-प्रसार करना।