त्रिगुणात्मिका महामाया आद्या-शक्ति दुर्गा तथा अन्य नाना अवतार।

त्रिगुणात्मक महामाया महाशक्ति आद्या शक्ति।

'महामाया', त्रिभुवन में सभी को मोहित करने में समर्थ शक्ति हैं, 'योगमाया या योगनिद्रा', भगवान विष्णु के योग निद्रा मग्न रहते हुए, उनसे उदित होने वाली संहारक तामसी शक्ति, 'दुर्गा', दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचार से मुक्त करने वाली शक्ति, 'काली', स्वयं काल का भी भक्षण करने में समर्थ शक्ति, 'तारा', जन्म तथा मृत्यु रूपी चक्र से तारने या मुक्त प्रदान कर शिवत्व प्रदान करने वाली शक्ति, 'पार्वती या सती', भगवान शिव की अर्धाग्ङिनी या पत्नी इत्यादि नाना प्रकार के नामों से विख्यात दैवीय शक्ति, 'आद्या शक्ति काली' देवताओ, दानवो तथा मानवो के नाना प्रकार के विकट, विकराल समस्याओं का निवारण करने वाली महा-शक्ति, जो साक्षात् भगवान शिव की पत्नी तथा भगवान विष्णु के अन्तः कारण की शक्ति हैं। काल तथा कार्य के अनुरूप के अनुसार भिन्न भिन्न अवतार धारण करने वाली, त्रि-देविओ या महा देविओ, महाविद्याओं, नव-दुर्गा समूह, सिद्ध विद्या, योगिनी इत्यादि नामों से विख्यात हैं तथा अन्य अनगिनत अवतार हैं।

सामान्यतः देवी दुर्गा दो रूपों में जानी जाती हैं, एक में वे दस भुजा वाली तथा दूसरे में अष्ट भुजा रूप में हैं। देवी का वाहन सिंह या बाघ हैं तथा असुर या दैत्य का वध कर रही हैं। नाना प्रकार के अमूल्य आभूषण, साड़ी, स्वर्ण मुकुट तथा अर्ध चन्द्र धारण किये हुए देवी मनोहर प्रतीत होती हैं, परन्तु वास्तविक रूप से देवी का स्वरूप क्रोध युक्त हैं। अपने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र धारण करने वाली, देवी दुर्गा अपने भक्तों के दुर्गम संकटों का नाश करती हैं।

दुर्गमासुर संहारिका, 'देवी दुर्गा'

देवी दुर्गा

दुर्गा देवी के प्रादुर्भाव की गाथा तथा दुर्गम दैत्य की तपस्या।

हिरण्याक्ष दैत्य के वंश में उत्पन्न एक महा शक्तिशाली दैत्य हुआ, जिसका नाम 'दुर्गमासुर' था, जो रुरु दैत्य का पुत्र था। श्रृष्टि के प्रारंभ से ही, देवताओ का बल तथा शक्ति वेद हैं और इन्हीं वेदों को नष्ट करने की कामना हेतु दैत्य दुर्गमासुर हिमालय पर्वत पर जा, ब्रह्मा जी की तपस्या करने लगा। हिमालय पर उनसे ब्रह्मा जी की १००० वर्षों तक कठिन तपस्या की, फलस्वरूप त्रिलोक में सभी संतप्त होने लगे। ब्रह्मा जी अंततः अपने वाहन हंस पर आरूढ़ हो दुर्गमासुर के पास, वर प्रदान करने हेतु गए तथा ध्यान में बैठे हुए दुर्गमासुर को वर मांगने के लिये कहा। देवताओ को पराजय करने की अभिलाषा से दुर्गमासुर दैत्य ने समस्त मंत्र तथा वेदों को ब्रह्मा जी से वर स्वरूप माँगा, ब्रह्मा जी ने भी दैत्यराज को इच्छित वर प्रदान किया और अपने सत्य लोक को चले गए। वर प्रदान करने के कारण, ब्राह्मणों तथा देवताओ के समस्त वेद तथा मंत्र लुप्त हो गए, स्नान, होम, पूजा, संध्या, जप इत्यादि का लोप हो गया। इस प्रकार जगत में एक अत्यंत ही घोर अनर्थ उत्पन्न हो गया तथा हविभाग न मिले के परिणामस्वरूप देवता जरा ग्रस्त हो, निर्बल हो गए। यहाँ देख दुर्गमासुर दैत्य, ने अमरावती पुरी को घेर लिया तथा देवताओ से युद्ध करने हेतु उद्धत हुआ। देवता शक्ति तथा बल से हीन हो गए थे, फलस्वरूप उन्होंने स्वर्ग से भाग जाना ही श्रेष्ठ समझा तथा भाग कर नाना पर्वतो की कंदराओ, गुफाओं में जा छिप गए। अंततः उन्होंने सहायता हेतु आदि शक्ति की आराधना करने का निश्चय किया।

