भगवान राम ने मर्यादाओं को सर्वदा सर्वोच्च स्थान दिया, परिणामस्वरूप उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम से जाना जाता है।
पूर्व काल त्रेता युग में श्री हरि विष्णु के अंश अवतार राम सूर्यवंश के रघु-कुल में जन्में, इनके पिता दशरथ तथा माता कौशल्या थीं। दशरथ, अयोध्या के राजा थे तथा उनकी तीन रानियाँ थीं! कौशल्या, सुमित्रा तथा कैकेय; उनके किसी भी पत्नी से उन्हें कोई संतान प्राप्ति नहीं हो रहीं थी, जो उनके पश्चात राज्य के कार्य-भार को संभल सकें। मंत्री सुमन्त्र की सलाह अनुसार उन्होंने श्रृंगि ऋषि से अश्वमेध तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया। महाराज दशरथ के कुल-गुरु महर्षि वशिष्ठ थे, अतः उनकी आज्ञा लेकर उन्होंने यज्ञ का कार्य सम्पूर्ण करवाया। पुत्रकामेष्टि यज्ञ के पूर्ण होने पर एक अलौकिक पुरुष अपने हाथ में नैवेद्य (खीर) का प्रसाद लेकर प्रकट हुआ तथा महाराज दशरथ से कहा! इस प्रसाद के भक्षण करने पर उनकी रानियों को संतान (पुत्र) की प्राप्ति होगी। महाराज दशरथ ने खीर का आधा भाग रानी कौशल्या को दे दिया, शेष बचे हुए भाग को अन्य दोनों रानी! सुमित्रा तथा कैकेयी को दे दिया। परिणामस्वरूप, रानी कौशल्या से राम, कैकेयी से भरत तथा सुमित्रा से लक्ष्मण व शत्रुघ्न, कुल चार पुत्रों का जन्म हुआ। इसके अलावा सुमित्रा से एक सुन्दर कन्या का भी जन्म हुआ, जिसे संतान हीन राजा लोमपाद को दत्तक पुत्री के रूप में दे दिया गया।
पिता की आज्ञा-अनुसार बाल्य काल में ही चारों भाई कुल-गुरु विश्वामित्र के अनुयाई हो आश्रम चले गए। महाराज दशरथ ने वन में राक्षसों द्वारा मचाएं जा रहे उत्पातों तथा ऋषियों द्वारा की जाने वाले यज्ञ रक्षा हेतु, अपने पुत्रों को महर्षि विश्वामित्र के साथ आश्रम में भेज दिया। धनुष-बाण धारण कर राम तथा लक्ष्मण पिता की आज्ञा-अनुसरण गुरु विश्वामित्र के साथ चलें, सर्वप्रथम उन्होंने गुरु की आज्ञा से तड़का नाम वाली राक्षसी का वध किया। तदनंतर, विश्वामित्र जी ने आश्रम में राम सहित चारों भाइयों को धनुर्विद्या का ज्ञान प्रदान किया। देवराज इंद्र द्वारा छल से संयोग होने पर, अपने पति गौतम ऋषि के शाप से प्रस्तर हुई अहल्या का उद्धार राम के चरणों के स्पर्श से हुआ। गुरु विश्वामित्र जब भी कोई यज्ञ करते थे, दोनों भाई राम तथा लक्ष्मण अपने धनुर्विद्या से यज्ञ की रक्षा करते थे, उन्होंने मारीच, सुबाहु जैसे राक्षसों का वध कर यज्ञ की रक्षा की।
विद्या-अर्जन पूर्ण होने पर विश्वामित्र जी, राम तथा लक्ष्मण को लेकर जनकपुरी गए, जहाँ पर राम ने भगवान शिव के धनुष को तोड़-कर सीता से विवाह किया। भगवान शिव के धनुष को तोड़ने के कारणवश उनपर, भगवान विष्णु के अवतार परशुराम जी क्रुद्ध हो गए; अपने विनय युक्त तथ्यों तथा मधुर वचन से उन्होंने उनके क्रोध को शांत कर दिया।
तदनंतर वे वापस अयोध्या-पुरी आ गए, २७ वर्ष के आयु में महाराज दशरथ ने राम के राज्याभिषेक की घोषणा की! परन्तु, रानी कैकेयी अपनी दासी मंथरा के बहकावे में आ गई और रानी ने महाराज-द्वारा दिए हुए दो वचन मांग लिए। पहला वचन! राम वनवासी भेष धारण कर १४ वर्षों हेतु वन जाए तथा दूसरा वचन! उनका पुत्र भरत अयोध्या-पति बने। कैकेयी के मांगे हुए वचन-अनुसार, राम को महाराज दशरथ ने वनवास दे दिया, इसपर लक्ष्मण तथा सीता भी उनके साथ वन को गए।
