महिषासुर ने सुमेरु पर्वत पर दस सहस्त्र वर्षों तक अत्यंत घोर कठोर तप कर, लोकपितामः ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया। असुर से प्रसन्न हो ब्रह्मा जी ने इच्छित वर मांगने मांगने के लिए कहा, इस पर महिषासुर ने उनसें अमरत्व का वरदान प्राप्त करना चाहा। परन्तु, यह ब्रह्मा जी के लिए संभव नहीं था की उसे अमरत्व का वरदान प्रदान करें, उन्होंने उससे और कोई वर मांगने के लिए कहा। अंततः महिसासुर ने किसी भी असुर, देवता, मानव, पशु इत्यादि उसका वध न पायें, केवल मात्र किसी स्त्री के हाथों उनकी मृत्यु हो, ब्रह्मा जी से ये वर माँगा। (असुर के अनुसार जो स्वयं अबला हैं वह कैसे किसी को मार सकता हैं।) तदनंतर, ब्रह्मा जी ने उसे वर प्रदान की, कि किसी भी पुरुष के हाथों उसकी मृत्यु नहीं होगी, उसे केवल कोई स्त्री ही मार सकेंगी।
दानव-राज महिषासुर सम्पूर्ण जगत पर शासन करने लगा, इस कारण उसे बड़ा ही अभिमान हो गया था। उसके सेनाध्यक्ष का नाम ‘चिक्षुर’ था, ‘ताम्र’ कोषाध्यक्ष, असिलोमा, उदर्क, विडाल, वाष्कल, त्रिनेत्र और कालबंधक नाम से अन्य पराक्रमी राजा उसके मित्र या अधीनता स्वीकार किये हुए थे। महिषासुर के पास बहुत बड़ी सेना थीं, ब्राह्मणों ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थीं, सम्पूर्ण यज्ञों में उस दानव को भी भाग दिया जाता था। एक दिन असुर-राज महिषासुर ने स्वर्गाधिपति इंद्र के पास दूत भेजा और कहलवाया की! या तो इंद्र उसकी अधीनता स्वीकार कर ले या स्वर्ग छोड़कर कहीं भी चेले जायें, अगर यह स्वीकार ना हो तो उसके साथ युद्ध करें।
इस प्रकार दूत की बात सुनकर इंद्र बहुत ही क्रोधित हुआ तथा सन्देश भिजवाया की वह युद्ध करने हेतु उद्धत हैं। साथ ही महिषासुर के महिष होने के कारण नाना प्रकार के अप्रिय वचन भी कहें। दूत ने जाकर अपने स्वामी को सारा वृत्तांत सुनाया, जिस से महिषासुर बहुत क्रोधित हुआ तथा उसने दैत्यों को बुलवा कर कहा ! “जिसने सुकर रूप धारण कर हिरण्याक्ष तथा नरसिंह का भेष बना कर हिरण्यकशिपु को मार डाला था, मैं उस विष्णु की अधीनता नहीं स्वीकार कर सकता हूँ। देवताओं में कोई नहीं हैं जो मेरे सामने टिक सकें, विष्णु तथा इंद्र मेरा क्या कर सकेंगे? मैं इंद्र को परास्त कर स्वर्ग के राज्य का स्वयं भोग करूँगा। सभी देवताओं को परास्त कर हम ही यज्ञ का भाग ग्रहण करेंगे, सोम-रस का पान कर पाएंगे, देवताओं के समाज को कुचलकर मैं दानवों के साथ सुखपूर्वक विचरण करूँगा। मुझे वर प्राप्त हैं, देवता मेरा कुछ नहीं कर पाएंगे। वीर दैत्यों, सभी जगहों से प्रधान-प्रधान दैत्यों को बुलवाओ तथा उन्हें मेरी सेना का अध्यक्ष बना दो। वैसे तो देवताओं के पराजय का मैं स्वयं की कारण बन सकता हूँ, परन्तु इससे मेरा और अधिक गौरव बढ़ जायेगा। वरदान के प्रभाव से देवता मेरा रत्ती भर भी कुछ नहीं बिगड़ सकते हैं।” स्वर्ग में अधिकार करने के पश्चात स्वर्ग के सरे वैभव का भोग वह स्वयं तथा केवल मात्र दैत्यों के द्वारा ही चाहता था।
उधर, स्वर्ग से दूत के चले जाने के पश्चात देवराज इंद्र ने यमराज, पवन-देव, कुबेर, वरुण इत्यादि सभी देवताओं को बुलवा कर, महिषासुर द्वारा उत्पन्न स्थिति से अवगत करवाया। सभी देवताओं ने महिषासुर की दुष्टता के कारण मैत्री करना उचित नहीं समझा और उसके दासत्व का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। देवताओं ने महिषासुर के सेना में कितने वीर योद्धा हैं, वे कितने पराक्रमी हैं इत्यादि पता करवाने हेतु निपुण गुप्तचर भेजा, जिस से वे उपस्थित किसी भी परिस्थिति का सामना करने हेतु तत्पर रह सकें। दूत ने महिषासुर के समस्त भेद जान कर देवराज इंद्र को अवगत करवाया, दानवों के उद्योग को जान कर इंद्र आश्चर्य चकित रह गए। उन्होंने तुरंत देव-गुरु बृहस्पति जी को बुलवाया तथा उनके साथ उपस्थिति परिस्थिति के विषय में परामर्श किया। महिषासुर के महान बल तथा अभिमान से उन्होंने वृहस्पति जी को अवगत करवाया, साथ ही उनसे समस्या के निवारण हेतु उपाय करने का निवेदन किया। बृहस्पति जी ने उन्हें अपने शक्ति के अनुसार उद्यम कर, धैर्य-युक्त के रहकर शांत रहने की सलाह दी तथा देव की सत्ता को ही इसका मूल बताया। सेना, रथ, अस्त्र-शस्त्र, आयुध इत्यादि तो केवल साधन मात्र हैं, परन्तु जय या पराजय देव कृपा से ही संभव हैं, परन्तु उद्यम से भी कभी चूकना नहीं चाहिये। विवेकी पुरुष को चाहिये की वह हर्ष और शोक दोनों ही परिस्थितियों में धैर्य का ही अनुसरण करें, सहनशील बने रहे। इस प्रकार महिषासुर के बल के कारण चिंतित हुए इंद्र को वृहस्पति जी से समझाया तथा सुयोग्य मंत्रियों से परामर्श लेकर विधिपूर्वक यत्न करने का उपाय सुझाया। देवराज इंद्र ने वृहस्पति जी को बताया की वह युद्ध की अवश्य ही उपयुक्त तैयारी करेगा, निरुद्यम होने पर सुख तथा यश का मिलना संभव नहीं हैं। इंद्र ने गुरु वृहस्पति से ‘रक्षोघ्न मन्त्र’ के जप करने का निवेदन किया, इस पर बृहस्पति जी ने उन्हें पुनः समझाया की कार्य की सिद्धि होना या न होना सदैव ही दैव के अधीन हैं।
इसके पश्चात इंद्र, ब्रह्मा जी के शरण में गए तथा कहा ! “आप सम्पूर्ण देवताओं के अध्यक्ष हैं, महिषासुर नाम का दैत्य स्वर्ग पर अधिकार प्राप्त करना चाहता हैं तथा उसने समस्त दैत्यों को अपने साथ मिला कर विपुल बल का संग्रह कर लिया हैं। महिषासुर के बल से घबराकर मैं आप के पास आया हूँ, आप मेरी सहायता कीजिये।” ब्रह्मा जी ने उस समय कैलाश पर जाकर भगवान शिव तथा श्री विष्णु से युद्ध का कार्यक्रम निश्चित करने का विचार किया। उनके अनुसार सभी देवताओं के साथ बैठकर देश और काल के अनुसार विचार कर युद्ध करना उचित था। इस पर देवराज इंद्र ने ब्रह्मा जी को अग्रणी बनाया तथा लोकपालों के साथ ले कैलाश पर गए तथा वहां पहुँच कर उन्होंने भगवान शिव की स्तुति की। इसके पश्चात भगवान शिव को अपना अग्रणी बना कर सभी वैकुण्ठ गए, श्री विष्णु की स्तुति कर सभी से उनसे वह आने का उद्देश्य बताया। देवराज इंद्र की बातें सुनकर श्री विष्णु ने उपस्थित देवताओं के साथ युद्ध में भाग लेने का निश्चय किया। ब्रह्मा जी, विष्णु तथा शिव और सभी प्रधान देवता अपने-अपने वाहनों पर सवार हो युद्ध के लिए चले।
