महाराज प्रियव्रत के वंश में उत्पन्न आग्निध्-पुत्र! नाभि के कोई संतान नहीं थीं, कारणवश उन्होंने अपनी भार्या मेरुदेवी सहित पुत्र की कामना से भक्तियुक्त एकाग्रता पूर्वक श्री भगवान का यजन किया। उनके यजन से प्रसन्न हो श्री भगवान शंख, चक्र, गदा, पद्म तथा गले में वनमाला तथा हृदय में कौस्तुभ मणि धारण किये प्रकट हुए। वह उपस्थित सभी ने मस्तक झुका कर प्रभु की अर्घ्य द्वारा पूजा की तथा ऋत्विजों ने उनकी स्तुति की तथा कहा! "राजर्षि नाभि पुत्र कामना से आप का यजन कर रहें हैं, आप अपने सामान ही उन्हें पुत्र प्रदान करे।" श्री भगवान ने ऋत्विजों से कहा! यह बड़े असमंजस की बात हैं, आप मुझ से बड़ा ही दुर्लभ वर मांग रहे हैं! ब्राह्मणों का वचन मिथ्या नहीं होना चाहिये! मैं स्वयं अपनी अंश कला से नाभि के यहाँ अवतार धारण करूँगा। इसके पश्चात भगवान अंतर्ध्यान हो गए।
महाराज नाभि, द्वारा प्रसन्न होने पर श्री भगवान विष्णु उनकी रानी के गर्भ से प्रकट हुए, मेरुदेवी ने पुत्र को जन्म दिया। जन्म से ही उनके पुत्र के शरीर में श्री भगवान विष्णु के वज्र-अंकुश आदि अंकित थे। बाल्य काल से ही समता, शांति, प्रभाव और ऐश्वर्य इत्यादि महा-विभूतियों के कारण उनका प्रभाव दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा था; यह देख सभी ब्राह्मणों तथा देवताओं की यह उत्कट अभिलाषा हुई की पृथ्वी का शासन वे करें। उनके सुन्दर और सुडौल शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, यश, पराक्रम तथा शूरवीरता के कारण महाराज नाभि ने उनका नाम 'श्रेष्ठ' यानी ऋषभ रखा। एक बार इंद्र ने ईर्ष्या वश उनके राज्य में वर्षा नहीं की, इस पर उनके मूर्खता पर हँसते हुए महाराज ऋषभ ने अपने योगमाया के बल से अपने राज्य में खूब जल बरसाया। इस प्रकार के पुत्र को पाकर महाराज नाभि अत्यंत प्रसन्न थे तथा बड़ा ही सुख मानने लगे। उन्होंने देखा की समस्त मंत्री, नागरिक और जनता ऋषभ देव पर बहुत अधिक स्नेह करती थीं, महाराज नाभि ने उन्हें राज्य पर अभिषिक्त कर ब्राह्मणों की देख-रेख में छोड़ दिया तथा अपनी पत्नी के साथ बदरिकाश्रम चेले गए।
राजा नाभि के उदार कर्मों का आचरण दुसरा और कोई नहीं कर सकता था, उनके शुद्ध कर्मों से संतुष्ट होकर साक्षात श्री हरी विष्णु ने उनके पुत्र के रूप में जन्म धारण किया।)
ऋषभ-देव ने देश अजना-भाग खंड को कर्मभूमि मानकर लोकसंग्रह के लिए कुछ काल तक गुरुकुल में ही वास किया तथा गुरु-देव को दक्षिणा देकर गृहस्थ में प्रवेश करने की आज्ञा प्राप्त की। गृहस्थ धर्म के पालन हेतु देवराज इंद्र द्वारा प्रदान की हुई उनकी कन्या जयंती की विवाह किया तथा शास्त्रोपदिष्ट कर्मों का आचरण करते हुए, उनके गर्भ से अपने ही सामान १०० पुत्रों को उत्पन्न किया। उनमें ज्येष्ठ भरत सर्वाधिक गुणवान थे, उन्हीं के नाम से अजना-भाग खंड को भारत-वर्ष कहा जाता हैं। भरत से छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इंद्रस्प्रृक्, विदर्भ और कीकट! यह नौ राज-कुमार अन्य भाइयों में बड़े एवं श्रेष्ठ थे। ऋषभ-देव के सभी पुत्र पिता की आज्ञा का पालन करने वाले तथा अति विनीत, महान वेदज्ञ तथा निरंतर यज्ञ करने वाले थे, वे सर्वदा ही पुण्य-कर्मों का अनुष्ठान करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण हो गए थे।