अयोध्या से निकलने के पाँचवें दिन राम-लक्षमण चित्रकूट पहुँच कर निवास हेतु पर्ण कुटी का निर्माण किया। यहाँ अयोध्या में महाराज दशरथ शोक से व्यथित हो गए, जिसके कारण उन्होंने प्राण त्याग दिए। उन्हें, श्रवण कुमार के पिता शाप फलित हो गया; एक बार महाराज दशरथ शिकार करने गए, उन्हें एक हिरण के जल पीने की ध्वनि सुनाई दी तथा उन्होंने हिरण-शिकार के उद्देश्य से शब्द भेदी बन चला दिया। परन्तु, उस स्थान पर हिरण नहीं बल्कि श्रवण नाम का एक बालक घड़े में जल भर रहा था। बाण लगने के कारण उनके प्राण निकलने वाले ही थे की राजा महाराज दशरथ, श्रवण कुमार के समीप गए, तब श्रवण ने उन्हें अपने अंधे माता-पिता के बारे में अवगत करवाया, जिन्हें वे डोली में बैठा कर कंधे पर उठाते हुए तीर्थ भ्रमण करा रहे थे। प्यासे माता-पिता की प्यास निवारण हेतु वे जल लेने सरोवर पर गए थे, श्रवण ने अपने प्यासे माता-पिता को जल पिलाने का दाईत्व महाराज दशरथ को दिया तथा प्राण त्याग दिए। श्रवण के माता-पिता को जब यह ज्ञात हुआ की उनका पुत्र राजा के हाथों मारा गया, दोनों ने तक्षण ही प्राण त्याग दिए। परन्तु श्रवण के पिता ने महाराज दशरथ को श्राप दिया कि! एक दिन उनके भी पुत्र शोक में प्राण जायेंगे और ऐसा ही हुआ, राम के वन गमन के शोक से व्याकुल हो महाराज की मृत्यु हो गई।
तदनंतर, भरत और शत्रुघ्न को जब ज्ञात हुआ की राम वनवास गए एवं इस शोक के कारण उनके पिता की मृत्यु हुई तथा भरत के राज्याभिषेक की तैयारी हो रही हैं, उन्हें बड़ी ठेस पहुँची। भरत ने अपनी माता कैकेयी का त्याग किया तथा अपने जेष्ठ भ्राता राम को ही राज सिंहासन का अधिकारी मानते हुए राम को लाने हेतु चित्रकूट पहुँचें। भरत ने राम को पिता के स्वर्ग-गामी होने का समाचार सुनाया तथा वापस अयोध्या चलने का निवेदन किया, परन्तु राम वापस नहीं आयें। इस पर भरत तथा शत्रुघ्न उनकी चरण पादुका लेकर नंदी ग्राम लौट आये तथा उन्होंने केवल राज्य की रक्षा की।
अयोध्या वासिओं को यह ज्ञात हो गया था की राम चित्रकूट में हैं, जो राम को नहीं भाया! अतः उन्होंने चित्रकूट का त्याग कर दिया। राम! ऋषि अत्रि से मिले तथा दंडकारण्य में आये तथा कई राक्षसों का वध किया; इसके पश्चात नासिक के पंचवटी में तीनों ने साड़े बारह वर्ष तक वास किया।
नासिक में वास करते हुए लक्ष्मण ने रावण की बहन शूर्पनखा राक्षसी की नाक काट दी, राक्षसी! लक्ष्मण के प्रति मोहित हो गई थीं तथा प्रणय की इच्छुक थीं। जिसका प्रतिशोध लेने हेतु रावण! सीता हरण करने आया; सर्वप्रथम रावण ने अपने मामा! मारीच को स्वर्ण मृग का वेश धर-कर सीता को मोहित करने का कार्य दिया। मारीच रूपी स्वर्ण हिरण के सीता द्वारा मोहित होने पर, राम को मायावी हिरण के पीछे जाना पड़ा तथा लक्ष्मण को सीता की रक्षा का कार्य दिया गया। राम द्वारा बाण से व्यथित होने पर मायावी मृग! लक्ष्मण रक्षा करो, रक्षा करो की उच्च ध्वनि करने लगा, जिस कारण सीता चिंतित हो गई तथा बल पूर्वक लक्ष्मण को राम की सहायता हेतु भेज दिया। लक्ष्मण न चाहते हुए भी वन में गए, परन्तु उन्होंने कुटी के चारों ओर रक्षा रेखा खींच दी तथा भाभी सीता से उस रेखा को पार न करने का निवेदन किया।