ब्रह्मा जी हंस पर, श्री विष्णु गरुड़ पर, भगवान शिव वृषभ पर, इंद्र ऐरावत हाथी पर, यमराज भैंस पर, स्वामी कार्तिक मयूर पर सवार हो अपने सैनिक बल के साथ महिषासुर से युद्ध करने हेतु चले। कुछ ही दूरी पर उन्हें महिषासुर के दानवी सेना से सामना करने का अवसर प्राप्त हुआ, जो महिषासुर से सुरक्षित थीं। वही पर देवताओं तथा दानवों में घोर युद्ध प्रारंभ हुआ, नाना अस्त्र-शास्त्रों से उन्होंने एक दूसरे पर आक्रमण किया। इंद्र के द्वारा सेनापति ‘चिक्षुर’ को मूर्छित करने पर, महिषासुर ने अपनी सेना का कमान विडाल नामक महान असुर को प्रदान किया। इस प्रकार आदेश पा कर वह हाथी पर सवार हो इंद्र से युद्ध करने के उद्देश्य से चला, तदनंतर दोनों में महान युद्ध होने लगा। दोनों अपने-अपने पक्ष की विजय हेतु युद्ध कर रहें थे। इंद्र ने ‘विडाल’ को बलवान देखकर, जयंत को उससे युद्ध करने का आदेश दिया तथा स्वयं असुर-राज से युद्ध करने हेतु गया। जयंत ने अपने पाँच बाणों से विडाल पर प्रहार किया जिससे उसके छाती में गहरी चोट आई और वह युद्ध भूमि से बहार चला गया। इस पर देवता विजय घोष करने लगे, जिससे महिषासुर को बड़ा ही क्रोध हुआ, उसने देवताओं के अभिमान को चूर्ण करने हेतु ‘ताम्र’ नामक दानव को युद्ध के लिए भेजा। ताम्र जैसे ही रण-भूमि में आया वह बाणों की वर्षा करने लगा, वरुण-देव पाश ले तथा यमराज दंड लेकर दानवी सेना पर टूट पड़े। यमराज के दंड से ताम्र के भी मूर्छित हो जाने पर महिषासुर स्वयं विशाल गदा ले देवताओं पर टूट पड़ा। प्रथम उसका इंद्र के साथ घोर भयंकर युद्ध हुआ, दोनों नाना प्रकार के आयुधों से युद्ध कर रहें थे। उस समय ‘शम्बरासुर’ ने एक ऐसी माया का आविष्कार किया, जो सम्पूर्ण जगत को नष्ट कर देने की शक्ति रखता था। महिषासुर ने शीघ्र ही उस माया का प्रयोग कर एक करोड़ और महिषासुरों को प्रकट किया, जो रूप एवं पराक्रम में उसी के सामान थे। इस माया से इंद्र बहुत घबरा गए तथा अन्य सभी देवताओं के मन में भी महान त्रास छा गया, सभी भाग गए।
देवताओं ने थोड़ी दूर जाकर ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी का चिंतन किया, स्मरण करते ही वे देवताओं के सनमुख उपस्थित हो गए तथा उनकी रक्षा हेतु नाना आयुध अपने हाथों पर धारण किये हुए थे। मोह उत्पन्न करने वाली उस माया को देखकर भगवान विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र चलाया, जिसे तेज से माया द्वारा रची गई सभी रचना समाप्त हो गई। तीनों महा-देवों को देखकर महिषासुर युद्ध की अभिलाषा से परिध उठा कर आगे बड़ा तथा अन्य सभी वीर युद्ध करने की इच्छा से निकल पड़े, उन्होंने देवताओं को चारों ओर से घेर लिया। भगवान विष्णु तथा शिव के साथ महिषासुर तथा उसके पक्ष के दानवों का भयंकर युद्ध हुआ, कुछ समय पश्चात वे अपने-अपने स्थानों को लौट गए।
इंद्र हाथ में वज्र लेकर युद्ध मैदान में डटे रहें, वरुण हाथ में वज्र ले उनका साथ दे रहे थे, यमराज भी दंड के साथ वही उपस्थित थे। अग्निदेव ने शक्ति लेकर युद्ध में सहयोग देना प्रारंभ कर दिया, कुबेर युद्ध के लिए प्रयत्नशील बने रहे। चन्द्रमा तथा सूर्य देव भी युद्ध हेतु पधारे तथा दोनों सेनाओं के बीच घोर युद्ध प्रारंभ हो गया। दानव-राज, महिष रूप धारण कर सेना के मध्य उपस्थित था, वह अभिमान में चूर था। उसने अपने सींगो से पर्वतों के शिखरों को उखाड़ कर देवताओं पर फेंका शुरू कर दिया, अपने खुरों के आघात से तथा पूंछ घुमाने से बहुत से देवताओं को घायल कर दिया। उसके नाना प्रकार के पराक्रम को देख कर सभी देवता अत्यंत डर गए, इंद्र भी युद्ध से पीछे हट गए, वरुण, कुबेर, यम-राज इत्यादि देवता भी भय से घबरा कर विचलित हो गए। इस प्रकार महिषासुर ने विजय मानकर अपने महल के लिए प्रस्थान किया।
देवताओं के भाग जाने के पश्चात महिषासुर ने इंद्र के ऐरावत हाथी, कामधेनु गौ और उच्चै:श्रवा घोड़े को अपने अधिकार में ले लिया। तदनंतर उसने स्वर्ग पर चढ़ाई की, देवता डर से कातर हो इधर उधर छिपे थे, महिषासुर ने सम्पूर्ण स्वर्ग को अपने अधिकार में ले लिया। स्वयं महिषासुर देवराज के आसन पर बैठा तथा अन्य दानवों को अन्य देवताओं के आसन पर बैठाया, इस प्रकार वह इंद्र का पद प्राप्त करने में सफल रहा। देवता स्वर्ग त्याग कर इधर उधर पर्वत की गुफाओं में छिप गए, इस प्रकार उन्होंने महान क्लेश भोगना पड़ा।
दुःखी होकर वे सभी पुनः ब्रह्मा जी के पास गए तथा उनसे निवेदन किया ! “सम्पूर्ण दुःख दूर करने वाले ब्रह्मा जी, इस समय सभी देवता संग्राम में दानव-राज महिषासुर से परस्ती हो नाना पर्वतों की कंदराओं में कालक्षेप कर रहे हैं। पद से अच्युत होने के कारण उन्हें महान कष्ट भोगना पड़ रहा हैं, हमारी ऐसे दयनीय स्थिति देख कर आपको दया नहीं आ रहीं हैं? दैत्यों द्वारा सताए जाने पर आज सम्पूर्ण देवता आप के शरण में आयें हैं। महिषासुर इस समय तीनों लोकों का अधिकार भोग रहा हैं, यज्ञों का सर्वोत्तम भाग उसी को प्राप्त होता हैं। आप हम सभी देवताओं के रक्षक हैं, इनके कल्याण करने की कृपा करें।” ब्रह्मा जी ने कहा ! “मैं क्या करूँ? मैं वर प्रदान कर बंध गया हूँ। उसका वध किसी स्त्री के द्वारा ही हो सकता हैं, उसे कोई पुरुष नहीं मार सकता हैं। सर्वप्रथम, हम सभी श्रेष्ठ कैलाश शिखर पर चेले तथा वह से भगवान शिव को साथ लेकर तदनंतर वैकुण्ठ में चले, वहां सभी एकत्रित होकर देवताओं के कार्य सिद्धि के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करें।"
ब्रह्मा जी समस्त देवताओं के साथ कैलाश गए तथा सभी ने भगवान शिव को प्रणाम किया। भगवान शिव ने उन सब के एकसाथ आने का कारण पूछा। इस पर ब्रह्मा जी बोले ! “महिषासुर ने स्वर्ग में रहने वाले देवताओं को महान क्लेश पहुँचाया हैं, ये भय से कातर हो पर्वतों की खोह में निवास कर रहे हैं। इन्हें इस समय यज्ञ का भाग नहीं प्राप्त होता हैं, पीड़ित होकर सभी देवता आप के पास आयें हैं। आप इस विषय में जो भी उचित समझे करें।” भगवान शिव ने मधुर वाणी में ब्रह्मा जी से कहा ! “यह आप ही के कारण हैं, आप ने ही तो उसे वरदान दे रखा हैं। आप के वर के कारण ही महिषासुर में ऐसे अपार शक्ति हैं, संग्राम में तो न मेरी और ना ही आप की पत्नी जा सकती हैं। दूसरी किसी स्त्री में वह पराक्रम नहीं हैं की वह युद्ध कर सकें, मेरे अनुसार हमें भगवान विष्णु के पास जाना चाहिये और उन्हीं से इस समस्या के निवारण हेतु कोई उपाय करने का निवेदन करना चाहिये।” इसके पश्चात सभी वैकुण्ठ की और चले।