देवी भुवनेश्वरी का सहस्त्रों नेत्रों से युक्त हो, वर्षा करना तथा 'शताक्षी' नाम प्राप्त करना और शाक, फल, मूल ब्राह्मणों तथा देवताओ को खाने हेतु प्रदान कर 'शाकम्भरी' नाम से विख्यात होना।

हवन-होम आदि न होने के परिणामस्वरूप, जगत में वर्षा का अभाव हो गया तथा वर्षा के अभाव में भूमि शुष्क तथा जल विहीन हो गई। ऐसे स्थिति सौ वर्षों तक बनी रही, कारणवश बहुत से जीव जल के अभाव में मारे गए, घर घर में शव का ढेर लगने लगा। इस प्रकार अनर्थ की स्थिति को देख, जीवित मानुष, ब्राह्मण इत्यादि हिमालय में जा कर ध्यान, पूजा तथा समाधी के द्वारा आदि शक्ति जगदम्बा, अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड की अधीश्वरि (जो इस चराचर जगत की प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से निर्माण कर्ता हैं) की, आराधना कर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास किया। इस प्रकार, ब्राह्मणों द्वारा बारम्बार प्रार्थना, स्तुति करने पर, समस्त भुवन पर शासन करने वाली भुवनेश्वरी, नील कमल के समान अनंत नेत्रों से युक्त स्वरूप में प्रकट हुई। उनका विग्रह काले काजल के समान था, नील कमल के समान विशाल नेत्रों से युक्त, कठोर समान आकर वाले, उन्नत, गोल तथा सुडौल स्थानों से सुशोभित थी। देवी अपने हाथों में मुट्ठी भर बाण, विशाल धनुष, कमल पुष्प, पुष्प-पल्लव, जड़ तथा फल, बुढ़ापे को दूर करने वाली शाक आदि धारण की हुई थी। सम्पूर्ण सुन्दरता के सार स्वरूप, असंख्य सूर्यो के समान दिव्य तथा प्रकाशमान, अत्यंत नेत्रों के साथ वे जगद्धात्री-भुवनेश्वरी, समस्त लोको में अपने सहस्त्रों नेत्रों से जलधाराएँ गिराने लगी तथा नौ रात्रों तक घोर वर्षा होती रही। जगत के समस्त प्राणियों के दुःख से दुखी हो, देवी अपने सहस्त्रों नेत्रों से आँसू गिराती रही, फलस्वरूप समस्त प्राणी तथा वनस्पतियाँ तृप्त हुई, समस्त नदिया तथा समुद्र जल से भर गई। इस अवतार में देवी शताक्षी (सहस्त्र नेत्रों वाली) नाम से जानी जाने लगी।
तदनंतर देवता जो नाना पर्वतो की कंदराओं में छिपे थे, बहार निकले तथा ब्राह्मणों के साथ देवी शताक्षी की स्तुति वंदना की तथा उनसे वेदों को पुनः प्राप्त कर ब्राह्मणों को सौंपने की प्रार्थना की। भूख तथा प्यास से ब्राह्मण तथा देवता ग्रस्त थे, देवी शताक्षी ने सभी को खाने के लिये शाक तथा फल-मूल प्रदान किये, साथ ही नाना प्रकार के अन्न तथा पशुओ के खाने योग्य पदार्थ भी। उसी काल से उनका एक नाम शाकम्भरी भी हुआ।