यहाँ, रावण अपनी योजना में सफल होने वाला था, वह भिक्षुक-ऋषि भेष धारण कर सीता की कुटिया के पास गया तथा भिक्षा मांगने लगा। रावण, लक्ष्मण रेखा लांघने में असमर्थ हो गया था, उसने सीता से रक्षा रेखा के पार आकर भिक्षा देने की मांग की; भ्रम में पड़ कर अंततः सीता ने लक्ष्मण रेखा पार किया। माघ मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि में राक्षस राज रावण ने सीता का हरण किया।
वापस लौटकर जब राम-लक्ष्मण कुटी पर आये, उन्होंने वहाँ पर सीता को नहीं देख तथा उनकी संधान में लग गए। उधर, जनक-नंदनी सीता को रावण अपने विमान में बैठा कर लंका ले जा रहा था तथा वे बहुत विलाप कर रही थीं, राम! राम! रक्षा करो! पुकार रही थीं। इस प्रकार की ध्वनि सुनकर पक्षी-राज जटायु ने रावण से युद्ध किया, परन्तु रावण ने अपने तलवार से जटायु का एक पंख काट दिया, जिससे वह भूमि पर गिर पड़ा। अगले दिन माघ कृष्ण नवमी को राम तथा लक्ष्मण, सीता की संधान में भटकते हुए जटायु से मिले; उन्होंने! उन्हें सीता-हरण के बारे में बताया और देह त्याग कर दिया। राम ने पक्षी राज जटायु का अंतिम संस्कार किया तथा दोनों भाई आगे की और बड़े, पम्पा सरोवर के निकट पहुँच कर उनकी भेंट शबरी नाम की बुढ़िया से हुई; शबरी ने भक्ति तथा प्रेम सह दोनों भाईओं को भोजन कराया, शबरी ने झूठे बेर राम को खिलाये।
पम्पा सरोवर से आगे जाने पर दोनों भाईओं की भेंट हनुमान से हुई, उन्होंने राम को सुग्रीव से मिलवाया। सुग्रीव से मित्रता करने के पश्चात राम ने सुग्रीव-शत्रु बाली का वध किया तथा सुग्रीव को राजा बनाया। सीता की खोज के लिए उन्होंने सुग्रीव से सहायता मांगी तथा हनुमान को सीता को ढूंढ निकालने का कार्यभार दिया गया। सीता-हरण के दसवें महीने! सम्पति ने हनुमान को सीता का पता बताया, राम की अंगूठी लेकर हनुमान सौ योजन समुद्र के ऊपर से छलांग लगाकर लंका पहुँचें। रात भर हनुमान ने सीता की खोज की तथा रात्रि समाप्त होते-होते हनुमान को सीता दर्शन हुए।
द्वादशी रात्रि में हनुमान अशोक वृक्ष के ऊपर बैठे रहें, उन्होंने जानकी के विश्वास हेतु उत्तम कथा कहीं तथा सीता माता को राम की अंगूठी दिखा कर, राम दूत होने का विश्वास दिलाया। त्रयोदशी को हनुमान अपनी क्षुधा निवारण हेतु वाटिका के फलो को खाया तथा वाटिका को क्षति भी पहुँचाई, इसी दिन अक्षयकुमार से हनुमान का युद्ध हुआ तथा मेघनाथ ने हनुमान को ब्रह्मास्त्र की सहायता से बाँध लिया। उन्हें बंधी हुए अवस्था युक्त रावण के राज सभा में प्रस्तुत किया गया। उनसे पूछने पर की वे कौन हैं? उन्होंने अपने आप को राम का दूत बताया तथा नाना प्रकार के निति युक्त बात कर, सीता को मुक्त करने हेतु कहा। परन्तु, हनुमान की बातें सुनकर रावण क्रोध से भर गया तथा उसे मृत्युदंड देने का निश्चय किया, परन्तु दूत को मारा नहीं जाता विभीषण द्वारा इस प्रकार समझाने पर, रावण ने हनुमान के पूँछ पर कपड़े बांधकर, तेल में डुबो आग लगाने का आदेश दे दिया। हनुमान के पूँछ पर आग लगाने पर उन्होंने रावण की सोने की लंका उछल-कूद कर जला डाली।
पुनः हनुमान पूर्णिमा में महेंद्र पर्वत पर वापस चले आएं, मार्गशीर्ष प्रतिपद तिथि से पांच दिनों तक रास्ते में रहकर वे मधुबन आये। षष्ठी को मधुबन का विध्वंस किया तथा सप्तमी को राम की सेवा में प्रस्तुत होकर, माता जानकी की पहचान-चिन्ह! उनके बालों की चूड़ामणि देते हुए लंका में उपस्थित सीता-माता की सब बात सुनाई तथा समाचार दिया! अगर उन्होंने सीता-माता को एक मास में मुक्त नहीं कराया तो वे प्राण त्याग देंगी।