वैकुण्ठ में पहुँच कर, देवताओं ने जय तथा विजय नाम के द्वारपालों से कहा की उनके आने की सूचना श्री विष्णु को दे। विजय ने श्री विष्णु को सूचित किया की समस्त देवगण आप के दर्शनों के अभिलाषी हैं। तदनंतर भगवान विष्णु ने उन सभी देवताओं को आसन पर बैठा कर, उनसे वहां पधारने का प्रयोजन पूछा। देवताओं ने उन्हें महिषासुर द्वारा उनपर किये गए अत्याचारों से अवगत करवाया तथा उसके निवारण हेतु उनकी सहायता करने की प्रार्थना की। देवताओं ने श्री विष्णु से महिषासुर के वध हेतु कोई उपाय करने का निवेदन किया, क्योंकि दानवों की माया से वे भली प्रकार से परिचित थे। ब्रह्मा जी के वरदान अनुसार महिषासुर पुरुष मात्र से अवध्य था तथा किसी स्त्री में ऐसा पराक्रम तथा बल नहीं हैं की वह उस से युद्ध में विजय प्राप्त कर सकें।
देवताओं की बात सुनकर भगवान विष्णु को पूर्व समय की बात का स्मरण हो आया, जब महिषासुर से युद्ध हुआ था, तथा उसका वध नहीं हो पाया था। उन्होंने सोचा की क्यों न समस्त देवताओं के तेज पुंज से किसी स्त्री का प्राकट्य किया जाये, जो अपार बल से पूर्ण हो तथा वह उस दानव का वध करें। भगवान विष्णु से सभी देवताओं से अपनी-अपनी शक्ति से अनुरोध करने के लिए कहा, जिस से एक महान शक्तिशाली देवी प्रकट हो जाये। साथ ही अपने-अपने अस्त्र शास्त्र उन देवी को प्रदान कर उन्हें दुर्जय बनाने का सुझाव दिया।
इसके पश्चात ब्रह्मा जी के शरीर से स्वयं एक तेज पुंज प्रकट हुआ, जिसका वर्ण लाल था, इसके पश्चात भगवान शिव के शरीर से एक दिव्य तथा विशाल तेज प्रकट हुआ, जो गौर वर्ण से शोभा पा रहा था, इसके पश्चात भगवान विष्णु के शरीर से एक तेज राशि निकली, जो श्याम वर्ण वाली थीं। तदनंतर, इंद्र, वरुण, कुबेर, यमराज तथा अग्नि के तेज से पृथक-पृथक तेज पुंज प्रकट हुए, इनके अतिरिक्त अन्य जितने भी देवता थे उनके शरीर से भी तेज का प्राकट्य हुआ। भगवान शिव के तेज से देवी की मुख की, भगवान विष्णु के तेज से अठारह भुजाएं उत्पन्न हुए। सब देवताओं के तेज पुंज के एकत्रित होने पर एक महान तेज पुंज जो हिमालय के सामान विशाल था, वह उपस्थित हुआ तथा एक स्त्री के रूप में परिणत हो गया। सभी देवता उस दिव्य स्त्री को देख कर आश्चर्य चकित थे, उस देवी में सत्व, राज तथा तमो गुण विद्यमान थे। वह देवी अठारह भुजाओं से युक्त थीं, उनके तीन वर्ण थे, काले नेत्र थे, स्वच्छ मुख मंडल था। यमराज के तेज से देवी के लम्बे केश, अग्नि के तेज से तीनों नेत्र जो कृष्ण, रक्त तथा श्वेत वर्ण के, संध्या के तेज से सुन्दर भौंहें, वायु के तेज से दोनों कान, कुबेर के तेज से नासिका, प्रजापति के तेज से दन्त पंक्ति, अरुण के तीज से लालिमामय निचे का होंठ तथा कार्तिक के तेज से ऊपर के होंठ उत्पन्न हुए। वसुओं के तेज से लाल वर्ण युक्त हाथ की उँगलियाँ, चन्द्र के तेज से दोनों स्तन, इंद्र के तेज से कटिप्रदेश, वरुण के तेज से जंघाएँ और पिण्डीलियाँ, पृथ्वी के तेज से नितम्ब भाग प्रकट हुआ जो बहुत विशाल था। इस प्रकार समस्त देवताओं के तेज पुंज से सुन्दर देवी का प्राकट्य हुआ, जिनका स्वर अत्यंत ही मधुर था, समस्त अंग मनोहर थे।
इसके पश्चात भगवान विष्णु ने समस्त देवताओं से कहा, "आब आप सभी इन देवी को अपने सभी प्रकार के आयुध तथा आभूषण प्रदान करें।" समुद्र ने दो दिव्य वस्त्र तथा दिव्य हार, चूड़ा-मणि, दो कुंडल तथा कड़े, विश्वकर्मा ने बहुओं के लिए केयूर और कंगन देवी को भेट किये। वरुण ने कभी न कुम्हलाने वाला कमलों की माला, हिमवान ने सवारी हेतु सिंह तथा नाना रत्न देवी को प्रदान किये। त्वष्टा ने चरणों में पहनने हेतु सुन्दर नूपुर, कंठ हार तथा रत्न जड़ित अंगूठियाँ प्रदान की। तदनंतर, देवी वस्त्र तथा आभूषण धारण कर सिंह पर विराजमान हुई।
भगवान विष्णु ने अपना चक्र, भगवान शिव ने त्रिशूल, वरुण ने चमकीला, स्वच्छ एवं सुन्दर शंख, अग्नि देव ने शक्ति, पवन देव ने बाणों से पूर्ण तरकरा एवं धनुष, देवराज इंद्र ने वज्र एवं श्रेष्ठ शब्दों वाला घंटा, यमराज ने अपने काल दंड से प्रकट हुआ एक दंड, ब्रह्मा जी ने गंगा जल से भरा हुआ एक कमंडल, वरुण ने पाश, काल ने ढाल तथा तलवार, विश्वकर्मा ने फरसा, कुबेर ने मधु से भरा हुआ सोने का पात्र देवी को भेट स्वरूप प्रदान किया। त्वष्टा ने कौमोदकी गदा, अभेद कवच एवं बहुत से अस्त्र देवी को भेट किये, इन सभी आभूषणों से अलंकृत हो तथा आयुध धारण किये देवी सिंह पर विराजमान हुई, जिससे देवताओं को बड़ी शांति प्राप्त हुई। इसके पश्चात सभी देवताओं ने देवी की स्तुति की, जिससे प्रसन्न हो देवी का मुखमंडल प्रसन्नता से खिल उठा तथा वह देवों से कहने लगी ! “अब उस मूर्ख महिषासुर से निडर हो जाओ, मैं शीघ्र ही उस असुर का वध करूँगी।”
इसके पश्चात देवी ने अट्टहास पूर्वक उच्च स्वर से गर्जना की, उस महान भयंकर शब्द को सुनकर सभी दानव डर गए। उस अद्भुत स्वर से पृथ्वी कांप उठी तथा पर्वत श्रृंखला डगमगाने लगे, समुद्र में ऊँची-ऊँची लहरे उठने लगी। महिषासुर भी उस उच्च गर्जना को सुनकर क्रोधित हो गया, शंकित होकर उसने उस विशिष्ट ध्वनि के विषय में जानकारी प्राप्त करने हेतु दूत भेजा। ऐसी कठोर ध्वनि करने वाला जो भी हो उसे पकड़ कर उनके पास लाने का आदेश दिया। महिषासुर का दूत देवी के पास गया और उनके रूप को देख कर डर गया, वे हाथ में पान-पात्र लेकर मधु पान कर रहीं थीं, देवी के सर्वांग अत्यंत मनोहर थे, वे दिव्य आभूषणों से अलंकृत थीं, उन्होंने अठारह भुजाओं में उत्तम आयुध धारण कर रखा था तथा उनमें उत्तम लक्षण विद्यमान थे। दूत शीघ्र ही महिषासुर के पास जा कर कहा ! “एक सुन्दर स्त्री, जिसके सर्वांग तारुण्य से खिले हुए हैं, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण अंगों में नाना आभूषण धारण कर रखा हैं तथा जो बड़ी ही आकर्षक हैं। न ही वह मानव हैं और न ही दानव, उनकी अठारह भुजाएं हैं तथा नाना अस्त्र-शस्त्रों को धारण किये, विशाल सिंह पर विराजमान हैं। उनके सभी अंगों से अभिमान टपक रहा हैं, वे उत्तम मधु पान कर रहीं हैं, मेरे अनुसार उनका अभी विवाह नहीं हुआ हैं। समस्त देवता उत्साहित हो उनकी स्तुति कर रहें हैं, परन्तु मैं यह नहीं जान पाया हूँ की वह स्त्री कौन हैं। उसके शरीर से ऐसा प्रकाश निकल कर फैल रहा था जिसके कारण उनकी ओर देखना भी संभव नहीं हैं। अद्भुत रस वाली वह स्त्री अत्यंत भयानक प्रतीत हो रहीं हैं, उनका ऐसा रूप देखकर मैं उनसे बिना कुछ कहे ही वापस आ गया हूँ।”