परम स्वतंत्र होने पर भी ऋषभ-देव स्वयं सर्वदा ही सब प्रकार की अनर्थ परंपरा से रहित, केवल आनंद अनुभव स्वरूप एवं साक्षात् ईश्वर ही थे, तभी भी अज्ञानियों के सामान कर्म करते हुए उन्होंने काल के अनुसार धर्म प्राप्त तथा आचरण कर, उसका तत्त्व न जानने वालों को उसकी शिक्षा दी। साथ ही सम, शांत, सुहृद और करुणानिधि रहकर धर्म, अर्थ, यश, संतान सुख तथा मोक्ष का संग्रह करते हुए गृहस्त आश्रम में लोगों को नियमित किया। महा-पुरुष जैसा-जैसा आचरण करते हैं, दूसरे भी वैसा ही आचरण करते हैं, ऋषभ-देव वेदों के गूढ़ रहस्य तथा ब्राह्मणों की बताई हुई विधि से प्रजा पालन करते थे। उन्होंने शास्त्र तथा ब्राह्मणों के उपदेशानुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से नाना द्रव्यों से १०० यज्ञ पूर्ण किये, इनके शासन काल में कोई भी पुरुष दिन प्रतिदिन बढ़ने वाले प्रभु अनुराग के अलावा किसी और वास्तु की इच्छा नहीं करते थे। एक बार ऋषभ-देव घूमते-घूमते ब्रह्मा-वर्त देश में पहुंचे, वहां बड़े-बड़े ब्रह्म-ऋषियों के सभा में उन्होंने प्रजा तथा पुत्रों को शिक्षा देने हेतु कहा!
इस मर्त्य-लोक में मनुष्य शरीर केवल विषय भोग प्राप्ति हेतु ही नहीं हैं, भोग तो कुकुर-सुकर इत्यादि विष्ठा-भोजी जीवों को भी प्राप्त होता हैं। इस शरीर से दिव्य तप ही करना चाहिये, जिससे अन्तः करण की शुद्धि होती हैं तथा अनन्त ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती हैं। शास्त्रों ने महापुरुषों के संग को मुक्ति का तथा स्त्री संग को नरक का द्वार बताया गया हैं, महापुरुष वे ही हैं जो समान-चित्त, परम-शांत, क्रोध-हीन, सभी के हित-चिन्तक तथा सदाचार संपन्न हैं। परमात्मा के प्रेम को केवल पुरुषार्थ मानते हैं, जो लौकिक कार्यों में केवल शरीर-निर्वाह हेतु ही प्रवृत्त होते हैं, वे ही महापुरुष हैं। प्रमाद-वश किया गया कुकर्म केवल इन्द्रियों को तृप्त करने हेतु ही होती हैं, यह अच्छा नहीं हैं, इसी के कारण आत्मा को असत् तथा दुखदायक शरीर प्राप्त होता हैं। जबतक जीवों को आत्म तत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती हैं, तभी तक अज्ञान वश देह के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता हैं। मनुष्य जब तक लौकिक कर्म में फंसा रहता हैं, तबतक मन में कर्म की वासनाएँ भी बनी रहती हैं तथा देह-बंधन में बंधा रहता हैं। इस कारण अविद्या के द्वारा आत्म स्वरूप ढक जाने से कर्म-वासनाओं के वशीभूत हुआ चित, मनुष्य को पुनः कर्म में ही प्रवृत्त करता हैं; अतः जब तक उनकी नारायण में प्रीति नहीं होती हैं, वह देह बंधन से छूट नहीं सकता हैं। स्वार्थी मनुष्य जबतक विवेक का आश्रय लेकर इन्द्रिय की क्रियाओं को मिथ्या नहीं देखता हैं, तबतक आत्म-स्वरूपी स्मृति खो बैठने के कारण वह अज्ञान वश विषय-प्रधान गृह आदि में आसक्त रहता हैं तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के क्लेश उठाता हैं।