दुर्गमासुर का वध कर वेदों को पुनः प्राप्त करना तथा दुर्गा नाम से विख्यात होना।

दूत ने जा कर समस्त गाथा दुर्गमासुर को बताया, तक्षण ही दैत्यराज अपने समस्त अस्त्र-शस्त्र तथा सेना को साथ ले युद्ध के लिये चल पड़ा। दैत्यराज ने, बाण चलाते हुए, देवी के आगे खड़े हुए देवताओ कोई अवरुद्ध कर दिया तथा ब्राह्मणों को भी चारो ओर से रोक लिया। यहाँ देख देवता तथा ब्राह्मण भय-भीत हो चिल्लाने लगे 'रक्षा करो रक्षा करो', परिणामस्वरूप देवी ने देवता तथा ब्राह्मणों के चारो ओर तेजोमय चक्र बना दिया तथा स्वयं बहार आ खड़ी हुई। दुर्गम दैत्य तथा देवी के मध्य घोर युद्ध छिङ गया, तदनंतर देवी के शारीर से उनकी उग्र शक्तियां, देवी की सहायता हेतु प्रकट हुई, काली, तारिणी या तारा, बाला, त्रिपुरा, भैरवी, रमा, बगला, मातंगी, कामाक्षी, तुलजादेवी, जम्भिनी, मोहिनी, छिन्नमस्ता, गुह्यकाली, त्रिपुरसुन्दरी तथा स्वयं दस हजार हाथों वाली, प्रथम ये सोलह, तदनंतर बत्तीस, पुनः चौंसठ और फिर अनंत देवियाँ हाथों में अस्त्र शस्त्र धारण किये हुए प्रकट हुई। दस दिन में दैत्यराज की सभी सेनाएं नष्ट हो गई तथा ग्यारहवे दिन देवी तथा दुर्गमासुर में भीषण युद्ध होने लगा। देवी के बाणों के प्रहार से आहात हो, दुर्गमासुर रुधिर का वामन करते हुए, देवी के सन्मुख मृत्यु को प्राप्त हुआ तथा उसके शरीर से तेज निकल कर देवी के शरीर में प्रविष्ट हुआ (देवी ने यहाँ दुर्गमासुर को मृत्यु पश्चात् अपने भीतर स्थान दिया)।

इसके पश्चात् ब्रह्मा आदि सभी देवता, भगवान शिव तथा भगवान विष्णु को आगे कर, सभी भक्ति भाव से देवी की स्तुति करने लगे। इस प्रकार ब्रह्मा जी, भगवान विष्णु, भगवान शिव, अन्य देवताओ के स्तुति करने तथा विविध द्रव्यों से पूजन करने पर देवी संतुष्ट हो गई तथा "दुर्गा" नाम से जानी जाने लगी।
तदनंतर, देवी दुर्गा ने दुर्गमासुर से समस्त वेदों को प्राप्त कर ब्राह्मणों को प्रदान किया। यहाँ देवी की १६ संहारक शक्तिओ का वर्णन प्राप्त होता हैं तथा ये सभी महाविद्याओं की श्रेणी में ही आते हैं, देवी भागवत पुराण के अंतर्गत दस के स्थान पर १६ महाविद्याओं का उल्लेख प्राप्त होता हैं। साधारणतः देवी आदी शक्ति, दुर्गा नाम से अत्यंत प्रसिद्ध हैं तथा सामान्य जन मानस में इसी नाम से जानी जाती हैं, संभवतः कोई ऐसा हो जो दुर्गा नाम से परिचित न हो, दुर्गम संकटों से मुक्त करने वाली देवी दुर्गा।

महिषासुर की कठोर तपस्या, सभी देवतओं के तेज पुंज से देवी 'महिषासुर मर्दिनी दुर्गा' का प्राकट्य तथा उसका वध।