तदनंतर महिषासुर ने साम, दाम, दंड आदि उपायों से उस स्त्री को लाने के प्रबंध करने का आदेश दिया, परन्तु किसी भी परिस्थिति में उसे आघात न पहुंचे। महिषासुर उस स्त्री को अपनी पटरानी बनाना चाहता था, वे आपके बारे में सुनकर मोहित हो गया था। महिषासुर की आज्ञा पाकर उसका प्रधानमंत्री, देवी के पास गया तथा दूर खड़े होकर उनसे मीठे स्वर में कहने लगा ! “मेरे स्वामी जगत विजयी हैं, देवता उनका वध नहीं कर सकते, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या हैं। तुम कौन हो तथा किस प्रयोजन से तुमने यहाँ उपस्थित रहने का कष्ट उठाया हैं? हमारे स्वामी को ब्रह्मा जी का वरदान प्राप्त हैं, संपूर्ण दानव उनका शासन मानते हैं, उनका नाम “महिषासुर” हैं। तुम्हारे मुग्ध करने वाले सुन्दर रूप के बारे में सुनकर वे तुमसे मिलना चाहते हैं। तुम्हारी जैसे रुचि हो तुम वैसा ही करो, तुम्हें अगर उचित लगे तो तुम वही चलो अन्यथा मेरे स्वामी यही पर चले आएंगे। आब तुम जो आज्ञा दो, मैं उसी का पालन करूँगा।
इस प्रकार महिषासुर के प्रधानमंत्री की बात सुनकर देवी ने मुसकुराते हुए गंभीर वाणी में कहा ! “तुम्हें यह समझ लेना चाहिये की मैं देवताओं की जननी हूँ तथा मेरा नाम ‘महालक्ष्मी’ हैं, दैत्यों का संहार करने हेतु ही मेरा प्राकट्य हुआ हैं। तुम्हारे स्वामी का वध करने हेतु ही, समस्त देवताओं ने मुझ से प्रार्थना की हैं तथा मैं उसे मारने का प्रयत्न कर रहीं हूँ। मैं अकेली नहीं हूँ, मेरे साथ गुप्त सेना हैं, तुमने आदरपूर्वक मेरे प्रति जो वचन कहा हैं उससे मैं संतुष्ट हूँ अन्यथा यह निश्चित जानो की मेरी दृष्टि प्रलयाग्नि की तुलना करने वाली हैं, जिसके प्रभाव से तुम नहीं बच सकते थे। तुम महिषासुर के पास जाकर मेरा सन्देश कहो ! यदि उसे प्राणों का लोभ हैं तो वह तुरंत पाताल चला जाए अन्यथा मैं उसका रण-भूमि में वध कर दूंगी। उसके जैसे असंख्य दैत्यों का प्रत्येक युग में मैंने वध किया हैं, वैसे ही उसे भी यमलोक पहुँचा दूंगी। ब्रह्म-प्रदत्त वर से वह अभिमान न करें, ब्रह्मा जी का वचन सिद्ध होना ही हैं, अतएव मैं अनुपम स्त्री का रूप धारण कर उसे मारने के निमित्त यहाँ आई हूँ।”
महिषासुर का प्रधानमंत्री भी शूरवीर था, देवी के इस प्रकार के वचनों को सुनकर वह भी बोलने लगा ! “अभिमान में मद स्त्री की तरह क्यों बात कर रहीं हो? कहाँ तुम और कहाँ हमारे दानव-राज। तुम अकेली स्त्री हो, जीवन के प्रथम सोपान पर तुम्हारा प्रवेश हुआ हैं। महिषासुर बहुत विशाल देह धरी हैं, उनके पास हाथी, घोड़ों और रथों से परिपूर्ण अनेक प्रकार की सेना हैं, नाना आयुध ले पैदल सेना भी अनगिनत हैं। युद्ध में तुम्हारे अंत हेतु उन्हें कुछ भी प्रयास करने की आवश्यकता नहीं हैं, तुम मिथ्या भाषण दे रही हो, व्यर्थ के अभिमान से युक्त हो चतुरता दिखा रही हो, तुम्हें व्यर्थ ही यौवन का अभिमान हो गया हैं। मैं तुम्हारा आज ही वध कर देता, परन्तु तुम्हारे रूप के बारे में सुनकर मेरे महाराज मोहित हो गए हैं, इसी कारण मेरे मुख से तुम्हारे लिए अत्यंत मधुर वाणी निकल रहीं हैं। उनके धन तथा सम्पूर्ण साम्राज्य पर तुम्हारा अधिकार होगा, वे तुम्हारे सेवक होकर रहेंगे, क्रोध का त्याग कर तुम उनसे प्रेमभाव बनाने की कृपा करो, मैं भक्तिपूर्वक तुम्हारे चरणों में पड़ा हूँ।”
देवी ने कहा ! “तुम महिषासुर के प्रधानमंत्री हो, तुम्हारे इस प्रकार के वचनों से सिद्ध होता हैं, तुम पाशविक बुद्धि से युक्त हो। जिसका तुम जैसा मंत्री हो वह बुद्धिमान कैसे हो सकता हैं, तुम दोनों एक ही समान हो। मूर्ख मैं पुरुष ही हूँ, मैंने स्वाभाविक गति से स्त्री का वेश धारण कर रखा हैं, तुम्हारे स्वामी स्त्री के हाथों से मृत्यु चाहते हैं, इसी कारण मुझे ऐसा वेश धारण करना पड़ा हैं। जिस समय देह और देहिका सम्बन्ध होता हैं, उसी क्षण उसके सुख, दुःख और मृत्यु, ये सभी लिख दिए जाते हैं, इसे कोई नहीं टाल सकता हैं। यहाँ तक, ब्रह्मा जी इत्यादि महान देवताओं के जीवन और मृत्यु, जिस काल और प्रकार से निश्चित हैं, उसे कोई नहीं बदल सकता हैं तथा इन देवताओं के वर से जिन्हें अमरता का अभिमान हो जाये वह कैसे बुद्धिमान हो सकता हैं। उनकी बुद्धि मारी जा चुकी हैं, तुम शीघ्र ही अपने स्वामी के पास जाओ और उसे मेरी बातें सुना दो; इसके पश्चात वह तुम्हें जैसा कहे वैसा ही करना।”
इस प्रकार दैत्य-राज के प्रधानमंत्री ने मन ही मन विचार किया की क्या करना उचित होगा? या तो इस स्त्री के साथ युद्ध करें या वापस दैत्यराज के पास जा देवी का सन्देश उन्हें दे। दैत्यराज ने उन्हें साम-दाम-दंड-भेद इत्यादि उपायों से उस स्त्री को उनके सनमुख ले जाने की आज्ञा दी थीं। अंततः उसने निश्चित किया की वह दैत्यराज के पास जाकर देवी का सन्देश उन्हें देगा।
महिषासुर के पास पहुंच कर उसके मंत्री ने कहा ! “अठारह भुजाओं से युक्त वह देवी वस्तुतः बहुत मनोरम हैं, उसने भुजाओं में नाना अस्त्र-शस्त्र धारण कर रखा हैं। मैंने उनसे कहा की मेरे स्वामी त्रिलोक के स्वामी हैं, तुम उनकी रानी बनोगी, दीर्घकाल तक त्रिलोक की संपत्ति भोगोगी तथा स्त्रियों में सर्वाधिक भाग्यशाली रहोगी। इस पर अभिमान से चूर वह देवी मुझ से बोलीं ! महिष के गर्भ से पैदा हुआ वह असुर पशुओं से भी नीच हैं, उसकी तो मैं बलि चढ़ा दूंगी। इस जगत की कोई भी स्त्री उस मूर्ख को अपना पति स्वीकार नहीं करेंगी, मैं उसे अपना पति नहीं बना सकती। मैं तो रण-भूमि में उसके साथ युद्ध करूँगी, मेरे ही हाथों से वह काल का ग्रास बनेगा। यदि वह जीने की इच्छा कहता हैं तो पाताल में चला जाये, राजन! उस स्त्री ने मुझ से बहुत कठोर वचन कहा हैं। आपकी आज्ञा के बिना मैं उस से युद्ध भी नहीं कर सकता था, वह असीम सुंदरी बल के अभिमान में चूर हैं, भविष्य में क्या होगा यह मेरी समझ से बहार हैं। आप जो उचित समझे वह ही करें या हमें आज्ञा प्रदान करें।”