अष्टमी दोपहर के समय राम ने दक्षिण दिशा की ओर जाने की प्रतिज्ञा करते हुए कहा! समुद्र लाँघ कर रावण का वध करूँगा! उनके साथ सुग्रीव तथा अन्य साथी भी थे। सात दिनों तक समुद्र तट पर सुग्रीव की समस्त सेना खड़ी रही, शुक्ल प्रतिपदा से लेकर तृतीया तक राम की उपस्थिति सेना सहित समुद्र तट पर ही रहीं। चतुर्थी तिथि में विभीषण, राम से मिले, पंचमी तिथि को सब ने मिल कर समुद्र पार करने का कोई उपाय निकालने हेतु विचार-विमर्श किया। इसके पश्चात राम ने चार दिन का व्रत किया तथा विनय सम्पन्न हो समुद्र से लंका जाने हेतु पथ देने का निवेदन किया। चौथे दिन समुद्र राम के सनमुख प्रकट होकर, उन्हें समुद्र पर करने का उपाय बताया।
समुद्र द्वारा बताएं अनुसार! दशमी तिथि से सुग्रीव की सेना में उपस्थित नल-नील नाम के दो भाईओं ने पत्थर पर राम-राम लिखकर समुद्र में फेंकने का कार्य प्रारंभ किया, जिस कारण पत्थर समुद्र में तैरने लगे। इस प्रकार सेतु को बांधने का कार्य प्रारंभ हुआ तथा त्रयोदशी तिथि में यह कार्य सम्पन्न हुआ, चतुर्दशी तिथि में राम सुमेरु पर्वत पहुँचें तथा सेना सहित पड़ाव डाला। पूर्णिमा से लेकर द्वितीय तक सारी सेना सेतु पार कर लंका पहुँच गई, तत्पश्चात जानकी को प्राप्त करने हेतु, राम ने वीर वानरों की सेना से सम्पूर्ण लंका को घेर लिया।
चैत्र अमावस्या के दिन रावण सहित अन्य राक्षसों का दाह-संस्कार हुआ तथा राम की विजय हुई। राम तथा रावण के बीच यह युद्ध माघ शुक्ल द्वादशी से लेकर चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक सत्तासी दिन हुआ, इस बीज केवल १५ दिनों के लिए युद्ध बंद रहा तथा बहत्तर दिनों तक युद्ध चला। वैशाख शुक्ल प्रतिपदा को राम युद्ध भूमि पर ही रहे, द्वितीय के दिन उन्होंने लंका के राज्य पर विभीषण को अभिषिक्त किया। तृतीया के दिन सीता को अग्नि परीक्षा देनी पड़ी, जिसमें वे सफल रही एवं समस्त देवताओं ने उन्हें अपना आशीष प्रदान किया। इसी दिन महाराज दशरथ का भी स्वर्ग से आगमन हुआ तथा उन्होंने भी सीता के पवित्रता के विषय में अनुमोदन प्राप्त किया। इस प्रकार रावण द्वारा हरि गई सीता को राम ने पुनः ग्रहण किया तथा लंका से लौटने का निश्चय किया। वैशाख कृष्ण चतुर्थी को राम-जानकी सहित अपने दल-बल के साथ रावण के पुष्पक विमान पर बैठ कर, आकाश मार्ग से अयोध्या पुरी के लिए रवाना हुए।
वैशाख कृष्ण पंचमी को राम अपने दल के साथ भारद्वाज आश्रम पर पधारे और रहें, षष्ठी को नन्दिग्राम में आये तथा सप्तमी तिथि को अयोध्या के राज्य पर उनका अभिषेक हुआ। चौदह वर्षों तक भरत तथा शत्रुघ्न ने अयोध्या की केवल रक्षा की थी। चौदह महीने और दस दिन सीता, राम से अलग रावण के राज्य लंका में रहीं थी, राम ने चौदह वर्ष पश्चात ही अयोध्या में प्रवेश किया था। बयालीस वर्ष की आयु में राम को राज्य का कार्य-भर सौंपा गया तथा उस समय सीता की आयु पैंतीस वर्ष की थीं। तदनंतर राम ने अपने तीनों भाइयों के साथ राज्य पर शासन किया।
