हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी त्रिपुरसुंदरी के उत्पत्ति का रहस्य, सती वियोग के पश्चात भगवान शिव सर्वदा ध्यान मग्न रहते हुए हैं। उन्होंने अपने संपूर्ण कर्म का परित्याग कर दिया था, जिसके कारण तीनों लोकों के सञ्चालन में व्याधि उत्पन्न हो रही थी। उधर तारकासुर ब्रह्मा जी से वार प्राप्त किया कि "उसकी मृत्यु शिव के पुत्र द्वारा ही होगी।" वह एक प्रकार से अमर हो गया था, चूंकि सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में देह त्याग कर दिया था जिस कारण शिव जी संसार से विरक्त हो घोर ध्यान में चले गए थे। तारकासुर ने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर, समस्त देवताओं को प्रताड़ित कर स्वर्ग से निकल दिया। वह समस्त भोगो को स्वयं ही भोगने लगा।
समस्त देवताओं ने भगवान शिव को ध्यान से जगाने हेतु, कामदेव तथा उन की पत्नी रति देवी को कैलाश भेजा। सती हिमालय राज के यहाँ पुनर्जन्म ले चुकी थी तथा भगवान शिव को पति रूप में पाने के हेतु वे नित्य शिव के सनमुख जा उनकी साधना-सेवा करती थी। काम देव ने कुसुम सर नमक मोहिनी वाण से भगवान शिव पर प्रहार किया, परिणामस्वरूप शिव जी का ध्यान भंग हो गया। देखते ही देखते भगवान शिव के तीसरे नेत्र से उत्पन्न क्रोध अग्नि ने कामदेव को जला कर भस्म कर दिया। काम देव की पत्नी रति द्वारा अत्यंत दारुण विलाप करने पर भगवान शिव ने काम देव को पुनः द्वापर युग में भगवान कृष्ण के पुत्र रूप में जन्म धारण करने का वरदान दिया तथा वहां से अंतर्ध्यान हो गए। सभी देवताओं तथा रति के जाने के पश्चात, भगवान शिव के एक गण द्वारा काम देव के भस्म से मूर्ति निर्मित की गई तथा उस निर्मित मूर्ति से एक पुरुष का प्राकट्य हुआ। उस प्राकट्य पुरुष ने भगवान शिव कि अति उत्तम स्तुति की, स्तुति से प्रसन्न हो भगवान शिव ने भांड (अच्छा)! भांड! कहा। तदनंतर, भगवान शिव द्वारा उस पुरुष का नाम भांड रखा गया तथा उसे ६० हजार वर्षों कर राज दे दिया। शिव के क्रोध से उत्पन्न होने के कारण भांड, तमो गुण सम्पन्न था तथा वह धीरे-धीरे तीनों लोकों पर भयंकर उत्पात मचाने लगा। देवराज इंद्र के राज्य के समान ही, भाण्डासुर ने स्वर्ग जैसे राज्य का निर्माण किया तथा राज करने लगा। तदनंतर, भाण्डासुर ने स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर, देवराज इन्द्र तथा स्वर्ग राज्य को चारों ओर से घेर लिया। भयभीत इंद्र, नारद मुनि के शरण में गए तथा इस समस्या के निवारण हेतु उपाय पूछा। देवर्षि नारद ने, आद्या शक्ति की यथा विधि अपने रक्त तथा मांस से आराधना करने का परामर्श दिया। देवराज इंद्र ने देवर्षि नारद द्वारा बताये हुए साधना पथ का अनुसरण कर देवी की आराधना की तथा देवी ने त्रिपुरसुंदरी स्वरूप से प्रकट हो भाण्डासुर वध कर देवराज पर कृपा की तथा समस्त देवताओं को भय मुक्त किया।
कहा जाता हैं, कि भण्डासुर तथा देवी त्रिपुरसुंदरी ने अपने चार-चार अवतारी स्वरूपों को युद्ध लड़ने हेतु अवतरित किया। भाण्डासुर ने हिरण्यकश्यप दैत्य का अवतार धारण किया तथा देवी ललिता प्रह्लाद स्वरूप में प्रकट हो, हिरण्यकश्यप का वध किया। भाण्डासुर ने महिषासुर का अवतार धारण किया तथा देवी त्रिपुरा, दुर्गा अवतार धारण कर महिषासुर का वध किया। भाण्डासुर, रावण अवतार धारण कर, देवी के नखों द्वारा अवतार धारण करने वाले राम के हाथों मारा गया।
समस्त तंत्र और मंत्र देवी कि आराधना करते है तथा वेद भी इनकी महिमा करने में असमर्थ हैं। अपने भक्तों के सभी प्रार्थना स्वीकार कर देवी भक्त के प्रति समर्पित रहती है तथा भक्त पर प्रसन्न हो देवी सर्वस्व प्रदान करती हैं। देवी की साधना, आराधना नारी योनि रूप में भी की जाती है, देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध काम उत्तेजना से हैं, इस स्वरूप में देवी कामेश्वरी नाम से पूजित हैं।