तदनंतर, महिषासुर ने अपने मंत्रियों को बुलवाया तथा उनसे मंत्रणा की, इस अवसर में उन्हें क्या करना चाहिये। सभी ने कहा की यह बहुत गहन विषय हैं, इस समय क्या करना उचित होगा, यह कहना बहुत कठिन हैं। महिषासुर ने पुनः उनसे अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार मत व्यक्त करने का निवेदन किया। महाराज के इस प्रकार के वचन सुनकर महाबली ‘विरूपाक्ष’ उन्हें प्रसन्न करते हुए बोले ! “यह एक साधारण स्त्री हैं, अभिमान से युक्त होने के कारण उसके मुख से ऐसे वचन निकल रहे हैं। वह केवल डराने हेतु ही ऐसे बातें कर रहीं हैं। आप त्रिलोक पर विजय प्राप्त कर चुके हैं, एक सामान्य स्त्री से भयभीत होना आप को शोभा नहीं देता हैं। मैं अकेले ही उस स्त्री से युद्ध करने जा रहा हूँ तथा मैं अवश्य ही उसका वध कर डालूँगा, मैं रस्सियों से बाँध कर उसे यहाँ ले आऊंगा।” उसकी बात सुनकर ‘दुर्धर्ष’ ने उसके वचनों का अनुमोदन किया तथा महिषासुर से कहा ! “विरूपाक्ष की बातें सत्य हैं, मुझे ऐसा प्रतीत होता हैं की कामदेव ने इस सुंदरी को मथ डाला हैं। रूप के अभिमान में मत्त स्त्री प्रायः ऐसा भाव बनती ही हैं, अपने यौवन का अभिमान रखने वाली स्त्री के अस्त्र केवल उसके कटाक्ष ही हैं। यह सुंदरी, क्रोध तथा अभिमान में भरी होने के पश्चात भी अपने अनुकूल हो जाएगी, मीठे वचनों का प्रयोग कर मैं उसे आपके पास ले आऊंगा। मैं अभी जाता हूँ और ऐसा कोई जतन करता हूँ की वह सुंदरी दासी की भांति आप की सेवा में तत्पर हो जाये।” विरूपाक्ष की इस प्रकार की बातें सुनकर, ‘ताम्र’ ने भी अपना मत महिषासुर के सामने रखा ! “मैं रस और नीति से संयुक्त बात कहता हूँ ! काम से आतुर होकर प्रेम करने हेतु इस सुंदरी का आगमन नहीं हुआ हैं, उसके कहे हुए वचन व्यंगात्मक नहीं हैं। मन को मुग्ध करने वाली इस देवी का रूप बड़ा ही विलक्षण हैं, त्रिलोक में कभी किसी ने अठारह भुजाओं वाली स्त्री के बारे में नहीं सुना हैं साथ ही इसने सुदृढ़ आयुध धारण किया हुआ हैं। इस सुंदरी में असीम पराक्रम भी व्याप्त हैं, मेरी समझ में ये सब काल को प्रत्यक्ष दर्शा रहा हैं, रात में मुझे अनिष्ट सूचक स्वप्न आ रहें हैं। यह स्त्री न ही कोई मनुष्य हैं और न ही दानव और न ही गन्धर्व, अवश्य ही यह देवताओं की रची हुई माया हैं। जी भी हो युद्ध करना ही समुचित हैं, जो होना हैं वह तो होकर ही रहेगा।”
इसके पश्चात महिषासुर ने ताम्र को आज्ञा दी की वह उस स्त्री को धर्म-पूर्वक परास्त कर उसके पास ले आयें और यदि वह सुंदरी युद्ध में उसकी अधीनता न स्वीकार करें तो वह उसे तुरंत मार डाले। कसी भी उपाय से सर्वप्रथम सुंदरी स्त्री को वश में ले आना ही आवश्यक हैं। महिषासुर ने उसे विशाल सेना के साथ उस सुंदरी स्त्री के पास जाकर, बार-बार विचार कर उसके अभिप्राय या उद्देश्य को समझे की चेष्टा करने का आदेश दिया। इसके पश्चात अपनी योग्यता तथा बल के अनुसार युद्ध करना समुचित हैं, उस सुंदरी के मन के अनुसार व्यवहार करने की उसने ताम्र को सलाह दी। इसके पश्चात वह विशाल सेना ले वह से चला, पथ पर उसे बहुत अपशकुन दिखे जिससे वह चिंतित तथा भयभीत हो गया। उसने देवी को सिंह पर विराजमान देखा तथा सम्पूर्ण देवता उनकी स्तुति कर रहें थे। ताम्र सामनीति का प्रयोग कर विनीत भाव से देवी के सामने खड़ा हुआ तथा नम्रता युक्त हो कहने लगा ! “मस्तक पर सुन्दर सींग धारण करने वाले दैत्य पति तुम्हारे रूप तथा गुण पर निछावर हो चुके हैं, वे तुमसे विवाह करना चाहते हैं। दैत्य-पति देवताओं हेतु अजेय हैं, तुम उनका मनोरथ पूर्ण करो। तुम्हें इतने आयुध धारण करने की क्या आवश्यकता हैं? देवता तथा दानव हमारे महाराज का सम्मान करते हैं, तुम उन्हें अपना स्वामी बना लो, इससे तुम्हें सर्वोत्तम सुख प्राप्त होगा।
इस प्रकार ताम्र की बातें सुनकर देवी का मुखमंडल मुस्कान से भर गया तथा वे गंभीर वाणी में उससे बोलीं ! “तेरे मूर्ख स्वामी का काल अब निकट हैं, वह अब मृत्यु को गले लगाना चाहता हैं। तू जा और उससे यह कह दे कि तेरे जन्मदाता महिष हैं, जो घास-फूस खाते हैं, लम्बी पूंछ तथा बड़ा पेट हैं और सर पर सींग हैं, मैं वैसी नहीं हूँ। मैं ब्रह्मा जी, विष्णु, महेश, इंद्र, इत्यादि देवताओं को भी पति नहीं बनाना चाहती हूँ, इन प्रधान देवताओं को छोड़ कर मैं कैसे किसी पशु को अपना स्वामी बनाऊंगी? मैं पति को वरण करने वाली स्त्री नहीं हूँ, मेरे शक्तिशाली पतिदेव हैं। वे सबके कर्ता, साक्षी, अकर्ता और निस्पृह हैं, निर्गुण, निर्मम, अनंत, निरालम्ब, निराश्रय, सर्वज्ञ, सर्वगामी, पूर्ण, साक्षी, पूर्णाशय एवं कल्याण स्वरूप उनका श्री विग्रह हैं, ऐसे सुयोग्य पति को मैं कैसे त्याग सकती हूँ? तू संभल कर युद्ध कर, तुझे अभी मैं यमराज के घर भेज देती हूँ और यदि तुझे प्राणों का लोभ हैं तो सम्पूर्ण दानवों सहित पाताल भाग जा।” इस प्रकार ताम्र से कहकर देवी ने घोर गर्जना की, जिससे दैत्यों के मन में आतंक छा गया। इसके पश्चात सिंह से ही घोर गर्जना की तथा उस भैरव-नाद के कारण दैत्यों के रोम-रोम मैं भय भर गया, ताम्र अपनी सेना के साथ वापस लौट आया।
ताम्र को वापस आया देख कर महिषासुर चौंधिया गया तथा मंत्रियों के साथ बैठ कर आगे क्या करना उचित होगा, इसका विचार-विमर्श करने लगा। देश और काल के अनुसार अपने बुद्धिमान मंत्रियों से हेतु-युक्त मत लेने लगा, देवताओं द्वारा निर्मित उस देवी जिनमें अपार पराक्रम हैं; या तो वे देवी के शरणागत हो पाताल चेले जाते या उससे देवी से युद्ध करें। वह स्त्री युद्ध के निमित्त बार-बार आह्वान कर रही हैं, इससे बढ़कर और क्या उनके लिए महान आश्चर्य हो सकता था। महिषासुर की बात सुनकर ‘विड़ालाक्ष’ कहने लगा ! “सर्वप्रथम हमें उस देवी के सम्बन्ध में यत्न-पूर्वक जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिये, वह किस उद्देश्य तथा कहाँ से आई हैं, क्यों वह बार-बार हमें युद्ध हेतु ललकार रहीं हैं। इन देवी का किन से पाणिग्रहण हुआ हैं, यह तो निश्चित हैं की आप की मृत्यु किसी स्त्री के हाथों से ही हो सकती हैं। अवश्य ही ऐसा हैं की देवताओं ने अपने सामूहिक तेज पुंज से इसे उत्पन्न कर इसे भेजा हैं, और वे आकाश में स्थित होकर सब देख रहें हैं। अवश्य ही विष्णु इत्यादि देवता इस स्त्री के सहायक बन हमें युद्ध में मार डालेंगे, मेरी समझ से वह देवी देवताओं के मनोरथ को सिद्ध करने हेतु ही उपस्थित हुई हैं। आप इस समय युद्ध न करें।”