राम के राज्य में सभी बहुत सम्पन्न तथा प्रसन्न रहते थे, राम के राज की तुलना न तो आज तक हुई हैं और न ही होंगी। सभी धन-धान्य से सम्पन्न तथा पुत्र-पुत्रों से परिपूर्ण थे; जिनकी पत्नी स्वयं लक्ष्मी जी थीं, वहाँ तो सम्पन्नता होनी ही थीं। राज्य में कभी भी सुखा नहीं पड़ता था, बादल इच्छा के अनुसार वर्षा करते थे, अन्न की उपज अधिक होती थीं, वृक्ष सर्वदा ही फल-फूल से भरे रहते थे, गौ भरपूर दूध देती थीं। राम के राज्य में किसी को भी कोई आधि-व्याधि नहीं होती थीं, समस्त स्त्रियाँ पतिव्रता थीं, सभी अपने माता-पिता की भक्ति करने वाले होते थे, ब्राह्मण सर्वदा वेद पाठ करते थे, क्षत्रिय या राजा लोग ब्राह्मण-तपस्विओं की सेवा करते थे। उस समय वर्ण-संकरता तथा कर्म-संकरता का नाम नहीं सुना जाता था, कोई भी स्त्री वन्ध्या, दुर्भाग्यावती, काक वन्ध्या, मृतवत्सा अथवा विधवा नहीं होती थीं। सधवा स्त्री को कोई विलाप नहीं होता था, माता-पिता तथा गुरु की कोई भी अवहेलना नहीं करता था। प्रत्येक मनुष्य पुण्य संचय में संलग्न रहा करता था, बड़े बुजुर्गों की आज्ञा का पालन होता था, कोई किसी और की संपत्ति या भूमि पर अधिकार नहीं करता था, सभी परायी स्त्रियों से विमुख रहते थे। कोई भी मनुष्य पर-निंदक, दरिद्र, रोगी, चोर, जुआरी, शराबी और पापी नहीं था, कोई किसी की जीविका को नष्ट नहीं करता था, झूठी गवाही नहीं देता था। राम-राज्य में मनुष्य व्रत के पालन के बिना नहीं रहता था।
राम अयोध्या में राज कर रहे थे, एक दिन दुर्मुख नामक एक गुप्तचर से उन्हें ज्ञात हुआ! प्रजा सीता की पवित्रता के विषय में संदिग्ध हैं। प्रजा! सीता के रावण के पास रहने के कारण, राम-सीता दोनों के प्रति अनेक अप्रिय बातें करते थे। उस समय सीता गर्भवती थीं और उन्होंने राम से एक बार तपोवन-शोभा देखने की इच्छा प्रकट की थी। रघु-वंश पर लगे कलंक से बचने हेतु राम ने सीता का त्याग कर दिया तथा तपोवन की शोभा दिखाने के बहाने! लक्ष्मण के साथ भेजा। लक्ष्मण से राम ने पहले ही कह दिया था कि! सीता का वे त्याग कर रहे हैं तथा उन्हें वही वन पर ही छोड़ आये। लक्ष्मण तपोवन पहुंचकर! अत्यंत उद्विग्न मन से सीता को सब कह सुनाया तथा लौट आये। सीता असहाय वन में रुदन कर रही थीं, वाल्मीकि मुनि को अपने दिव्य दृष्टि से सब बातें ज्ञात थी तथा वे सीता को अपने आश्रम पर ले आये। आश्रम में रहते हुए सीता ने लव और कुश नामक पुत्रों को जन्म दिया तथा बालकों का लालन-पालन भी आश्रम में हुआ।
एक बार राम ने अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया, जिसमें उन्हें सपत्नी उपस्थित रहना आवश्यक था! उन्होंने सोने की सीता की प्रीतम बनवाई तथा यज्ञ का कार्य प्रारंभ करवाया। यज्ञ के विषय में जब वाल्मीकि को पता चला, उन्होंने लव और कुश! जो राम के ही पुत्र थे तथा उनके शिष्य! रामायण सुनाने के लिए यज्ञ स्थल पर भेजा। अश्वमेध के यज्ञ का घोड़ा स्वछंद विचरण हेतु छोड़ा गया तथा लव और कुश ने उस घोड़े को पकड़ लिया। घोड़े के मस्तक पर लिखा हुआ था! यदि कोई वीर इस घोड़े को पकड़ ले तो उसे राम की सेना से युद्ध करना पड़ेगा। लव-कुश अपने आपको वीर समझते थे और उन्होंने घोड़े को पकड़ कर बांध लिया। यह, जब राम को पता चला तो सर्वप्रथम उनकी सेना युद्ध के लिए आई, परन्तु उन्हें हार ही मिली; अंततः राम स्वयं युद्ध के लिए आये। पिता-पुत्र के घोर युद्ध को रोकने हेतु सीता सबके सनमुख आई तथा लव तथा कुश को अपने पिता से मिलवाया, इसके पश्चात उन्होंने धरणी देवी का आवाहन किया। सीता की पुकार सुनकर धरती माता सिंहासन लेकर पृथ्वी से प्रकट हुई तथा उन्हें लेकर पृथ्वी के अन्दर चली गई।