स्त्री और पुरुष का जो परस्पर दांपत्य भाव हैं, उसी को पंडित जन उनके हृदय की दूसरी स्थूल तथा दुभेंद्ध ग्रंथि कहते हैं। देहाभिमान रूपी एक-एक सूक्ष्म ग्रंथि तो पहले से ही अलग-अलग हैं; इसी कारण देहेन्द्रियादि के अतिरिक्त घर, खेत, पुत्र, स्वजन और धन आदि में भी 'मैं' और 'मेरेपन' का मोह हो जाता हैं। जिस समय कर्म वासनाओं के कारण पड़ी हुई यह ग्रंथि ढीली हो जाती हैं, उस समय या दांपत्य भाव से निवृत्त हो जाता हैं और संसार के हेतु अहंकार को त्यागकर, हर प्रकार के बंधनों से मुक्त हो परम-पद को प्राप्त कर लेता हैं। संसार-सागर पार होने में कुशल तथा धैर्य, उद्धम एवं सत्त्व गुण विशिष्ट मानव को चाहिए कि सबके आत्मा और गुरु स्वरूप भगवान में भक्ति-भाव रखे, उनका परायण हो, तृष्णा का त्याग करें; तत्त्व जिज्ञासा से, तप से, सकाम कर्म के त्याग से, भगवान की कथाओं का नित्य-प्रति स्मरण तथा कीर्तन, वैराग्य से, समता से, शांति से, मेरे-पन भावना के त्याग से, अध्यात्म शास्त्र के अनुशीलन से, एकांत सेवन से, प्राण, इन्द्रिय तथा मन के संयम से, वाणी में संयम से, कर्तव्य कर्म मैं निरंतर सावधान रहने से, अनुभव ज्ञान सहित तत्त्व विचार से और योग साधन से अहंकार रूप अपने शरीर को लीन कर दे। मनुष्य को चाहिये ही अविद्या से प्राप्त इस हृदय ग्रंथि रूप बंधन को शास्त्रोक्त रीती से नाना साधनों द्वारा काट डाले; क्योंकि यही कर्म संस्कारों का निवास स्थान हैं। परम-पद की प्राप्ति कहने वाले प्रत्येक गुरु को अपने शिष्य को इसी प्रकार शिक्षा देनी चाहिये।
स्वयं अपना कल्याण किसमें हैं; इसे मानव नहीं समझता हैं; तरह-तरह की भोग-कामनाओं में फंसकर तुच्छ क्षणिक सुख हेतु आपस में वैरी हो जाते हैं तथा निरंतर विषय-भोगो के प्रति आसक्त रहते हैं। यह वैरी भाव नरक इत्यादि घोर दुखों की प्राप्ति करने वाला हैं। मेरे इस अवतार-शरीर का रहस्य सादाहरण पुरुषों हेतु बुद्धि-गम्य नहीं हैं, शुद्ध-सत्त्व ही मेरा हृदय हैं तथा उसी में धर्म की स्थिति हैं। मैंने अधर्म को अपने से बहुत दूर पीछे की ओर ढकेल दिया हैं, जिसके कारण मुझे सत्पुरुष 'ऋषभ' कहते हैं, तुम सभी मेरे उस शुद्ध-सत्त्व मय हृदय से उत्पन्न हुए हो, इसलिए मत्सर छोड़कर अपने बड़े भाई भरत की सेवा करो। अन्य सब भूतों की अपेक्षा वृक्ष श्रेष्ठ हैं; पशुओं में मनुष्य श्रेष्ठ हैं, मनुष्यों से प्रमथ गण, प्रमथों से गन्धर्व, गन्धर्व से सिद्ध, सिद्ध से देवताओं के अनुयायी किन्नर श्रेष्ठ हैं। उनसे असुर, असुर से देवता तथा देवताओं के श्रेष्ठ इंद्र हैं, इंद्र से श्रेष्ठ ब्रह्मा जी के पुत्र प्रजापति दक्ष, ब्रह्मा जी के पुत्रों में श्रेष्ठ रूद्र, ब्रह्मा जी सर्व-श्रेष्ठ हैं, क्योंकि उन्हीं से सभी उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्मा जी, मुझसे उत्पन्न हैं तथा मेरी उपासना करते हैं, इस कारण मैं उनसे भी श्रेष्ठ हूँ, परन्तु ब्राह्मण मुझसे भी श्रेष्ठ हैं, क्योंकि मैं उन्हें अपना पूज्य मानता हूँ; ब्राह्मण के सामान और कोई प्राणी नहीं हैं। मैं ब्रह्मादि से भी श्रेष्ठ एवं अनंत हूँ तथा स्वर्ग-मोक्ष आदि देने की सामर्थ्यता रखता हूँ; किन्तु मेरे भक्त ऐसे निस्पृह होते हैं कि वे मुझसे कुछ नहीं चाहते हैं।
पुत्रों तुम चराचर भूतों को मेरा ही देह जान कर शुद्ध-बुद्धि से इनकी सेवा करो, यही मेरी सच्ची पूजा हैं।