तदनंतर, दुर्मुख बोला ! “राजन ! मुझे ज्ञात हैं की युद्ध में हमारी विजय निश्चित ही हैं, युद्ध से विमुख होना अवांछनीय हैं, यहाँ हमारी कीर्ति को कलंकित करेगा। इस प्रकार के निन्दित कार्य का आश्रय नहीं लेना चाहिये, देवताओं से युद्ध के समय हमने अपना पूर्ण पराक्रम प्रदर्शित किया, फिर इस अकेली स्त्री से डर कर ऐसा क्यों किया जाये। युद्ध में हार तथा जीत दोनों होती हैं, जो होना हैं वह होकर ही रहेगा उसे टालना असंभव हैं। संग्राम में मृत्यु होने पर यश प्राप्त होता हैं और जीवित रहने पर सुख की प्राप्ति होती हैं, ये दोनों ही फल अनुकूल ही हैं, यह मानकर हमें अब युद्ध हेतु तत्पर हो जाना चाहिये।
वाष्कल ने भी दुर्मुख के मत से मत मिलाया और बोला ! "आपको इस विषय में किसी प्रकार की कोई भी चिंता नहीं करनी चाहिये, युद्ध से पीछे हटना कायरता ही हैं। मैं अकेला ही उस देवी का वध करने में समर्थ हूँ, मन में उत्साह रखिये मैं निर्भीक होकर अद्भुत युद्ध करूँगा। मैं विष्णु-भगवान शिव इत्यादि महादेवो से नहीं डरता हूँ, फिर वह अभिमान में चूर रहने वाली वह स्त्री मेरा क्या कर सकती हैं? मेरे रहते हुए आप को संग्राम में जाने की कोई आवश्यकता नहीं हैं।'
दुर्धर ने महिषासुर से कहा ! “मैं अकेले ही देवताओं द्वारा रची हुई उस देवी को परास्त कर दूंगा। अठारह भुजा धारण कर वह देवी अवश्य ही किसी कारण यहाँ उपस्थित हुई हैं। मैं स्वयं जाकर उस दुराचारिणी स्त्री को ले कर आ जाऊंगा, आप मेरा धैर्य तथा सामर्थ्य देखे।
इस प्रकार वाष्कल तथा दुर्मुख वहां से चल पड़े, वे सम्पूर्ण अस्त्र-शास्त्रों के ज्ञाता थे। जहाँ देवी विराजमान थीं वे दोनों उस स्थान में गए और गंभीर वाणी में कहने लगे ! “सम्पूर्ण दैत्यों के अधिष्ठाता महिषासुर जिन्होंने समस्त देवताओं को परास्त किया हैं, तुम उनकी अधीनता स्वीकार कर लो।” इस पर देवी ने कहा ! “तुम क्या मुझे अबला समझ रहें हो? मैं उस महान मूर्ख की सेवा करूँ? यह महिषासुर तो पशु का शरीर धारण किये रहता हैं। उस अधम को अपना पति कौन बनाना चाहेगा? तुम दोनों शीघ्र ही अपने स्वामी के पास जाओ और उसे मेरा सन्देश दो कि या तो वह पाताल चला जाये या मुझ से युद्ध करें।”
देवी ने जैसे ही वाष्कल तथा दुर्मुख से यह कहा, वे दोनों अत्यंत क्रोधित हो गए और युद्ध हेतु तैयार हो गए। दोनों दैत्यों तथा देवी में युद्ध प्रारंभ हो गया, दैत्य, देवी पर वाणों की वर्षा करने लगे। उन दोनों दैत्यों में वाष्कल बड़ा ही चंचल था, वह संग्राम में शीघ्र ही देवी के सामने आ गया तथा दुर्मुख दूर खड़ा हो देखते रहा। तदनंतर, देवी तथा वाष्कल में घोर युद्ध प्रारंभ हो गया, दैत्य को देख देवी अत्यंत क्रोधित हुई, दोनों में बाणों से युद्ध होने लगा। देवी के पास एक अर्ध-चन्द्र नामक बाण था, जिसका प्रयोग कर उन्होंने वाष्कल के धनुष को छिन्न-भिन्न कर दिया। तदनंतर, वाष्कल ने देवी पर गदा से प्रहार किया, देवी ने अपने गदा के प्रहार से उसे धराशायी कर दिया। परन्तु वह बड़ा ही पराक्रमी था, वह पुनः खड़े हो देवी पर गदा से प्रहार करने लगा, इस पर देवी ने अपने त्रिशूल से उस पर आघात किया, जिससे वह वही पर गिर गया और उसकी मृत्यु हो गयी। इस पर आकाश में स्थित देवताओं को अत्यंत हर्ष हुआ। इसके पश्चात दुर्मुख, देवी से युद्ध करने को उद्धत हुआ, क्रोध से उसकी आंखे लाल हो गयी थीं। वह देवी पर तीखे बाण चलने लगा जो विषधर के समान भयंकर थे, देवी ने अपने अस्त्रों से उसके तीर काट डाले और वे जोर से गर्जना करने लगी। वे दोनों गदा, बाण, शक्ति, मुसल और तोमर इत्यादि अस्त्र-शास्त्रों से प्रहार कर घोर युद्ध करने लगे। दुर्मुख ने पुनः देवी को दानव-राज को अपने पति रूप में स्वीकार करने हेतु कहा, अन्यथा वह देवी का वध कर देगा। देवी ने उत्तर दिया ! "जैसे बाष्कल को यमलोक भेज दिया, तू भी वही जाने के लिए तैयार हो जा।" इस पर वह देवी पर बाणों की वर्षा करने लगा, देवी ने अपने बाणों से दैत्य के सरे बाण काट दिए तथा उसके रथ को भी छिन्न-भिन्न कर दिया। गदा धारण किये हुए दुर्मुख को देखकर देवी ने अपनी तीखी तलवार से उसके मस्तक को धड़ से अलग कर दिया। यह देख सभी देवता, मनुष्य इत्यादि बहुत हर्षित हुए।
महिषासुर को जब ये ज्ञात हुआ की दुर्मुख तथा वाष्कल की युद्ध में मृत्यु हो गयी हैं, वह क्रोध के कारण मूर्छित हो गया। उसे बड़ा ही आश्चर्य हो रहा था की एक अबला स्त्री के द्वारा इतने शूरवीर योद्धा कैसे हार गए और मृत्यु को प्राप्त हुए। दोनों दानवों की मृत्यु के पश्चात, इस विषम परिस्थिति में क्या करना उचित होगा? यह सोच महिषासुर अपने मंत्रियों से पुनः विचार विमर्श करने लगा। इस पर चिक्षुर ने कहा कि वह उस स्त्री का वध कर देगा तथा शक्तिशाली ताम्र को उसने अपना अंगरक्षक बना लिया। उसके युद्ध हेतु आगमन देख, देवी बड़े ही अद्भुत ढंग से शंख तथा घंटा ध्वनि और धनुष टंकार करने लगी। घनघोर ध्वनि सुनकर सभी दैत्य सैनिक भय के मारे भागने लगे, यह देख चिक्षुर के क्रोध की सीमा नहीं रहीं। उसने निश्चय कर लिया की वह आज उस स्त्री को मार ही डालेगा तथा उसने अपने हाथों में धनुष उठा लिया तथा देवी से कहने लगा ! “देवी अन्य मनुष्यों की तरह तुम्हारे द्वारा की हुई गर्जना से मैं नहीं डरता, स्त्री का वध करना दोष हैं, इस अपकीर्ति के कारण मैं तुम्हें नहीं मरना चाहता हूँ। तुम जैसे स्त्री तो अपने कटाक्षों से ही युद्ध का काम सम्पूर्ण कर लेती हैं। तुम्हारे मन मैं मूर्खता भरी हुई हैं, तभी तुम सुख का परित्याग कर युद्ध करना चाहती हो, तुम्हें मेरे स्वामी महिषासुर को पति रूप में अपना लेना चाहिए।” देवी ने कहा ! “तू पंडितों की तरह क्यों बक रहा हैं, न तो तू नीति शास्त्र का ज्ञाता हैं, न ही तुझे धार्मिक बुद्धि ही सुलभ हैं, तू तो आज तक मूर्खों की सेवा करता आ रहन हैं। यह तू सत्य जान की महिषासुर मेरे हाथों से मारा जायेगा, तू भी सावधान होकर मुझसे युद्ध कर।”