महिषासुर ने सुमेरु पर्वत पर दस सहस्त्र वर्षों तक अत्यंत घोर कठोर तप कर, लोकपितामः ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया। असुर से प्रसन्न हो ब्रह्मा जी ने इच्छित वर मांगने मांगने के लिए कहा, इस पर महिषासुर ने उनसें अमरत्व का वरदान प्राप्त करना चाहा। परन्तु, यह ब्रह्मा जी के लिए संभव नहीं था की उसे अमरत्व का वरदान प्रदान करें, उन्होंने उससे और कोई वर मांगने के लिए कहा। अंततः महिसासुर ने किसी भी असुर, देवता, मानव, पशु इत्यादि उसका वध न पायें, केवल मात्र किसी स्त्री के हाथों उनकी मृत्यु हो, ब्रह्मा जी से ये वर माँगा। (असुर के अनुसार जो स्वयं अबला हैं वह कैसे किसी को मार सकता हैं।) तदनंतर, ब्रह्मा जी ने उसे वर प्रदान की, कि किसी भी पुरुष के हाथों उसकी मृत्यु नहीं होगी, उसे केवल कोई स्त्री ही मार सकेंगी।

इसके पश्चात, वह देवताओ को परस्त कर तीनों लोको का स्वामी बन गया तथा समस्त लोकपालो के अधिकारों को छिन कर, स्वयं ही भोग करने लगा था। उसने देवताओ को परास्त कर उनके निवास स्थान स्वर्ग लोक से निष्काशित कर दिया। तदनंतर सभी देवता ब्रह्मा जी के साथ भगवान शिव तथा विष्णु के पास गए तथा महिषासुर का सब वृत्तांत कहा सुनाया, उन्होंने उस दैत्य वध के निमित्त कोई उपाय करने की प्रार्थना की। समस्त देवताओ के दारुण, दुख पूर्ण वृत्तांत को सुनकर तीनो देव बड़े रुष्ट एवं कुपित हुए। कुपित हुए, भगवान विष्णु के मुख से हजारों सूर्यों के समान कान्तिमान दिव्य तेज उत्पन्न हुआ। इसके पश्चात, नाना देवताओ के शरीर से तेज तेज पुंज निकलने का क्रम प्रारंभ हुआ, इन्द्रादि सभी देवताओ के शरीर से देवाधिपतियो को प्रसन्ना करने वाला तेज निकला तथा वह एक नारी के रूप में परिवर्तित हो गया। भगवान शिव के शरीर के तेज से उन देवी 'मुख' बना, यमराज के तेज से' केश' बने तथा भगवान विष्णु के तेज से 'भुजाएँ' बनी, चन्द्रमा के तेज से दोनों 'स्तन', इंद्र के तेज से 'कटि प्रदेश', वरुण के तेज से 'जंघा और उरु' उत्पन्न हुए, पृथ्वी के तेज से 'दोनों नितम्ब', ब्रह्मा जी के तेज से 'दोनों चरण', सूर्य के तेज से 'पैरों की उँगलियाँ' तथा वसुओं के तेज से 'हाथों की उँगलियों 'का निर्माण हुआ। कुबेर के तेज से 'नासिका', प्रजापति के तेज से 'दन्त पंक्ति', अग्नि के तेज से 'तीनो नेत्'र, संध्या के तेज से 'भृकुटियाँ', वायु के तेज से 'दोनों कान' उत्पन्न हुए। इस प्रकार समस्त देवताओ से उत्पन्न तेज पुंज से जिन शक्ति का प्राकट्य हुआ, उन्होंने महिषासुर का वध किया तथा महिषासुर मर्दिनी नाम से प्रसिद्ध हु, वे ही आदि शक्ति महामाया थीं।


देवताओ द्वारा देवी महिषासुरमर्दिनी को नाना शक्तियां प्रदान करना तथा महिषासुर का अंत।