सीता के धरणी में समा जाने के पश्चात, राम अयोध्या का राज्य करने लगे। एक दिन राम के भवन पर एक देवदूत आया तथा उनसे निवेदन करने लगा! मुझे आपसे एकांत में महत्त्वपूर्ण वार्तालाप करनी हैं! परन्तु, किसी ने यदि उनके वार्तालाप को देख लिया तो उसे मृत्यु दंड देना पड़ेगा। तदनंतर, राम ने लक्ष्मण को आज्ञा दी! जब तक में इस दूत से वार्तालाप करूँ, कोई भी उस कक्ष में न आ पाए! यदि कोई आवेगा तो उसे मृत्यु दण्ड दिया जायेगा तथा लक्ष्मण को राज-द्वार पर पहरेदार बना कर खड़ा कर दिया गया।
देवदूत ने राम से वार्तालाप प्रारंभ की, देवराज इंद्र ने देव-दूत से सन्देश भेजा कि! आपने रावण के विनाश के निमित्त मृत्यु-लोक में अवतार धारण किया तथा वह मारा गया। आपने देवताओं का कार्य सिद्ध कर दिया हैं! यदि अब आप चाहे तो मृत्यु-लोक का त्याग कर अपने धाम में पधारे।
ठीक देवदूत तथा राम के वार्तालाप के समय महर्षि दुर्वासा वहां पर आये तथा लक्ष्मण से कक्ष के भीतर जाकर, राम को उनके आगमन का समाचार देने हेतु कहा। इस पर लक्ष्मण ने उन्हें रोका और कहा! महाराज इस समय किसी देव-कार्य से एकांत में वार्तालाप कर रहे हैं, आप कृपया प्रतीक्षा करें। इस पर दुर्वासा क्रोधित हो कहने लगे! अगर मुझे अभी राम के दर्शन नहीं हुए तो में समस्त रघुकुल को शाप देकर भस्म कर दूंगा।
यह सुनकर लक्ष्मण ने अपने मन में कुछ विचार किया तथा स्वयं ही राम के पास जाकर कहने लगे! मुनिराज दुर्वासा आप के दर्शनों हेतु राज-द्वार पर खड़े हैं। लक्ष्मण के वचन सुनकर राम ने देवदूत से कहा! तुम इंद्र के पास जाकर कहो! मैं एक वर्ष के भीतर उनके समीप आ जाऊंगा। तदनंतर, राम ने लक्ष्मण को दुर्वासा ऋषि को शीघ्र भीतर लाने की आज्ञा दी, तत्पश्चात राम ने मुनि को अर्ध देकर प्रणाम किया, उनका स्वागत किया। महर्षि दुर्वासा चातुर्मास व्रत पूर्ण करने के पश्चात भोजन हेतु उनके पास आएं थे, राम ने मिष्टान्न आदि भोजन से उन्हें तृप्त किया। भोजन कर दुर्वासा जी के जाने के पश्चात, लक्ष्मण ज्येष्ठ भ्राता रामने देव-दूत को दिए हुए वचन की याद दिलाई। राम ने शास्त्र ज्ञाताओं को बुलवाकर सलाह ली तथा अंत में लक्ष्मण का यह कह कर त्याग कर दिया कि! साधु पुरुषों का त्याग और वध बराबर हैं।
तत्पश्चात लक्ष्मण सरयू के तट पर चले गए वहां सरयू जल में स्नान करने के पश्चात, पद्मासन लगा कर आत्मा को परमात्मा में लीन कर ब्रह्मरंध्र से अपने प्राण त्याग दिए। राम को जब यह ज्ञात हुआ, वे अत्यंत विलाप करते हुए मंत्रियों तथा सुहृदों के सरयू तट के उस स्थान पर गए, जहाँ लक्ष्मण ने प्राण त्याग किये थे। वहां आकाश से पुष्पों की वर्ष हुई तथा आकाशवाणी हुए कि! 'हे राम ! आप शोक न करें, ब्रह्म ज्ञान से संयुक्त लक्ष्मण सर्व सन्यास कर परम धाम को गमन कर गए हैं।
आकाशवाणी सुनकर मंत्रियों ने राम से कहा! लक्ष्मण परम धाम को गमन कर गए हैं, अब आप भी घर चलिये, राजकार्य की चिंता कीजिये तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणों से अपने भ्राता का पारलौकिक संस्कार करवाईं। इसपर राम ने कहा! मैं लक्ष्मण के बिना घर नहीं जाऊंगा, आप लोग मेरे पुत्र कुश को राज सिंहासन पर अभिषिक्त कर दीजिये। ऐसा कहकर राम ने भी परम धाम को जाने का विचार किया, उस समय उन्हें अपने मित्र विभीषण का स्मरण हो आया तथा उन्होंने जाम्बवान्, बालिपुत्र अंगद, कुमुद सुग्रीव इत्यादि अपने मित्रों से मिलकर परम धाम जाने का विचार किया। तदनंतर, पुष्पक विमान पर बैठकर वे किष्किन्धा गए, जहाँ पर वानरों ने अर्द्ध इत्यादि देकर उनका स्वागत किया। वहाँ सभी ने उनसे कुशल समाचार पूछा, लक्ष्मण तथा सीता के बारे में भी पूछा; राम ने वानर वीरों को सब समाचार सुनाया। यह सुन कर सुग्रीव इत्यादि वानर बहुत दुःखी हुए, राम ने सुग्रीव से कहा! वे वहां एक रात रुककर लंका में विभीषण से मिलने जायेंगे तथा सुग्रीव को उनके मंत्रियों सहित चलना पड़ेगा।