देवी के इस प्रकार के वचन सुनकर चिक्षुर ने देवी के ऊपर बाणों की वर्षा प्रारंभ कर दी, देवी ने भी अपने बाणों से उसके प्रत्येक बाण को काट दिया। देवी ने सिंह पर विराजमान होकर दैत्य पर गदा से प्रहार किया, जिसके कारण वह मूर्छित हो गया। दो मुहूर्त तक वह अपने रथ पर मूर्छित पड़ा रहा, ताम्र में भी कम चपलता नहीं थीं। चिक्षुर को मूर्छित देख वह युद्ध भूमि पर देवी से युद्ध करने हेतु आया, जिसे देख देवी बोली ! “आओं-आओं मैं तुझे यमपुरी भेजने की व्यवस्था करती हूँ, तुम लोगों की आयु समाप्त हो चुकी हैं। अतः तुम लोगों ने आने मेरा क्या कार्य सिद्ध हो सकता हैं? मेरे परिश्रम की कोई सफलता नहीं होगी क्योंकि वह महिषासुर अभी भी जीवित हैं। तुम घर जाकर उसे युद्ध करने हेतु भेजो।” देवी के इस प्रकार के वचन सुनकर ताम्र अत्यंत क्रोधित हुआ तथा देवी पर वाणों की वर्षा प्रारंभ कर दी। देवी ने जैसे ही ताम्र को मरने हेतु बाण अपने धनुष में चढ़ाये, चिक्षुर की मूर्च्छा टूट गयी, वह उठकर बैठ गया। इसके पश्चात वह धनुष ले देवी से युद्ध करने हेतु उद्धत हुआ, दोनों दैत्य देवी के संग युद्ध करने लगे। ताम्र के पास एक लोहे का बना हुआ मूसल था, जिस से उसने सिंह के मस्तक पर वार किया और जोर से गरजने लगा। यह देख देवी का क्रोध अत्यधिक हो गया तथा अपनी तलवार से उन्होंने ताम्र का मस्तक उसके धड़ से अलग कर दिया। यह देख चिक्षुर हाथ में तलवार ले देवी की और दौड़ा। देवी ने उसकी तलवार अपने बाण से काट दिए तथा उसके मस्तक को धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार दोनों दैत्य चिक्षुर तथा ताम्र का वध हो गया, ये दोनों बड़े ही पराक्रमी थे।
इन दोनों शूरवीर दैत्यों के मारे जाने पर महिषासुर की आश्चर्य की कोई सीमा ही नहीं रही। उसने देवी के वध हेतु बहुत से अमित बलशाली दैत्यों को जाने की आज्ञा दी, जिनमें ‘असिलोमा और विडालाक्ष’ मुख्य दानव थे, युद्ध में इनका सामना कोई नहीं कर पाता था। नाना अस्त्र-शास्त्रों के साथ, बहुत बड़ी सेना ले ये देवी से युद्ध करने हेतु पहुंचे। असिलोमा, देवी के सनमुख गया तथा नम्रता से कहने लगा ! “सत्य बताओ किस कारण तुमने यहाँ आने का कष्ट उठाया हैं और तुम इन निरपराध दैत्यों को क्यों मार रहीं हो? मैं तुम्हारे साथ संधि करने हेतु तैयार हूँ। जैसे भी वस्तुओं की चाह हो रत्न इत्यादि लेकर युद्ध की इच्छा त्याग कर शीघ्र ही यहाँ से प्रस्थान करो। तुम्हारा यह शरीर अत्यंत कोमल हैं, पुष्प का आघात भी तुम्हारे शरीर के लिए असह्य हैं, ऐसे स्थित में तुम कैसे युद्ध कर रहीं हो। तुम दुःख के हेतु संग्राम की क्यों इच्छा कर रहीं हो? इस यौवन हेतु सर्वोत्तम भोगो को भोगने में अपना समय सार्थक करो, शरीर में यह युवावस्था क्षणभंगुर हैं। दैत्यों ने तुम्हारे प्रति कोई अपराध नहीं किया हैं, फिर तुम उन्हें क्यों मार रहीं हो? यह बताने की कृपा करो।"
देवी ने उत्तर दिया ! “मैं यहाँ किस हेतु से आई हूँ, इसे सुनो ! सम्पूर्ण लोकों मैं मेरा निरंतर विचरण होता हैं, मैं ही प्राणियों के उचित तथा अनुचित कार्यों को साक्षी रूप से सर्वदा देखती हूँ। न ही मेरा किसी के प्रति द्वेष भाव हैं और न ही प्रेम भाव, धर्म की मर्यादा को स्थिर रखने तथा साधु जानो के संरक्षण हेतु मैं इस धराधाम में भ्रमण किया करती हूँ। इस व्रत का मेरे द्वारा नित्य पालन किया जाता हैं, दुष्टों का विनाश, वेदों का संरक्षण तथा साधु पुरुषों की रक्षा करना, यह मेरे सहज कार्य हैं। महिषासुर महान नीच हैं, देवताओं का सर्वदा ही अहित चाहता हैं, यह जानकार मैं उसके वध हेतु यहाँ उपस्थित हुई हूँ। अतः तुम अपने महाराज को स्वयं युद्ध में उपस्थित होने के लिए कहो, संभव हैं तुम्हारे महाराज संधि कर ले। उस परिस्थिति में तुम लोगों ने देवताओं से जो छिना हैं उसे वापस कर पाताल चले जाना होगा, जहाँ प्रह्लाद जी का वास हैं।” देवी के इस प्रकार के वचन सुनकर असिलोमा ने विडालाक्ष से कहा ! “देवी ने जो कहा हैं उसे तुमने सुन लिया हैं, अब हमें संधि करना चाहिये या विग्रह?
विडालाक्ष ने कहा ! “युद्ध में मृत्यु तो निश्चित ही होती हैं, इस रहस्य को जानते हुए भी स्वाभिमानी नरेश संधि की इच्छा नहीं कर सकते हैं। अपने स्वामी के सनमुख जाकर यह वचन कैसे निकल सकता हैं कि देवताओं का सब उन्हें प्रदान कर, हम सब लोग पाताल को चले। इस प्रकार उनसे कहने पर उनकी क्रोध अग्नि और अधिक भड़क उठेगी। मृत्यु तो निश्चित ही हैं, अतः मृत्यु को तुच्छ समझ कर अपने स्वामी के अभिलषित कार्य में जुट जाना ही उचित हैं।" इस प्रकार दोनों दैत्यों ने विचार कर, हाथों में धनुष बाण ले युद्ध हेतु डट कर खड़े हो गए। पहले विडालाक्ष ने देवी पर बाणों से प्रहार किया और असिलोमा दूरदर्शी बन कर खड़ा रहा। देवी ने विडालाक्ष के सरे बाण काट डाले, साथ ही अपने तीखे बाणों से उसे बिंध डाला, जिसके कारण वह युद्ध भूमि पर गिर पड़ा और उसे मूर्छा आ गई तथा कुछ क्षणों के पश्चात उसकी मृत्यु हो गयी। यह देख असिलोमा हाथ में धनुष ले देवी से युद्ध करने आया, धनुष उठा कर उसने देवी के प्रति कुछ परिमित वचन कहे ! “दानव बहुत दुराचारी हैं, अवश्य अब उनकी मृत्यु सामने हैं। पराधीन होने के कारण मेरे हेतु युद्ध करना परम कर्तव्य हैं, महिषासुर महान मूर्ख हैं। मैं वीर धर्म के अनुसार मृत्यु को प्राप्त होना उचित समझता हूँ, मेरे समझ से प्रारब्ध बलवान हैं।” इस प्रकार कहने पर दानव ने देवी पर बाण चलाना प्रारम्भ कर दिया, देवी ने भी उसके बाणों को काट दिया। साथ ही शीघ्रगामी बाण से उसे बिंध डाला, उस समय देवी का क्रोध चरम सीमा पर था। असिलोमा का सम्पूर्ण शरीर बाणों से बिंध गया था, जिससे रुधिर की धार बह रही थीं, इसके पश्चात उसने लोहे की गदा उठाई तथा शीघ्रता से देवी की ओर दौड़ा। उसने सिंह के मस्तक पर गदा से प्रहार किया, सिंह ने गदा प्रहार की परवा न करते हुए, उलटे अपने नखों से उसकी छाती चिर डाली। इसके पश्चात वह सिंह के ऊपर चढ़, देवी पर गदा से प्रहार किया; देवी ने उसके गदा के प्रहार को रोक लिया तथा अपने तलवार से उसके मस्तक को धड़ से अलग कर दिया। मृत्यु होने पर उसकी सेना में हाहाकार मच गया तथा देवता अपार हर्ष में डूब गए, वे देवी की ‘जय हो - जय हो’ कर स्तुति करने लगे।