समस्त देवतों ने उन देवी को अपने अपने अस्त्र-सस्त्र भी प्रदान किये, शिव जी ने उन्हें अपना 'शूल', भगवान विष्णु जी ने 'चक्र', अग्नि ने 'शक्ति', वायु ने 'धनुष तथा बाण', वरुण ने 'शंख', इंद्र ने 'वजरास्त्र' तथा अपने श्रेष्ठ हाथी का घंटा', काल ने 'तलवार तथा ढाल', समुद्र ने 'हार तथा कभी जीर्ण न होने वाले दो वस्त्र, चूड़ामणि, कुंडल, कटक, बाजूबंद, अर्ध चन्द्र, नूपुर इत्यादि आभूषण' तथा ब्रह्मा जी ने 'अक्षर माला तथा कमंडल', उन देवी को प्रदान की। विश्वकर्मा ने देवी को 'अंगूठियाँ', हिमालय राज ने देवी को वहाँ स्वरूप 'सिंह तथा नाना प्रकार के रत्न', धनपति कुबेर ने उन्हें 'उत्तम सुरा से भरा एक पात्र' तथा शेष नाग जी ने देवी को 'नाग हार' सहर्ष प्रदान किया। इसी प्रकार अन्य देवताओ ने भी जगन्माता आद्या शक्ति को सम्मानित किया तथा समस्त देवो ने मिल कर जगत उत्पत्ति की कारणस्वरूपा देवी की नाना स्तोत्रों से उत्तम स्तुति की।

उन देवतओं की स्तुति सुनकर देवी ने घोर गर्जना की, वो विकराल गर्जन महिषासुर को भी चकित कर गया तथा तक्षण ही वो अपनी सेना के साथ देवी से युद्ध करने हेतु पंहुचा। देवी तथा महिषासुर के मध्य युद्ध छिड़ गया; दानव श्रेष्ठ महिषासुर के प्रधान-प्रधान सेनापति चिक्षुर तथा दुर्धर, दुर्मुख, बाष्कल, ताम्र तथा विडालवदन जैसे यम-राज के समान भयंकर योद्धाओं ने देवी से पहले ही लोहा ले परस्त होकर मृत्यु को प्राप्त कर चुके थे। देवी क्रोधसे ऑंखें लाल कर, युद्धभूमि में युद्ध कर रहे महिषासुर के अधीनस्थ मुख्य-मुख्य वीर योद्धाओं को मार डाला, तदनंतर महिषासुर क्रोध से मूर्छित हो देवी के सन्मुख युद्ध के लिये खड़ा हुआ। महिषासुर नाना प्रकार के मायावी रूप धर देवी से युद्ध करने लगा तथा देवी ने भी उन सभी मायावी रूपों को नष्ट कर दिया तथा अंत में अपने खड़ग से महिषासुर का सर काट दिया। दैत्यराज के मारे जाने पर, उनकी बची हुई सेना भाग गई।

देवी दुर्गा के नौ रूप, जिन्हें नौ या नव दुर्गा के नाम से जाना जाता हैं।

  1. १. शैलपुत्री, पर्वत राज हिमालय के कन्या के रूप में उत्पन्न होने के परिणाम स्वरूप शैलपुत्री नाम से विख्यात।
  2. २. ब्रह्मचारिणी, तपस्या करने वाली।
  3. ३. चंद्रघंटा, मस्तक पर घंटे के सामान अर्ध चन्द्र होने के कारण।
  4. ४. कुष्मांडा, ब्रह्म को उत्पन्न करने वाली।
  5. ५. स्कंदमाता, देवासुर संग्राम के सेनापति जिन्होंने तारकासुर का वध किया 'कुमार कार्तिकेय', जिन्हें स्कन्द नाम से जाना जाता हैं, उनकी माता स्कंदमाता।
  6. ६. कात्यायनी, महर्षि कात्यायन की कन्या।
  7. ७. कालरात्रि, स्वयं काली के समान।
  8. ८. महागौरी, पूर्णतः गौर वर्ण होने के परिणामस्वरूप।
  9. ९. सिद्धिदात्री, समस्त प्रकार के सिद्धियो को प्रदान करने वाली।
  10. || अधिक जाने ||

दुर्गा, महिषासुरमर्दिनी

महिसासुर मर्दानी

दुर्गा, महिषासुरमर्दिनी

महिसासुर मर्दानी