तत्पश्चात, राम ने रात्रि किष्किन्धा में व्यतीत किया, प्रातः होने पर दस वानर वीर सुग्रीव, सुषेन, तार, कुमुद, अंगद, कुंदु, हनुमान, गवाक्ष, नल तथा जाम्बवान् पुष्पक विमान पर आरूढ़ हुए तथा लंका पुरी की ओर चले। पुष्पक विमान का प्रकाश देख विभीषण को यह ज्ञात हुआ की राम आये हैं, प्रसन्नतापूर्वक अपने मंत्री, पुत्रों तथा सुहृदों सहित वे राम के स्वागत हेतु आयें। विमान से उतर कर सबसे पहले राम ने विभीषण को हृदय से लगाया तथा लंका पुरी में प्रवेश किया। विभीषण ने राम को अपना सब कुछ अर्पण कर! हाथ जोड़ निवेदन किया! मैं आपकी किस प्रकार सेवा करूँ? आपके साथ लक्ष्मण तथा जानकी जी क्यों नहीं आये?
राम ने विभीषण से कहा! राक्षस राज! मैं राज्य का त्याग कर अपने परम धाम को शीघ्र जाऊंगा, इस समय मैं तुम्हें शिक्षा देने हेतु प्रस्तुत हुआ हूँ, लक्ष्मण तथा सीता अपने परम धाम को जा चुकें हैं। तुम शांत चित से मेरी बातें सुनो! यह राज्य-लक्ष्मी स्वल्प बुद्धि वाले पुरुषों के मन में मदिरा की भातीं मद उत्पन्न करती हैं, अतः तुम्हें अपने मन में मद को उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए। इंद्र आदि समस्त देवताओं का तुम्हें सर्वदा आदर-पूजन करना चाहिये, जिससे तुम्हारा राज्य सदा सुस्थिर रहे। यदि कोई पुरुष किसी प्रकार यहाँ आ जाये तो समस्त निशाचरों को प्रसन्न होकर उसका सत्कार करना चाहिये, तुम्हें अपने निशाचरों को माना करना हैं कि वे मेरे सेतु को पार कर भारत भूमि पर न जाए।
राम के विचारों को सुनकर विभीषण ने उनकी आज्ञा का पालन करने का निश्चय किया तथा राम के साथ ही परम धाम जाने की इच्छा प्रकट की। परन्तु राम ने राक्षस-राज विभीषण से कहा! मैंने तुम्हें यह अविनाशी राज्य दिया हैं, इस प्रकार मुझे मिथ्या वादी मर करो। मैं यहाँ सेतु में तीन शिवलिंगों की स्थापना करूँगा, तुम्हें सर्वदा इन लिंगों की पूजा करनी पड़ेगी। इस प्रकार राम दस रात्रि तक वानरों सहित लंका पर ही टिके रहें, ग्यारहवें दिन राम ने अपनी पुरी की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में विमान से उतर कर वानरों तथा विभीषण सहित सेतु के आदि, मध्य तथा अंत में तीन रामेश्वरों की स्थापना की। तत्पश्चात जब राम अपनी पुरी की ओर जाने लगे तब विभीषण ने कहा, इस मार्ग से बहुत से मनुष्य रामेश्वर के दर्शन हेतु आयेंगे, राक्षस जाती अत्यंत क्रूर जानी जाती हैं। मनुष्य को आते देख अगर किसी राक्षस ने मनुष्य को खा लिया तो निश्चय ही मेरे द्वारा आपकी आज्ञा का उलंघन हो जायेगा। आप कोई ऐसा उपाय करें, जिससे मुझे आज्ञा भंग का दोष न लगे। विभीषण द्वारा इस प्रकार निवेदन सुनकर राम ने अपने धनुष से, सेतु के दस योजन विस्तृत भाग को खंडित कर दिया। जिससे सेतु मार्ग से लंका जाना असंभव हो गया, तदनंतर वानरों तथा राक्षस वीरों सहित उन्होंने अयोध्या पुरी की ओर प्रस्थान किया।