देवी काली की समान ही देवी त्रिपुरसुंदरी चेतना से सम्बंधित हैं। देवी त्रिपुरा, ब्रह्मा, शिव, रुद्र तथा विष्णु के शव पर आरूढ़ हैं, तात्पर्य, चेतना रहित देवताओं के देह पर देवी चेतना रूप से विराजमान हैं तथा ब्रह्मा, शिव, विष्णु, लक्ष्मी तथा सरस्वती द्वारा पूजिता हैं। कुछ शास्त्रों के अनुसार, देवी कमल के आसन पर भी विराजमान हैं, जो अचेत शिव के नाभि से निकलती हैं शिव, ब्रह्मा, विष्णु तथा यम, चेतना रहित शिव सहित देवी को अपने मस्तक पर धारण किये हुए हैं।
यंत्रों में श्रेष्ठ श्री यन्त्र या श्री चक्र, साक्षात् देवी त्रिपुरा का ही स्वरूप हैं तथा श्री विद्या या श्री संप्रदाय, पंथ या कुल का निर्माण करती हैं। देवी त्रिपुरा आदि शक्ति हैं, कश्मीर, दक्षिण भारत तथा बंगाल में आदि काल से ही, श्री संप्रदाय विद्यमान हैं तथा देवी आराधना की जाती हैं, विशेषकर दक्षिण भारत में देवी श्री विद्या नाम से विख्यात हैं। मदुरै में विद्यमान मीनाक्षी मंदिर, कांचीपुरम में विद्यमान कामाक्षी मंदिर, दक्षिण भारत में हैं तथा यहाँ देवी श्री विद्या के रूप में पूजिता हैं। वाराणसी में विद्यमान राजराजेश्वरी मंदिर, देवी श्री विद्या से ही सम्बंधित हैं तथा आकर्षण सम्बंधित विद्याओं की प्राप्ति हेतु प्रसिद्ध हैं।
देवी की उपासना श्री चक्र में होती है, श्री चक्र से सम्बंधित मुख्य शक्ति देवी त्रिपुरसुंदरी ही हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध गुप्त अथवा परा शक्तियों, विद्याओं से हैं; तन्त्र की ये अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। तंत्र में वर्णित मरण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तंभन इत्यादि प्रयोगों की देवी अधिष्ठात्री है। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध गुप्त अथवा परा शक्तियों, विद्याओं से हैं, तन्त्र की ये अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। समस्त प्रकार के तांत्रिक कर्म देवी की कृपा के बिना सफल नहीं होते हैं।
आदि काल से ही देवी के योनि-पीठ कामाख्या में, समस्त तंत्र साधनाओं का विशेष विधान हैं। देवी आज भी वर्ष में एक बार देवी ऋतु वत्सल होती है जो ३ दिन का होता है, इस काल में असंख्य भक्त तथा साधु, सन्यासी देवी कृपा प्राप्त करने हेतु कामाख्या धाम आते हैं। देवी कि रक्त वस्त्र जो ऋतुस्रव के पश्चात प्राप्त होता है, प्रसाद के रूप में प्राप्त कर उसे अपनी सुरक्षा हेतु अपने पास रखते हैं।
देवी त्रिपुर सुंदर, सुंदरी या श्री कुल की अधिष्ठात्री देवी हैं।देवी त्रिपुरा या त्रिपुरसुंदरी, श्री यंत्र तथा श्री मंत्र के स्वरूप से समरसता रखती हैं, जो यंत्र-मंत्रो में सर्वश्रेष्ठ पद पर आसीन हैं, यन्त्र शिरोमणि हैं, देवी साक्षात् श्री चक्र रूप में यन्त्र के केंद्र में विद्यमान हैं। श्री विद्या के नाम से देवी एक अलग संप्रदाय का भी निर्माण करती हैं, जो श्री कुल के नाम से विख्यात हैं तथा देवी, श्री कुल की अधिष्ठात्री हैं। देवी श्री विद्या, स्थूल, सूक्ष्म तथा परा, तीनों रूपों में 'श्री चक्र' में विद्यमान हैं, चक्र स्वरूपी देवी त्रिपुरा श्री यन्त्र के केंद्र में निवास करती हैं, चक्र ही देवी का आराधना स्थल हैं तथा चक्र के रूप में देवी की पूजा आराधना होती हैं। श्री यन्त्र, सर्व प्रकार के कामनाओं को पूर्ण करने की क्षमता रखती हैं, इसे त्रैलोक्य मोहन यन्त्र भी कहाँ जाता हैं। श्री यन्त्र को महा मेरु, नव चक्र के नाम से भी जाना जाता हैं।