कुछ दानव सैनिक जो बच गए थे, वे महिषासुर के पास गए तथा असिलोमा और विडालाक्ष के मृत्यु का समाचार उन्हें सुनाया। यह समाचार सुनकर महिषासुर बहुत उदास हुआ, दुःखी हुआ तथा उसके क्रोध की कोई सीमा न रहीं। उसने सैनिकों को अपना उत्तम आयुधों से सज्जित रथ लाने का निर्देश दिया तथा वह सुन्दर कामदेव जैसे मनुष्य का शरीर धारण कर युद्ध पर जाने हेतु तत्पर हुआ। उसे यह संदेह था की कही उसके भैंसे (महिष) जैसे कुरूप रूप को देख कर देवी उदास न हो जाये, वह आकर्षक रूप और चतुरानन संपन्न होकर देवी के सनमुख गया। अभिमान में चूर हो तथा बहुत बड़ी सेना के साथ वह देवी के सामने पहुँचा, देवी ने यह देख शंख ध्वनि की। महिषासुर देवी के रूप से मोहित हो बोला ! “यह जगत परिवर्तनशील हैं, जो भी इस जगत में रहते हैं उसे सुख भोगने की इच्छा बनी रहती हैं तथा जो सर्वोत्तम सुख देने में समर्थ हैं, उसी से संयोग श्रेष्ठ कहा गया हैं। मैं वीर पुरुष हूँ, यदि तुम मेरे संग संयुक्त हो जाओ तो तुम्हें सर्वोत्तम सुख प्राप्त होना निश्चित हैं। मैं अपने रुचि के अनुसार अनेक रूप धारण करने में समर्थ हूँ, समस्त देवता संग्राम में मुझ से परास्त हो चुके हैं, सुंदरी ! अब तुम मेरी पटरानी बनने का प्रस्ताव स्वीकार करो, मैं तुम्हारी दासता स्वीकार करने हेतु तैयार हूँ। अगर तुम कहो तो मैं देवताओं से वैर करना त्याग दूंगा, तुम्हें जिस कार्य में सुख हो वही मेरा शिरोधार्य होगा। तुम बहुत सुन्दर हो तथा तुम्हारे रूप ने मुझे मोह लिया हैं, मैं तुम्हारा निज चाकर हूँ तथा जीवन पर्यंत तुम्हारी चाकरी करता रहूँगा, सत्य वचन का पालन करूँगा, नाना आयुध त्याग दूंगा, मेरा मस्तक तुम्हारे आगे झुका हैं। ऐसे दीनता जन्म से आज तक कभी मेरे अन्दर नहीं आयी, मैं केवल तुम्हारे समक्ष ही अधीनता स्वीकार कर रहा हूँ।” देवी ने महिषासुर से कहा ! “परम पुरुष परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष मेरा अभीष्ट नहीं हैं। चराचर जगत की सृष्टि करना मेरा प्रधान कर्तव्य हैं, वे परम पुरुष इस चराचर जगत के आत्मा हैं। मैं गम्य सुख भोगने की इच्छा नहीं करती हूँ, हे मूर्ख देवताओं के वैर छोड़कर स्वतंत्र पूर्वक संसार में विचरण कर अथवा पाताल चला जा या मेरे संग युद्ध कर। स्त्री का संग करने पर महान कष्ट उठाना पड़ता हैं, तेरा वध करने हेतु ही देवताओं ने मेरा यहाँ आवाहन किया हैं। मैं तुझे प्रसन्नतापूर्वक कहती हूँ, जीते-जी तू सुखपूर्वक यहाँ से चला जा; यह समझ की मैं तुझे जीवन दान दे रहीं हूँ।”
काम से मोहित हो महिषासुर देवी से पुनः मीठी-मीठी बातें करने लगा। वह कहने लगा ! “तुम जैसे अत्यंत सुन्दर एवं सुकोमल अंगों वाली नारी पर मुझे आघात करने में संकोच हो रहा हैं। तुम्हारे साथ मेरा युद्ध करना उचित नहीं होगा, या तो तुम मेरा पति रूप में वरण करो अन्यथा जहाँ से आई हो वहां चली जाओ, स्त्री का वध करने में तनिक भी शोभा नहीं हैं।” देवी ने महिषासुर से कहा कि अब या तो युद्ध करें या पाताल भाग जाए, उसे मरने के पश्चात वह सुखपूर्वक वहां से चली जाएंगी। जब-जब संत पुरुषों को कष्ट पहुँचता हैं, उनकी रक्षा करने हेतु वह देवी देह धारण करती हैं, वे अजन्मा तथा अरुपा हैं, उनकी वाणी अमोघ हैं। देवताओं द्वारा प्रार्थना करने पर वे उसे मारने हेतु वहां प्रकट हुई हैं, उसे मरने के पश्चात वह अंतर्ध्यान हो जाएंगी। इस प्रकार देवी की बात सुनकर महिषासुर ने हाथ में धनुष उठा लिया तथा देवी के ऊपर वाणों की वर्षा करने लगा, यह देख देवी ने अभी अपने बाणों से उसके समस्त बाण काट दिए। दोनों में भयंकर युद्ध प्रारंभ हो गया, देवता तथा दानव दोनों युद्ध में विजय चाहते थे, इतने में वहां ‘दुर्धर’ आ गया तथा वह देवी के साथ युद्ध करने लगा। देवी ने उस पर अपने बाणों से आघात पहुँचा कर उसे यमलोक पहुंचा दिया, यह देख उत्तम अस्त्रों का ज्ञाता ‘त्रिनेत्र’ आया और उसने देवी पर सात वाणों से आघात किया। देवी ने उन सभी बाणों को काट दिया तथा अपने त्रिशूल से उसे भी यमलोक पहुँचा दिया। यह देख तुरंत ‘अन्धक’ लोहे की गदा ले देवी से युद्ध करने हेतु आया, उसने सिंह पर गदा से प्रहार किया किन्तु क्रोध में भरे हुए सिंह ने उसे अपने नखों से चीर डाला और उसका मांस खाने लगा।
इतने दैत्यों की युद्ध में मृत्यु हो जाने पर, महिषासुर की आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रहीं, उसने देवी को अपने बाणों से लक्ष्य बनाया। देवी ने उसके बाणों को क्षण भर में चीर दिए तथा गदा से उसके छाती पर आघात किया, कुछ क्षण के लिए उसे मूर्च्छा आ गयी। कुछ क्षण पश्चात वह पुनः युद्ध में वापस आया तथा अपने गदा से सिंह के मस्तक पर प्रहार किया, जिस पर सिंह उसे नखों से मरने हेतु तत्पर हो गया। इस पर महिषासुर, पुरुष रूप त्याग कर सिंह का रूप धारण किया और देवी के सिंह से युद्ध करना प्रारंभ कर दिया। यह देख देवी क्रोध में तमतमा उठीं, वे महिषासुर पर वाणों की वर्षा करने लगी। महिषासुर ने सिंह का भेष त्याग कर हाथी का रूप धारण कर पर्वत शिखरों को देवी की ओर फेंकने लगा, देवी ने अपने बाणों से उन पर्वत शिखरों को एक-एक कर काट दिया। तदनंतर उसने हाथी का रूप त्याग कर अत्यंत भयंकर एवं बलवान शरभ का रूप धारण किया तथा देवी के सिंह को मारने का प्रयास करने लगा। इस पर देवी ने क्रोधित होकर उसके मस्तक पर तलवार से आघात किया, दानव-राज ने भी देवी पर चोट की, दोनों में अत्यंत भयंकर युद्ध होने लगा। दैत्य-राज ने पुनः महिष का रूप धारण कर अपनी सींग से देवी पर प्रहार करने लगा, उसका वह रूप बड़ा ही भयानक था जिस से देवी को चोट लगने लगी। वह अपने सींगों पर बड़े-बड़े पत्थर रखकर घुमा-घुमा कर फेंक रहा था, अभिमान में चूर उस दैत्य ने देवी से कहा ! “मैं तुम्हें आज अवश्य ही मार डालूँगा, तुम्हारी बुद्धि मारी गयी हैं रूप एवं तारुण्य से शोभा पाने वाली सुंदरी। तुम्हें मरने के पश्चात मैं उन देवताओं के भी प्राण हर लूँगा, जिन्होंने तुम्हारी प्रतिष्ठा की हैं।” देवी बोलीं ! “व्यर्थ अभिमान न कर, संग्राम में ठहर जा, मैं तेरा वध कर देवताओं को निर्भय करूँगी।” इस प्रकार कह कर देवी अपने त्रिशूल से महिषासुर पर झपटी, महिषासुर कपट विद्या का बड़ा अच्छा जानकार था। वह नाना माया देह धारण कर देवी पर आघात कर रहा था, देवी ने क्रोध में भर कर तीखे त्रिशूल से दानव के छाती पर प्रहार किया। इस पर चोट लगने पर वह भूमि पर गिर गया, कुछ क्षण हेतु वह पुनः अचेत हो गया परन्तु चेतना वापस आते ही वह देवी पर प्रहार करने लगा तथा भयंकर गर्जना प्रारंभ कर दी। तदनंतर देवी ने अपना श्रेष्ठ चक्र हाथ उठा कर दैत्य-राज पर चला दिया, जिससे उसका मस्तक देह से अलग हो गया तथा चक्कर काटते हुए पृथ्वी पर गिरा। देवताओं में अपार हर्ष छा गया तथा विजय-घोषणा आरम्भ हो गई। महिषासुर के मृत्यु के पश्चात बचे हुए असुरों ने पाताल की रह पकड़ी। इसके पश्चात देवी युद्ध भूमि से पृथक हो एक पवित्र स्थान पर विराजमान हुई, वहां सभी देवताओं, मुनियों, मानव तथा अन्य साधुओं ने उनकी यथाविधि आराधना की। सभी ने मिलकर देवी की उत्तम स्तुति की।