मार्ग में पुष्पक विमान सहसा अचल हो गया, राम ने हनुमान से इसका कारण ज्ञात करने हेतु पृथ्वी पर भेजा। हनुमान पृथ्वी पर उतरे, तत्पश्चात उन्होंने राम से जाकर कहा! यहाँ नीचे परम पावन हाटकेश्वर क्षेत्र हैं, यह जगत निर्माण करता ब्रह्मा जी का निवास हैं, इसी कारण पुष्पक विमान इस क्षेत्र को लांघ कर आगे नहीं बड़ा। तदनंतर, राम ने विमान को उसी स्थान पर उतरने की आज्ञा दी तथा सभी के साथ विमान से उतर कर तीर्थ के नाना स्थलों का दर्शन किया। अपने पितामह राजा अज के द्वारा स्थापित की हुई चामुंडा देवी के दर्शन किये, उनके पिता महाराज दशरथ द्वारा स्थापित की हुई भगवान विष्णु के दर्शन किये। राम ने वहां पर पाँच मंदिरों का निर्माण करवाया! एक भगवान शिव के निमित्त, लक्ष्मण के नाम से एक शिव लिंग, सीता तथा भ्राता लक्ष्मण की प्रस्तर निर्मित प्रतिमा स्थापित करवाई। तदनंतर, सभी पुष्पक विमान पर बैठ कर अयोध्या पुरी में आयें; अंततः राम ने परलोक गमन का स्थिर निश्चय किया, सभी को जब यह ज्ञात हुआ की वे परम लोक गमन करने जा रहें हैं तो बहुत से पशु-पक्षी, यक्ष, मानव इत्यादि सूक्ष्म तथा स्थूल देह धारी जीव वहां आये।
सभी राम के साथ परम धाम जाने के उद्देश्य से वह आयें थे, राम ने विभीषण से कहा! जब तक पृथ्वी पर प्रजा रहे, तुम भी यही रहकर प्रजा का पालन करो। हनुमान से राम ने कहा! तुम चिरंजीवी रहो, जब तक लोग मेरी कथा कहें तुम प्राणों को धारण करो। मयंद और द्विविद दोनों अमृत भोजी वानर हैं, जब तक वे दोनों जीवित रहें, सम्पूर्ण लोगों की सत्ता बनी रहें तथा सभी वानर मेरे पुत्र-पौत्रों की रक्षा करें। अगले दिन प्रातः काल, राम ने अपने पुरोहित वशिष्ठ से बोले! प्रज्वलित अग्निहोत्र, वाजपेय तथा अतिरात्र यज्ञ की अग्नि ले ली जाये तथा यह मेरे आगे रहें। वशिष्ठ मन ही मन सब जन गए तथा उन्होंने महा-प्रस्थान कालोचित कर्म किया, रेशमी वस्त्र धारण कर हाथ में कुश लिए राम महा-प्रस्थान को उद्धत हुए तथा अपने महल से निकले। उनके साथ उस समय त्रिभुवन के सभी थे, सभी वेद, देवता, लक्ष्मी जी, लज्जा देवी, धनुष, प्रतंच्या, बाण, ओमकार, वषट्कार, ऋषि, पर्वत, स्त्रियाँ, वृद्ध, बालक, नर, राक्षस, पशु-पक्षी, मंत्र इत्यादि सभी राम के साथ हो लिए। अयोध्या पुरी में ऐसा कोई सूक्ष्म प्राणी नहीं था जो राम के पीछे नहीं गया, आगे जाकर राम ने पुण्य सलिला सरयू का दर्शन किया तथा अपने चरणों से सरयू के जल का स्पर्श किया। उस समय वहां ऋषियों से घिरे हुए लोक पितामह ब्रह्मा, राम के समीप उपस्थित हुए, उनके साथ अनेकों दिव्य विमान थे। ब्रह्मा जी ने राम की स्तुति की तथा उन्हें अपने इच्छानुसार दिव्य रूप ग्रहण करने के लिए कहा। तदनंतर, भगवान विष्णु ने लोक पितामह ब्रह्मा से कहा! इस जन समुदाय को आपको उत्तम लोक प्रदान करना चाहिये। श्री हरि विष्णु का यह आदेश पाकर ब्रह्मा जी ने सभी को सान्तानिक लोक में स्थान दिया। वानर इत्यादि जो जिस देवता के अंश हैं, वे सभी उन्हीं देवता जा मिले; सूर्यपुत्र सुग्रीव सूर्य-मंडल में चलें जाये, ऋषि, नाग तथा यक्ष अपने-अपने कारण में प्राप्त हो गए। ब्रह्मा जी के ऐसा कहने पर, सभी ने सरयू के जल में डुबकी लगाई तथा हर्ष पूर्वक मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग इत्यादि देह त्याग कर, नाना विमानों में बैठ कर दिव्य लोकों को गए।
हिन्दू धर्म से संबंधित नाना तथ्यों-कथाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर, प्रचार-प्रसार करना।