ऋषभ-देव के १०० पुत्रों में भरत सबसे बड़े थे, वे अपने पिता के आज्ञाकारी थे। ऋषभ-देव जी ने पृथ्वी के पालन का दाईत्व भरत को दे दिया तथा स्वयं उपशमशील निवृत्तिपरायण महामुनियों के भक्ति, ज्ञान और वैराग्य रूप परमहंसोचित धारणाओं की शिक्षा देने हेतु बिलकुल विरक्त हो गए। केवल मात्र शरीर मात्र का परिग्रह रखा तथा सर्व त्याग कर दिया; यहाँ तक की वस्त्रों का त्याग करके सर्वथा दिगम्बरी रहने लगे, उस समय उनके बाल बिखरे हुए थे, उन्मत्त भेष था। वे अपने में ही लीन होकर सन्यासी हो गए तथा ब्रह्मवर्त देश से बहार निकल पड़े, वे सर्वथा मौन रहने लगे, कोई बात करना भी चाहें तो बात नहीं करते थे; पिशाच, जड़ और पागलों की तरह अवधूत बने वे इधर-उधर भटकने लगे, सभी जगहों पर विचारने लगे। कई बार मूर्ख या दुष्ट लोग उनके पीछे हो जाते और उन्हें तंग करते थे, कोई धमकी देता था, कोई मरता था, कोई पेशाब पर देते थे, कोई थूक देते, कोई धेला मरते, कोई विष्ठा और धुल फेंकते, कोई खरी-खोटी सुनकर उनका तिरस्कार करते थे। किन्तु वे इन सब बातों पर तनिक भी ध्यान नहीं देते थे; इसका यह कारण था कि भ्रम से सत्य कथन वाले इस मिथ्या शरीर में उनकी अहंता-ममता तनिक भी नहीं थी। वे सम्पूर्ण कार्य-रूप प्रपंच के साक्षी होकर अपने परमात्म स्वरूप में ही लीन रहते थे, इस कारण वे अखंड चितवृत्ति से अकले ही पृथ्वी पर विचरते रहते थे। यद्यपि उनका शरीर पूर्ण बनावट लिए हुए था तथा स्वाभाविक मधुर मुस्कान बड़ा ही मनोहर था।
जब उन्होंने देखा की प्रजा उनके योग-साधना में विघ्न हैं तथा इससे बचने का एक मात्र उपाय वीभत्स-वृत्ति से रहना हैं, उन्होंने अजगर वृत्ति धारण कर ली। वे लेटे-लेटे खाने-पीने, चबाने और मल-मूत्र त्याग करने लगे; वे अपने त्यागे हुए मल में देह को सान लेते थे, परन्तु वास्तविकता तो यह थी कि उनके मल में दुर्गन्ध नहीं थीं, बड़ी सुगन्धित थी। उनके कारण दस योजन तक का क्षेत्र सुगन्धित हो जाता था। इसी प्रकार उन्होंने गौ, मृग, काग इत्यादि की वृत्तियों को अपनाया तथा उन्हीं के समान चलें। उनकी दृष्टि में सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा तथा वासुदेव भगवान में किसी प्रकार का कोई भेद नहीं था, इस कारण उनके सभी पुरुषार्थ पूर्ण हो चुकें थे। उनके पास आकाश-गमन, मनोज-वित्व, अंतर्धान, परकाया-प्रवेश, दूर की बातें सुन लेना और दूर के दृश्य देख लेना इत्यादि सभी प्रकार की सिद्धियाँ अपने आप ही आ गई थीं; परन्तु उन्होंने उनका मन से कभी ग्रहण नहीं किया।
उनके योग रूप वायु द्वारा प्रज्वलित हुई अग्नि से रागादि कर्म-बीज दग्ध हो गए थे; कारणवश उनके पास कई प्रकार की सिद्धियाँ स्वतः ही आ गई थीं। भगवान ऋषभ-देवयद्यपि इन्द्रादि समस्त लोकपालों के शिरोमणि स्वरूप थे, तभी भी वे जड़ पुरुषों की भांति अवधूत भेष धारण कर, भाषा तथा आचरण से अपने ईश्वरीय प्रभाव को छुपाये हुए थे। अंत में वे योगियों की देह त्याग विधि सीखने के लिए अपना देह त्याग करना चाहते थे, वे अपने अन्तः करण में अभेद रूप से स्थित परमात्मा को अभिन्न-रूप से देखते हुए, वासनाओं की अनुवृत्ति से छूट-कर लिंग-देह के अभिमान से मुक्त होकर उपराम हो गए। दैव-वश वे कोंक, वेंक तथा दक्षिण आदि कुटक कर्नाटक देश में गए तथा मुंह में पाषाण-खंड लिए एवं बाल बिखेरे उन्मत्त के समान दिगंबर रूप से कुत्काचल के वन में घुमने लगे। वहां वन में बांस के घर्षण से प्रबल दावाग्नि धधक उठी और उस दावाग्नि से वन सहित ऋषभ-देव को अपनी लपटों में लेकर भस्म कर दिया।
भगवान का ऋषभ-देव अवतार! रजोगुण से भरे हुए गृहस्थ लोगों को परमहंस मार्ग (अवधूत मार्ग) पर चल कर मोक्ष की शिक्षा प्रदान करने हेतु ही हुआ था।
हिन्दू धर्म से संबंधित नाना तथ्यों-कथाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर, प्रचार-प्रसार करना।