यह यन्त्र देवी लक्ष्मी से भी समरसता रखती हैं, देवी धन, सौभाग्य, संपत्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं, उनकी आराधना श्री यन्त्र के मध्य में होती हैं। सामान्यतः धन तथा सौभाग्य की दात्री होने के कारण, श्री चक्र में देवी की आराधना, पूजा होती हैं। सामान्य लोगों के पूजा घरों के साथ कुछ विशेष मंदिरों में देवी, इसी श्री चक्र के रूप में ही पूजिता हैं। कामाक्षी मंदिर, कांचीपुरम, तमिलनाडु, अम्बाजी मंदिर, गब्बर पर्वत, गुजरात (सती पीठों), देवी की पूजा श्री चक्र के रूप में ही होती हैं। शास्त्रों में यंत्रों को देवताओं का स्थूल देह माना गया हैं, श्री यन्त्र की मान्यता सर्वप्रथम यन्त्र होने से भी हैं, यह सर्व-रक्षा कारक, सौभाग्य और सर्व सिद्धि दायक तथा सर्व-विघ्न नाशक हैं। निर्धनता तथा ऋण से मुक्ति हेतु, श्री यन्त्र की स्थापना तथा पूजा अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, श्री यन्त्र के स्थापना मात्र से लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती हैं।
श्री यंत्र के मध्य या केन्द्र या में एक बिंदु है, इस बिंदु के चारों ओर ९ अंतर्ग्रथित त्रिभुज हैं जो ९ शक्तिओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। १. बिंदु, २. त्रिकोण, ३. अष्टकोण, ४. दशकोण, ५. बहिर्दर्शरा, ६. चतुर्दर्शारा, ७. अष्ट दल, ८. षोडश दल, ९. वृत्तत्रय, १०. भूपुर से श्री यन्त्र का निर्माण हुआ हैं, ९ त्रिभुजों के अन्त ग्रथित होने से कुल ४३ लघु त्रिभुज बनते हैं तथा अपने अंदर समस्त प्रकार के अलौकिक तथा दिव्य शक्ति समाये हुए हैं। ९८ शक्तिओं की आराधना श्री चक्र में की जाती हैं तथा समस्त शक्तियां सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नियंत्रण तथा सञ्चालन करती हैं।
कामेश्वरी की स्वारसिक समरसता को प्राप्त परा-तत्व ही महा त्रिपुरसुंदरी के रूप में विराजमान हैं तथा यही सर्वानन्दमयी, सकलाधिष्ठान ( सर्व स्थान में व्याप्त ) देवी ललिताम्बिका हैं। देवी में सभी वेदांतो का तात्पर्य-अर्थ समाहित हैं तथा चराचर जगत के समस्त कार्य इन्हीं देवी में प्रतिष्ठित हैं। देवी में न शिव की प्रधानता हैं और न ही शक्ति की, अपितु शिव तथा शक्ति ('अर्धनारीश्वर') दोनों की समानता हैं। समस्त तत्वों के रूप में विद्यमान होते हुए भी, देवी सबसे अतीत हैं, परिणामस्वरूप इन्हें ‘तात्वातीत’ कहा जाता हैं, देवी जगत के प्रत्येक तत्व में व्याप्त भी हैं और पृथक भी हैं, परिणामस्वरूप इन्हें ‘विश्वोत्तीर्ण’ भी कहा जाता हैं। देवी ही परा ( जिसे हम देख नहीं सकते ) विद्या भी कही गई हैं, ये दृश्यमान प्रपंच इनका केवल उन्मेष मात्र हैं , देवी चर तथा अचर दोनों तत्वों के निर्माण करने में समर्थ हैं तथा निर्गुण तथा सगुण दोनों रूप में अवस्थित हैं। ऐसे ही परा शक्ति, नाम रहित होते हुए भी अपने साधकों पर कृपा कर, सगुण रूप धारण करती हैं।
देवी विविध रूपों में अवतरित हो विश्व का कल्याण करती हैं तथा श्री विद्या के नाम से विख्यात हैं। देवी ब्रह्माण्ड की नायिका हैं तथा विभिन्न प्रकार के असंख्य देवताओं, गन्धर्वो, राक्षसों इत्यादि द्वारा सेवित तथा वंदिता हैं। देवी त्रिपुरा, चैतान्य-रुपा चिद शक्ति तथा चैतन्य ब्रह्म हैं। भंडासुर की संहारिका, त्रिपुरसुंदरी, सागर के मध्य में स्थित मणिद्वीप का निर्माण कर चित्कला के रूप में विद्यमान हैं। तदनंतर, तत्वानुसार अपने त्रिविध रूप को व्यक्त करती हैं, १. आत्म-तत्व, २. विद्या-तत्व, ३. शिव-तत्व, इन्हीं तत्व-त्रय के कारण ही देवी १. शाम्भवी २. श्यामा तथा ३. विद्या के रूप में त्रिविधता प्राप्त करती हैं। इन तीनों शक्तिओं के पति या भैरव क्रमशः परमशिव, सदाशिव तथा रुद्र हैं।
देवी त्रिपुरसुन्दरी के पूर्व भाग में श्यामा और उत्तर भाग में शाम्भवी विराजित हैं तथा इन्हीं तीन विद्याओं के द्वारा अन्य अनेक विद्याओं का प्राकट्य या प्रादुर्भाव हुआ हैं तथा श्री विद्या परिवार का निर्माण करती हैं। भक्तों को अनुग्रहीत करने की इच्छा से, भंडासुर का वध करने के निमित्त एक होना महाशक्ति का वैविध्य हैं।